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बाल चौपाल / क्रांति-गाथा-10मेरे वे साथी

by
Jul 4, 2016, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 04 Jul 2016 13:22:05

पाञ्चजन्य ने सन् 1968 में क्रांतिकारियों पर केन्द्रित चार विशेषांकों की शंृखला प्रकाशित की थी। दिवंगत श्री वचनेश त्रिपाठी के संपादन में निकले इन अंकों में देशभर के क्रांतिकारियों की शौर्यगाथाएं थीं। पाञ्चजन्य पाठकों के लिए इन क्रांतिकारियों की शौर्यगाथाओं को नियमित रूप से प्रकाशित करेगा ताकि लोग इनके बारे में जान सकें। प्रस्तुत है 29 अप्रैल ,1968 के अंक में प्रकाशित क्रांतिकारी रहे श्री एन.के. निगम का आलेख:-

-एन.के. निगम-

मेरा क्रांतिदल से परिचय 1928 में हुआ था। उस समय मैं एम.ए. की तैयारी कर रहा था और अपने को राजनीतिक कार्य से पृथक कर देहली के कुदसिया घाट पर श्री रामस्वरूप घी वाले के घाट के एक कमरे में रहता था। समीप के ही लाला लछमनदास की कोठी में कई अन्य छात्र विद्याध्ययन कर रहे थे। उन छात्रों में एक काशीराम भी थे जो उस समय एफ.ए. में पढ़ते थे। काशीराम मेरे पास पढ़ने के लिए अधिक आने-जाने लगे। मुझे खद्दरधारी देख उन्हें यह तो विश्वास हो ही गया कि मुझे राजनीति से लगाव है। उसने शनै:-शनै: मुझसे कांग्रेस और क्रांतिकारियों के संबंध में बातचीत करना आरंभ कर दिया। परंतु उसने कभी यह नहीं प्रत्यक्ष होने दिया कि वह क्रांतिकारी दल का सदस्य था।
परिचय-प्रसंग
एक दिन दो व्यक्ति मेरे कमरे में काशीराम के साथ आये। कुछ बातें हुईं और वे चले गये। कुछ दिन पश्चात समाचारपत्र में पढ़ा कि सहारनपुर में तीन क्रांतिकारी पकड़े गये। काशीराम मेरे पास आये और कहा कि जो दो व्यक्ति मेरे कमरे में आये थे, वे दोनों क्रांतिकारी थे और दोनों ही पकड़े गये हैं। उनका नाम था, शिव वर्मा और डॉ. गयाप्रसाद। काशीराम ने यह भी कहा कि यदि पुलिस मुझसे उनके संबंध में कुछ पूछताछ करे तो मैं कह दूं कि मैं उनको नहीं जानता। इस प्रकार मेरा परिचय दल से हुआ।
कैलाशपति की बात
कुछ ही दिनों पश्चात काशीराम ने मुझे कैलाशपति, जिसका दल का नाम शीतल था और जो बाद में सरकारी गवाह बन गया था, से मिलाया। एक दिन चांदनी रात में कैलाशपति मेरे पास आया और कहा कि 'वह कुछ दिन के लिए बाहर जा रहा है।' उसका रंग काला था। मैंने परिहास में कहा- ''शीतल! आज तो चांदनी रात में तुम एवो- नाइट की भांति चमक रहे हो।'' उसको बहुत बुरा लगा। और स्यात् वह इस बात को भूला भी नहीं क्योंकि उसने देहली षड्यंत्र केस में मेरे विरुद्ध अनेक झूठ बोले थे।
जब भगतसिंह के लिए 4 पास लाये गये
यमुना के तट पर एक सज्जन प्राय: शाम को सैर करने आते थे। उनका मुझसे भी परिचय हो गया। उनका नाम था के.सी. राय और वह एपीआई समाचार एजेंसी के अध्यक्ष थे। जिस दिन भगतसिंह ने देहली की एसेम्बली में बम फेंका था, उससे दो दिन पहले काशीराम ने मुझसे एसेंबली के चार प्रवेशपत्रों का खास प्रबंध करने के लिए कहा। मैंने के.सी. राय से जो उस समय एसेंबली के सदस्य थे, चार पास लेकर काशीराम को दे दिये। दो दिन पश्चात लगभग एक बजे श्री राय मेरे पास यमुना तट पर घबराये हुए आये और पूछा कि मैंने उनके द्वारा मिले पास क्रांतिकारियों को तो नहीं दिये थे? मैंने अनजान बनकर उनसे कहा कि 'मैं तो किसी क्रांतिकारी को नहीं जानता।' तब उन्होंने एसेंबली में बम फेंकने की घटना का हाल सुनाया और कहा निगम, आज तो दो नवयुवकों ने बहुत वीरता दिखाई। उन्होंने जब बम एसेंबली हाल में फेंका तो सर जेम्स ब्रेरार मेज के नीचे छिप गया। दूसरे ऑफिसर इधर-उधर भाग गये, परंतु मोतीलाल (कांग्रेस के नेता) अपने स्थान पर बैठे-बैठे मुस्कराते रहे। मैं इन वीरों से बहुत प्रभावित हुआ हूं। उनके प्रभाव को देखना तो तब होता यदि मैं यह कह देता कि उनके दिये हुए प्रवेश पत्रों के द्वारा ही भगतसिंह और दत्त ने एसेंबली हाल में प्रवेश किया था।
पुलिस की खोज
मैं एमए की परीक्षा में उत्तीर्ण होकर हिन्दू कॉलेज में लेक्चरर नियुक्त हो गया और साथ ही कॉलेज के छात्रावास का संरक्षक भी। उस समय काशीराम कॉलेज में एम.ए. की द्वितीय श्रेणी में पढ़ते थे। एक दिन लगभग चार बजे शाम लाहौर से एक सीआईडी का सब इंस्पेक्टर प्रिंसिपल के कमरे में आया। उसने पिं्रसिपल से काशीराम को बुलाने के लिए कहा। उसके पास काशीराम की गिरफ्तारी का वारंट था। प्रिंसिपल ने मुझे काशीराम को बुलाने के लिए कहा। मैंने पूछ कर बताया कि वह तो कॉलेज से क्लास की समाप्ति पर घर चला गया। उस सब इंस्पेक्टर ने कॉलेज के हेड क्लर्क से काशीराम के रहने का स्थान पूछा और यमुना की ओर चल दिया। मैं अपनी साइकिल पर सीधा यमुना तट पर श्री लछमनदास के घाट पर गया, परंतु काशीराम वहां नहीं था। वह थोड़ी देर में लौटा। उसने बताया कि वह जब जंगल से शौचादि के पश्चात लौट रहा था तो उसे वही सब-इंस्पेक्टर मिल गया और काशीराम से ही पूछा- क्यों श्रीमान जी! आप बता सकते हैं, यहां काशीराम कहां रहते हैं? मुझे उनसे मिलना है।
काशीराम ने कहा- मैं ही काशीराम हूं, कहिये क्या काम है? सब-इंस्पेक्टर को कुछ विश्वास नहीं हुआ। तब तक काशीराम भी संभल गये। बोले आप कौन से काशीराम को पूछते हैं? वह जो हिन्दू कॉलेज में पढ़ता है। वह तो तीन बजे कॉलेज से आने के पश्चात शहर चला गया है और लगभग नौ बजे तक लौटेगा। यदि आपको कुछ कहना हो तो मुझे बता दीजिए। मैं उससे कह दूंगा। सब इंस्पेक्टर ने उत्तर दिया- मैं उनका संबंधी हूं। मुझे उनसे कुछ निजी काम है। मैं स्वयं रात को उनसे मिल लूंगा। वह तो चला गया और मैं काशीराम का बिस्तरा अपनी साइकिल पर रख उसको अपने छात्रावास में ले आया जहां दो दिन ठहरने के पश्चात वह अज्ञातवास में चला गया। इससे पहले भी एक बार मैं लगभग पुलिस के जाल में फंस गया था।
जेल का करिश्मा
23 दिसम्बर 1929 को मैं लाहौर कांग्रेस में गया था। उससे एक दिन पहले मेरे कमरे में आकर ठहरे थे। और 23 दिसम्बर की प्रात: वायसराय लॉर्ड इर्विन की ट्रेन पर यशपाल ने बम छोड़ा था। काशीराम भी लाहौर कांग्रेस में गया हुआ था। वह बार्स्टल जेल में जयदेव कपूर से भाई के नाते मिलता रहता था। एक दिन उसने मुझसे कहा कि मैं जेल ऑफिसरों को डॉक्टर गयाप्रसाद के भाई होने के नाते मुलाकात का प्रार्थनापत्र दूं। बात यह थी  कि काशीराम गयाप्रसाद से भी मिलना चाहता था। मैंने ऐसा ही किया। परंतु मैंने पहले ही काशीराम से कह दिया था कि वह जेल में गयाप्रसाद को सूचित कर दे कि मैं उससे मिलने के लिए प्रार्थनापत्र दे रहा हूं। उसने कहा कि उसने ऐसा कहला दिया है। पहली जनवरी की शाम को काशीराम और मैं जेल के द्वार पर गये। जेलर ने बाहर आकर कहा कि गयाप्रसाद मुझे नहीं जानता और न ही मिलना चाहता है। मैंने उससे कहा कि – उससे कह दें कि उसकी मौसी का लड़का जो लखनऊ में पढ़ता है, मिलने आया है। मैंने जेलर से साथ ही यह भी कह दिया कि मैं गयाप्रसाद से पिछले 15 वर्षों से नहीं मिला हूं, इसी कारण वह मुझे पहचान नहीं पा रहा है। जेलर फिर अन्दर गया और बाहर आकर बोला कि गयाप्रसाद कहता है कि उसकी तो कोई मौसी ही नहीं है। वह काशीराम को जयदेव कपूर से मिलाने ले गया। थोड़ी ही देर में मैंने देखा, सीआईडी का सुपरिंटेंडेंट खाानबहादुर अब्दुल अजीज वहां कार में आया। मेरा माथा ठनका। शायद जेलर ने उसको बुला लिया था। मैं टहलता-टहलता सड़क पर आया और सीधा अपने घर पहुंच गया।
वह विषम स्थिति
दूसरे दिन प्रात: अदालत में गया, जहां लाहौर का प्रथम षड्यंत्र अभियोग चल रहा था। वहां भी मैंने गयाप्रसाद के भाई होने के नाते अदालत की कार्यवाही को देखने के लिए प्रवेशपत्र ले लिया था। काशीराम और मैं दोनों साथ ही दर्शकों की बेंच पर बैठे। जब सभी अभियुक्त आ गये तो उनमें से दो तीन ने मुझे देखते ही भगतसिंह और अन्य अभियुक्तों का ध्यान मेरी ओर आकर्षित किया। सब मेरी ओर देखने लगे। जज भी हमारे कठघरे की ओर देखने लगे और पुलिस भी यह प्रयत्न करने लगी कि आखिर सभी अभियुक्तों की दृष्टि किस की ओर जमी हुई है? मैंने अपने को भयंकर स्थिति में पाया। मैं तत्काल ही काशीराम की ओर देखने लगा, जिससे सभी को यही अनुमान हो कि वे काशीराम की ओर ही देख रहे हैं।
मैं अवसर पाकर कोर्ट से बाहर आ गया। उसी समय एक सीआईडी का आदमी साइकिल लेकर मेरे पीछे-पीछे हो लिया। एक तांगा लाहौरी दरवाजे की ओर जा रहा था। उसमें तीन सवारियां बैठी हुई थीं। मैं भी उसमें बैठ गया। सीआईडी का आदमी साइकिल पर कुछ दूरी पर हमारे तांगे के पीछे चला। तांगा जब अनारकली पहुंचा तो साइकिल सवार अभी नीले गुंबद के मोड़ पर ही था। मैं शीघ्र तांगेवाले को पैसे दे तांगे से कूद एक होटल में चला गया और ओट में बैठ गया। साइकिल सवार तांगे का पीछा करता चला गया और मैं अपने स्थान पर लौट गया। दल में मैं दो सदस्यों से अधिक प्रभावित हुआ था। एक तो थे श्री चंद्रशेखर आजाद और दूसरे भगवतीचरण बोहरा। दोनों ही अद्भुत व्यक्ति थे। जहां आजाद का ध्यान और प्रयत्न दल के संगठन ऐक्शनों में तथा सदस्यों को बढ़ाने की ओर अधिक आकर्षित था, दूसरी ओर भगवती भाई अपनी मानसिक दिग्गजता से दल के प्रचार में संलग्न थे। परंतु वे दोनों सरलता से एक दूसरे के समीप नहीं आये थे। उसका भी कारण था।
भगवती भाई
भगवती भाई लाहौर में नौजवान सभा का प्रचार खुल्लम-खुल्ला करते थे, परंतु साथ ही नौजवान सभा के अग्रसर सदस्यों को क्रांति का पाठ भी पढ़ाते थे। उनका प्रभाव बढ़ता हुआ देख एक अन्य व्यक्ति जो अपने को लाहौर में क्रांतिकारियों का नेता बताते फिरते थे, उनके बढ़ते हुए प्रभाव से डरे कि उनकी नेतागिरी उनके हाथों से जा रही है। उन्होंने अपने मिलने वाले से कहना आरंभ कर दिया कि भगवतीचरण तो सीआईडी के आदमी हैं। यह सूचना आजाद के कानों में भी पहुंची और आरंभ में भगवती भाई के अनेक प्रयत्नों के बाद भी वह भगवती भाई से नहीं मिले। परंतु कुछ समय पश्चात आजाद को असलियत का पता चल गया और फिर तो दोनों एक दूसरे के अत्यंत समीप आ गये। उनका साथ 1 मई 1930 को छूटा जब लाहौर में भगवती भाई एक बम की परीक्षा लेते हुए रावी के किनारे बम के फट जाने से जख्मी हो गये और कुछ ही घंटों में चल बसे। यदि उस समय उनकी मृत्यु न होती तो दूसरे ही दिन वह और आजाद कुछ अन्य साथियों के साथ भगतसिंह और दत्त को जेल से छुड़ाने का प्रयत्न करने वाले थे। मरने से पहले भगवती भाई ने वैशम्पायन से कहा था कि वह आजाद से कह दे कि उनकी मृत्यु के पश्चात भी आजाद भगतसिंह को छुड़ाने का प्रयत्न स्थगित न करें।
बटुकेश्वर दत्त की बात
यहां दत्त का वर्णन आया है तो दो शब्द उनके संबंध में लिखना भी आवश्यक है। दत्त कानपुर के रहने वाले थे। अभी स्कूल में ही पढ़ते थे कि घर से बाहर जंगलों में घूमने लगे। बिना वस्त्र पहने सर्दी में भी घर के बाहर वृक्ष के नीचे बैठकर किन्हीं विचारों में लीन हो जाते। माता क्रोध करतीं और  पिता कभी-कभी मारते भी थे परंतु उसका भी बटुकेश्वर दत्त पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
भगतसिंह देर से पहुंचे
जब कानुपर में 1925 में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ तो उन्होंने स्वयंसेवक बनकर संलग्नता से काम किया। इन्हीं दिनों वह कुछ क्रांतिकारियों के संपर्क में आ गये और पहली जैसी संलग्नता से उसमें भी काम करने लगे। वह घर छोड़ आगरे भी दल के स्थान पर गये। उसी समय आजाद जोगेश चटर्जी को आगरे से लखनऊ जेल में जाते हुए छुड़ाने की योजना बना रहे थे। इस योजना में दत्त का काम था यह देखना कि किस समय जोगेश दादा को आगरा जेल से स्टेशन पर ले जाते हैं। जोगेश दा जेल से स्टेशन ले जाये गये और दत्त ने आजाद को सूचना भी दे दी। परंतु किसी कारणवश छुड़ाने का ऐक्शन नहीं हो सका। उसी समय आजाद ने दत्त को यह कहकर भेजा कि आजाद जोगेश दा को कानपुर स्टेशन पर छुड़ाने का
प्रयत्न करेंगे। दत्त का यह काम था कि वह गंगा पार एक साइकिल लेकर गाड़ी के आने की प्रतीक्षा करें। दत्त कानपुर स्टेशन होते हुए गंगापार चले गये। उन्होंने जोगेश दा को कानपुर स्टेशन के पुलिस लाकअप पर देखा। गाड़ी आई और चली गई परंतु कोई ऐक्शन नहीं हुआ।
  दत्त भी अपने स्थान पर चले गये। बाद में मालूम हुआ कि भगतसिंह के स्टेशन पर देर में पहुंचने से वह ऐक्शन नहीं किया जा सका। भगतसिंह की इस देरी पर आजाद को बहुत क्रोध आया।

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