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पल्ला झटकने का झटका बड़ा
'ब्रिटेन' और 'एक्जिट' के योग से बने बे्रक्जिट शब्द ने जहां विश्व व्यवस्था में थरथराहट पैदा की है, वहीं फ्रांस को लेकर 'फ्रेक्जिट' की संभावना को भी अभी पूरी तरह नकारा नहीं जा सकता। वैसे तकनीकी तौर पर ब्रिटेन के लिए यूरोपीय संघ से एक झटके में अलग होना सरल नहीं है।
भगवती प्रकाश शर्मा
ब्रिटेन के मतदाताओं ने 23 जून को वहां हुए जनमत संग्रह में यूरोपीय संघ (ईयू) से अलग होने का निर्णय लेकर समूचे यूरोप में अप्रत्याशित राजनीतिक बिखराव एवं आर्थिक संकटों का झंझावात उभार दिया। ब्रिटेन के इस निर्णय के बाद फ्रांस में भी यूरोपीय संघ से अलग होने के लिए जनमत संग्रह की मांग उठी। यद्यपि, राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांद ने इसकी संभावना से इनकार कर दिया है, लेकिन 2017 में होने वाले चुनावों के कारण वे भी ब्रिटेन के प्रधानमंत्री डेविड कैमरन की तरह ही जनमत संग्रह करवाने के लिए दबाव में आ सकते हैं। फ्रांस की धुर दक्षिणपंथी व लोकप्रिय नेता मेरिन ले पें चाहती हैं कि फ्रांस में भी ब्रिटेन जैसा जनमत संग्रह हो। मई, 1994 में यूरोपीय संसद के चुनावों में भी ईयू के पृथक्करण के पक्षधर दलों के मतों और सांसदों की संख्या दोगुनी हुई थी। यूरोपीय संघ के संविधान को फ्रांस के मतदाता 2005 में नकार भी चुके हैं। ब्रिटेन+एक्जिट से निर्मित शब्द ब्रेक्जिट के लिए जनमत संग्रह की तरह अभी फ्रांस में फ्रांस+एक्जिट अर्थात् फ्रेक्जिट की संभावना को पूरी तरह नकारना संभव नहीं है।
ब्रिटेन के आधे से अधिक 51़ 9 प्रतिशत मतदाताओं के यूरोपीय संघ से अलग होने के पक्ष में मतदान के परिणाम आते ही इस निर्णय को अपनी हार के रूप में लेते हुए ब्रिटेन के प्रधानमंत्री कैमरन ने अपने इस्तीफे की भी घोषणा कर दी। इस बीच स्कॉटलैण्ड में भी अब फिर ब्रिटेन से अलग होने की मांग तेज हो गई है। स्कॉटलैण्ड व उत्तरी आयरलैण्ड के मतदाताओं का बहुमत ईयू में बने रहने के पक्ष में था। वैसे स्कॉटलैण्ड के 56 प्रतिशत मतदाता 2014 में हुए जनमत संग्रह में ब्रिटेन में रहने के पक्ष में मतदान कर चुके हैं। यूनाइटेड किंग्डम (यू़ के़) चार राष्ट्रों यथा- इंग्लैण्ड, वेल्स, स्कॉटलैण्ड और उत्तरी आयरलैण्ड से मिलकर बना है। वहां अलगाववादी आन्दोलन चलते भी रहे हैं। इस जनमत संग्रह को लेकर 24 जून की रात से ही ब्रिटेन में जो नस्ली तनाव बढ़ गया, उसमें वहां बसे भारतीय भी प्रभावित हुए हैं। यह इसका सर्वाधिक दुर्भाग्यपूर्ण पहलू है। वहां नस्ली तनाव हर हाल में रुकना चाहिए। जनमत संग्रह में हर वर्ग स्वतंत्र है। पूरे यू़ के़ में मत विभाजन में कई विरोधाभास रहे हैं।
जनमत संग्रह में कुल मतदान भी 72 प्रतिशत ही था। लेकिन मई, 2014 में यूरोपीय संसद के लिए हुए चुनावों में हुए 40 प्रतिशत मतदान की तुलना में यह मतदान प्रतिशत बहुत ऊंचा है। इस जनमत संग्रह में भी 18-24 वर्ष की आयु के 64 प्रतिशत मतदाताओं ने ईयू के साथ रहने के पक्ष में मतदान किया है। दूसरी ओर 65 वर्ष से अधिक आयु के 58 प्रतिशत मतदाताओं ने अलग होने के पक्ष में मतदान किया है। यूनाइटेड किंग्डम की चार राष्ट्रीयताओं में से इग्लैण्ड 53़ 4 प्रतिशत व वेल्स के 52़ 5 प्रतिशत मतदाताओं ने ईयू से अलग होने और स्कॉटलैण्ड और उत्तरी आयरलैण्ड में इसके विपरीत क्रमश: 62 प्रतिशत व 55 प्रतिशत ने ईयू में ही रहने के पक्ष में मत दिया है।
विपक्षी लेबर पार्टी में भी हड़कंप
यूरोपीय संघ से यूनाइटेड किंगडम के बाहर निकलने के इस फैसले से आहत, ब्रिटेन की सत्तारूढ़ कंजरवेटिव पार्टी के प्रधानमंत्री डेविड कैमरन के त्यागपत्र के साथ ही विपक्षी लेबर पार्टी के छाया मंत्रिमंडल (शैडो कैबिनेट) के भी आधे से अधिक मंत्रियों ने 26 जून को इस्तीफे दे दिए हैं। विपक्षी लेबर पार्टी ईयू में बने रहने के पक्ष में इस्तीफा देने वाले मंत्रियों का आरोप है कि कोर्बिन अपना पक्ष जनता के सामने ठीक से नहीं रख सके। दो सांसदों ने तो उनके विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पेश कर दिया है और कुछ ने कोर्बिन से इस्तीफा भी मांगा है। इसके साथ ही दूसरी ओर वहां अब दोबारा जनमत संग्रह की याचिका पर भी मात्र 48 घंटे में 31 लाख से अधिक हस्ताक्षर हो गए हैं। इस पर हाउस ऑफ कॉमन्स की पिटीशंस सलेक्ट कमेटी विचार करेगी। लेकिन प्रधानमंत्री कैमरन ने इससे इनकार कर दिया है। इसका परिणाम समय ही बताएगा।
अलग होने के कारण
ब्रिटेन के 52 प्रतिशत मतदाता, जिन्होंने अलग होने के पक्ष में मत दिया, लगता है अब 43 वर्ष के अनुभव ने ब्रिटिश जनता का ईयू से मोहभंग कर दिया। इस अवधि में यूरोपीय संघ में पूर्वी यूरोप के साम्यवादी रह चुके लगभग एक दर्जन देश और मिल गये। इन देशों का जीवन-स्तर पश्चिमी यूरोपीय देशों की तुलना में अत्यन्त नीचा था और संघ में मिलने वाली आब्रजन की छूटों का लाभ उठाते हुए लाखों पूर्वी यूरोपीय श्रमिक ब्रिटेन में आ गए हैं। इनमें आतंकवादी और जिहादी तत्व भी हैं। इससे ब्रिटेन के अपने निवासियों के रोजगार छिनने लगे, जीवन-स्तर गिरने लगा और अपराध बढ़ने लगे। यहां तक कि आतंकियों को ब्रिटेन में बस जाने की सुविधा मिलने लग गई। दूसरी ओर यूरोपीय संघ के अफसरशाहों द्वारा बनाए संघ के अलोकतांत्रिक कानूनों को ब्रिटिश राजकोषीय नीति, व्यापार, कृषि, उद्योगों, वाणिज्य एवं अन्तरराष्ट्रीय व्यापार पर लागू करने से ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था व्यापक रूप से प्रभावित होने लगी थी। ब्रिटेन, इस संघ का दूसरा सबसे सम्पन्न और शक्तिशाली देश है और अलग होने के पक्षधर लोगों का मत है कि संघ द्वारा थोपे प्रावधानों से उसकी आर्थिक प्रगति भी अवरुद्ध हुई है। इस्लामी देशों से यूरोप में आने वाले शरणार्थियों के बढ़ने से ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था, संस्कृति और कानून-व्यवस्था सभी गंभीर रूप से प्रभावित होने लगे थे।
पृष्ठभूमि
वस्तुत: ईयू के 59 साल के इतिहास में पहली बार कोई देश उससे बाहर होगा। आज से 43 साल पहले 1973 में ब्रिटेन ईयू में शामिल हुआ था। 1957 में यूरोपीय आर्थिक समुदाय की स्थापना के 16 वर्ष बाद 1973 में ही ब्रिटेन शामिल हुआ था। प्रारंभिक 16 वर्ष तक वह अपने आपको यूरोपीय नहीं मानकर उनसे अलग और ऊपर मानता रहा है। संघ में सम्मिलित होने के बाद भी उसने आज तक 'यूरो' की बजाय पाउंड को ही अपनी मुद्रा बनाए रखा था। इसी तरह अन्य सदस्य-राष्ट्रों की तरह ब्रिटेन शेन-जेन वीजा के आधार पर अपने देश में मुक्त यात्रा की सुविधा भी नहीं देता है। पूर्व में 1975 में भी मांग उठी थी कि ब्रिटेन यूरोपीय संघ छोड़े। लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री हेराल्ड विल्सन को तब जनमत-संग्रह में 67 प्रतिशत लोगों ने ईयू के साथ रहने के पक्ष में समर्थन दिया और ब्रिटेन यूरोपीय संघ में ही बना रहा।
पहले असमंजस, अब दर्द
ब्रिटेन में ईयू से अलग होने की कवायद जितनी तेज थी, अब इसका नतीजा आने के बाद गठबंधन को बनाए रखने के पक्ष में हस्ताक्षर अभियान भी उतने ही जोर-शोर से चल रहा है। वैसे, ईयू से अलग होने की पक्षधर यूनाईटेड किंग्डम इंडिपेण्डेन्स पार्टी के अनुसार ईयू के नियमों से खुद को बांधे जाने की वजह से ब्रिटेन कई मामलों में पीछे रह गया है।
ईयू ने व्यापार से जुड़े कई सख्त नियम खड़े कर दिए थे और कई करोड़ पाउंड वार्षिक मिल रहे सदस्यता शुल्क के बदले ब्रिटेन को कुछ लाभ नहीं मिल रहा है। ब्रिटेन अपनी सीमाओं पर पूरी तरह नियंत्रण चाहता था और वहां बाहर से आकर काम करने वालों की संख्या कम करना चाहता था। ईयू में रहते कोई देश सदस्य-देशों की जनता के आवागमन पर रोक नहीं लगा सकता। बहुसंख्य जनता चाहती है कि जीवन-यापन के लिए बाहर से आ रहे लोगों की संख्या घटे। यूरोप में कई देशों से शरणार्थियों के आगमन की समस्या भी भारी है। 2015 में सीरिया, अफगानिस्तान और इराक जैसे देशों से कई लाख शरणार्थियों ने यूरोप के देशों में शरण ली है। वे भी ब्रिटेन में घुसपैठ करते रहते हैं यूरोपीय संघ के अन्य सदस्य भी इस संकट से अछूते नहीं हैं। वर्ष 1993 से पहले ब्रिटेन में आने वालों में से वहां से बाहर जाने वालों की संख्या घटाने पर मात्र 10 हजार अप्रवासी ही बढ़े थे। लेकिन 1993 से 2014 के बीच विदेशों में जन्मी, ब्रिटिश आबादी 38 लाख से बढ़कर 83 लाख हो गई। ब्रिटेन में विदेशी गैर यूरोपीय नागरिकों की संख्या भी 20 लाख से 50 लाख हो गई। इसलिए भारी मात्रा में अप्रवासियों का आना भी ब्रिटेन के लिए यूरोपीय संघ से अलग होने का प्रमुख कारण रहा है।
इंग्लैण्ड शेन्झेन संधि का अंग नहीं है तथापि यूरोपीय संघ के 2005 के शरणार्थी प्रक्रिया व मौलिक अधिकारों की राज्याज्ञा के अधीन ब्रिटिश सरकार ईयू में रहते हुए इस्लामी देशों के घुसपैठिए-शरणार्थियों की घुसपैठ व ठहराव के विरुद्ध कार्रवाई और उनका निष्कासन भी नहीं कर सकता है। इस्लामी देशों से आने वाले शरणार्थी अप्रवासियों ने इंग्लैण्ड और समूचे यूरोप में महिलाओं के विरुद्ध अपराधों की एक लहर सी उभार दी है। यूरोप में सामूहिक रूप से घेर कर महिलाओं से दुर्व्यवहारों का 2012 से जो अनवरत क्रम बना, उसकी आंच इंग्लैण्ड में भी उठने लगी थी।
जर्मनी और स्वीडन में तो 2016 के नववर्ष पर इस्लामी देशों से आए अप्रवासियों ने महिलाओं पर आक्रमण किए थे। ब्रिटेन की यूनाइटेड किंग्डम इण्डिपेण्डेन्स पार्टी के अनुसार ब्रिटेन की पहचान, संप्रभुता, स्वायत्तता और संस्कृति को बनाए व बचाए रखने के लिए ईयू से अलग होना आवश्यक हो गया था। इसलिए ब्रिटेन के प्रधानमंत्री डेविड कैमरन ने अपने चुनाव अभियान में, ब्रिटिश मतदाताओं को अपने पक्ष में करने हेतु कह दिया था कि वे प्रधानमंत्री बनेंगे तो ब्रिटेन के यूरोपीय संघ में बने रहने पर जनमत संग्रह कराएंगे। इसलिए उन्हें यह जनमत संग्रह कराना पड़ा। इस जनमत संग्रह में ब्रिटेन के यूरोपीय संघ से बाहर निकलने के विरुद्ध वे स्वयं अभियान चलाते रहे। लेकिन वे सफल नहीं रहे और परिणामत: कैमरन को इसकी कीमत प्रधानमंत्री पद छोड़कर चुकानी पड़ी।
(लेखक पैसिफिक यूनिवर्सिटी, उदयपुर के कुलपति और वित्त विशेषज्ञ हैं।)
इतना आसान भी नहीं अलग होना
ब्रिटेन के ईयू से बहिर्गमन के लिये अब ईयू से औपचारिक आग्रह कर लेने के बाद भी, जब तक लिस्बन संधि के अनुच्छेद 50 के अधीन ईयू से बाहर निकलने वाली संधि पर हस्ताक्षर नहीं हो जाते और इस पर ब्रिटेन की सहमति के साथ ही बाहर निकलने की शतार्ें पर शेष 27 देशों की स्वीकृति नहीं हो जाती, तब तक सैद्धांतिक रूप से ब्रिटेन यूरोपीय संघ का पूर्ण सदस्य बना रहेगा। संघ से बाहर निकलने वाले सदस्य देश को अपने निर्णय से यूरोपीय परिषद को अवगत कराना होगा। संघ उस देश के साथ वार्ता और संधि को अंतिम रूप देगा, जिसमें उसके साथ भविष्य में संघ के संबंधों की रूपरेखा भी तय की जाएगी। दोनों पक्षों की सर्वानुमति से इस प्रक्रिया को दो साल से भी आगे बढ़ाया जा सकता है।
ब्रेक्जिट के कुछ प्रबल पक्षधर यह मांग भी कर रहे हैं कि ब्रिटेन को तुरंत ईयू से बाहर निकल जाना चाहिए और यूरोपीय संघ के बजट में योगदान व यूरोपीय संघ के देशों से होने वाले आब्रजन दोनों को ही तुरंत बंद कर देना चाहिए। लेकिन इससे ब्रिटेन व यूरोपीय संघ के बीच राजनीतिक एवं आर्थिक तनाव और बढ़ सकता है, साथ ही व्यापार में भी अचानक उपजने वाली बाधाओं से दोनों पक्षों की अर्थव्यवस्थाओं को भारी नुकसान हो सकता है। इतने वर्षों का साथ होने से अनेक चीजें एक साथ जुड़ी हुईं, जिनको एक झटके में खत्म नहीं किया जा सकता।
भारत के लिए चुनौती
ब्रिटेन और यूरोपीय संघ में भारी निवेश करने वाली भारतीय कंपनियों की ब्रेक्जिट से मुश्किलें बढ़ सकती हैं। टाटा मोटर्स जेग्वार व लेण्ड रोवर (जेएलआर), टाटा स्टील यूरोप, मदरसन सूमी और टीसीएस व इन्फोसिस जैसी सूचना प्रौद्योगिकी कंपनियों को यूरोपीय क्षेत्र में अपने निवेश के लिए मुद्रा के अवमूल्यन का नुकसान उठाना पड़ सकता है। ब्रिटेन के अलग होने पर यूरोप के शेष देशों में निर्यात व प्रवास के संबंध में सीमा शुल्क, प्रवेश वीसा जैसी समस्याओं का भी सामना करना पड़ेगा। वैसे यूरोपीय संघ से बाहर होने में ब्रिटेन को अभी भी दो साल लगेंगे। लेकिन कंपनियों को यूरोपीय संघ में अपने उत्पाद बेचने के लिए वैकल्पिक व्यवस्था अभी से विकसित करनी पड़ेगी, अन्यथा उन्हें अचानक व्यापार संबंधी इन सारी बाधाओं का सामना करना पड़ेगा। भारत के वस्त्रोद्योग व अन्य निर्यातकों पर भारी प्रभाव हो सकता है। यूरो व पाउंड के अवमूल्यन से रुपयों में उनकी निर्यात प्राप्तियां घटेंगी।
ल्ल इन दिनों ब्रिटेन में करीब 800 भारतीय कंपनियां कारोबार करती हैं। अब इन्हें यूरोपीय संघ के अन्य देशों में कारोबार करने के लिए नए नियमों से गुजरना होगा, जो आसान काम नहीं है।
ल्ल इससे हजारों कामगारों की छंटनी होगी और ये कामगार ज्यादातर भारतीय हैं।
ल्ल पौंड के कमजोर होने से डॉलर मजबूत हुआ और रुपया टूटा। रुपए के टूटने से भुगतान में भारी अंतर होगा जिसका असर निश्चित रूप से भारत पर पड़ेगा।
वित्तीय बाजारों में अस्थिरता
जनमत संग्रह के परिणाम आते ही दुनिया भर के निवेशकों को उस समय भारी झटका लगा, जब शेयरों की बिकवाली का चक्र शुरू हो गया और शेयर बाजारों में भारी गिरावट प्रारंभ हो गयी। जापान में तो निक्कई सूचकांक का कारोबार थोड़े समय के लिए रोकना पड़ा। इंग्लैण्ड की मुद्रा पाउंड का मूल्य 31 वर्ष के सबसे निचले स्तर पर आ गया, जबकि सोने जैसी सुरक्षित परिसंपत्तियों के मूल्य में 5 प्रतिशत की वृद्धि हुई। उस दिन भारतीय बाजार भी 2 फीसदी गिरकर बंद हुए और रुपए ने तो उस दिन प्रति डॉलर 68 रुपए का स्तर छू लिया। शेयर बाजार में भारतीय निवेशकों के भी पौने दो लाख करोड़ रुपए से अधिक डूब गए। आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार प्रमुख शेयर बाजार बीएसई में सूचीबद्ध कंपनियों का कुल बाजार पूंजीकरण 1,76,980़ 6 करोड़ रुपए से घट गया।
हालांकि कई देशों की सरकारों ने इससे बचने के लिए पहले से ही तैयारी कर रखी थी।
प्रश्न यह भी : भू सांस्कृतिक एकता के बिना राष्ट्र कैसे?
यूरोपीय संघ का स्वप्न तो संयुक्त राज्य अमेरिका की तरह एक राष्ट्र बनना था, लेकिन भू-सांस्कृतिक एकता के अभाव में राष्ट्र निर्माण संभव नहीं है। सोवियत संघ भी ऐसी ही भू-सांस्कृतिक एकात्मता के अभाव में, जो 14 राष्ट्रों का एक परिसंघ था, 14 राष्ट्रों में विभक्त होकर टूट गया। यूरोपीय संघ, जो 28 देशों का महासंघ बना, वहां भी अलगाव बढ़ रहा है। कई देश अलग होना चाहते हैं। नीदरलैण्ड पहले ही अलग है। दूसरी ओर भारत का उदाहरण लें तो भारत ने अपनी सांस्कृतिक एकतावश 1947 में 543 देशी रियासतों के विलीनीकरण से एक समेकित राज्य व्यवस्था का रूप लिया था, जो वेदकालीन युग से एकात्म भू-सांस्कृतिक राष्ट्र होने के कारण अनादिकाल से एक राष्ट्र के रूप में रहा है। चाहे अंग्रेजों और मुस्लिम लीग की कूटनीतिक चालों ने पूर्वी बंगाल को 1947 में पूर्वी पाकिस्तान बना दिया था, लेकिन बंगाली संस्कृति के बल पर वह 1971 में बांग्लादेश बना। आज वह इस्लाम पंथावलम्बी होने के अलावा सब दृष्टि से अर्थात् भाषा, भूूषा व भोजन आदि से प़ बंगाल के साथ समरूप है। हमारे देश में भी तथाकथित अलगाववादी छद्म सेकुलर बिरादरी के लोग यदा-कदा गंगा-जमुनी संस्कृति की कृत्रिम अलगाववादी बहस छेड़ने की दुष्चेष्टा करते हैं। लेकिन हमारी हिन्दुत्व की जो अनादिकालीन साझी सांस्कृतिक विरासत, जिसके कारण देश-विदेश में हमारी पहचान बनी, है वही राष्ट्रीय स्तर पर एकजुटता का अभेद्य आधार है। इसको कोई नकार नहीं सकता। इसको नकार कर हम एक रह भी नहीं सकते।
यूरोपीय संघ: कुछ दिलचस्प जानकारियां
ल्ल यूरोपीय संघ यूरोप में स्थित 28 देशों का राजनीतिक और आर्थिक संगठन है। इसका मुख्यालय ब्रसेल्स में है। इसमें आस्ट्रिया, बेल्जियम, बुल्गारिया, क्रोएशिया, साइप्रस, चेक गणराज्य, डेनमार्क, इस्टोनिया, फिनलैंड, फ्रांस, जर्मनी, ग्रीस, हंगरी, आयरलैंड, इटली, लातविया, लिथुआनिया, लक्जमबर्ग, माल्टा, नीदरलैंड, पोलैंड, पुर्तगाल, रोमानिया, स्लोवाकिया, स्लोवेनिया, स्पेन, स्वीडन और ब्रिटेन शामिल हैं।
ल्ल यूरोपीय संघ के विभिन्न देशों में लगभग 51 करोड़ लोग रहते हैं। इसका कुल क्षेत्रफल 43 लाख, 24 हजार, 782 किलोमीटर है। ब्रिटेन के अलग हो जाने से यूरोपीय संघ की कुल जनसंख्या में 6 करोड़, 47 लाख की कमी हो जाएगी और क्षेत्रफल भी 2़ 43 लाख किलोमीटर कम हो जाएगा।
यूरोपीय संघ में भी समय–समय पर सरकारें बदलती रहती हैं और अलग–अलग समय में भिन्न–भिन्न देश संघ का प्रतिनिधित्व करते हैं। यूरोपीय संघ में अलग से यूरोपीय परिषद्, यूरोपीय संसद, यूरोपीय आयोग, यूरोपीय संघ न्यायालय, यूरोपीय सेंट्रल बैंक और यूरोपीय लेखा परीक्षक हैं। जैसे हमारे देश में केंद्र सरकार और राज्य सरकारें हैं उसी प्रकार से यूरोपीय संघ है और उसके अन्दर आने वाले देश हैं।
ल्ल यूरोपीय संघ में रहने वाले लोग एक ही पासपोर्ट से संघ के अंतर्गत किसी भी देश में जा सकते हैं, वहां रोजी–रोटी कमा सकते हैं और बस भी सकते हैं।
यूरोपीय संघ का मौद्रिक संघ 1999 में स्थापित हुआ। 2002 में पूरी तरह से लागू हो गया। इस समय 19 देशों की मुद्रा यूरो है।
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