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एमटीसीआर में अंतत: भारत को स्थान मिल ही गया जबकि 2004 से इससे जुड़ने को बेचैन चीन को एक बार फिर हाशिए पर रहना पड़ा। मिसाइल प्रौद्योगिकी के हस्तांतरण का नियंत्रण रखने वाली इस संस्था में सम्मिलित होकर भारत अब अमेरिका और रूस से उन्नत मिसाइल प्रौद्योगिकी हासिल कर सकता
सुधेन्दु ओझा
परमाणु आपूर्ति वार्ता समूह (एनएसजी) में भारत के प्रवेश का मुद्दा इधर पिछले एक महीने से न केवल भारत बल्कि विदेशी समाचारपत्रों में भी प्रमुखता से छाया था। भारत ने एनएसजी और व्यापक विनाश के हथियारों को जाने में सक्षम प्रक्षेपास्त्रों की प्रौद्योगिकी के हस्तांतरण को नियंत्रित करने वाली प्रक्षेपास्त्र प्रौद्योगिकी नियंत्रण व्यवस्था (एमटीसीआर) दोनों ही समूहों की सदस्यता के लिए गत वर्ष आवेदन दिया था। हालांकि पाकिस्तान, मुशर्रफ और जरदारी दोनों के ही समय से गाहे-बगाहे अमेरिका से ड्रोन टेक्नोलॉजी की मांग करता रहा था किन्तु उसने कभी औपचारिक रूप से एमटीसीआर की सदस्यता के लिए आवेदन नहीं किया था। हां, यह बात अलग है कि चीन एमटीसीआर के दरवाजे पर 2004 से दस्तक दे रहा है किन्तु परमाणु-अप्रसार में उसकी षड्यंत्रकारी हरकतों के चलते प्रतिवर्ष उसकी अर्जी को सदस्य देशों द्वारा नजरअंदाज कर दिया जाता है। पाकिस्तान के एनएसजी में भारत के प्रयास को असफल करने और उसके आवेदन पर विचार किए जाने के मामलों को ऐसा लगता था कि कूटनीतिक स्तर पर कम और मीडिया के माध्यम से ज्यादा उछाला जा रहा था। किन्तु उसने एमटीसीआर के मुद्दे पर खामोशी ओढ़ रखी थी। कारण स्पष्ट था, एनएसजी मंच पर उसे तुर्की और चीन जैसे सदस्य देशों पर भरोसा था कि वे उसकी भारत विरोधी भूमिका में सहयोगी बन सकते हैं। जबकि एमटीसीआर समूह में पाकिस्तान का साथ देने वाला कोई भी देश नहीं था।
पाकिस्तानी सीनेट के सामने बोलते हुए प्रधानमंत्री के विदेशी मामलों के सलाहकार सरताज अजीज ने स्पष्ट कहा कि पाकिस्तान इस बारे में आश्वस्त है कि भारत के एनएसजी में सदस्यता मिलने के रास्ते को रोक दिया गया है। सियोल में 23-24 जून, 2016 को हुई बैठक से पहले पाकिस्तान ने अपने कूटनीतिक हमले युद्धस्तर पर तीखे कर दिए थे। इस्लामाबाद के दूत एनएसजी के सदस्य देशों के दरवाजे पर व्यक्तिगत दस्तक दे रहे थे। उनका जोर पाकिस्तान के आवेदन को स्वीकार किए जाने पर कम बल्कि इस बात पर ज्यादा था कि भारत के सदस्यता संबंधी आवेदन को स्वीकार ना किया जाए। बैठक के ठीक एक दिन पहले इस्लामाबाद ने इन देशों के राजनयिकों को बुलाकर भारत के विरोध की वकालत भी की। पाकिस्तानी सीनेट में बोलते हुए सरताज अजीज ने कहा कि पाकिस्तान के तुर्की और चीन से घनिष्ठ संबंध हैं, इन दोनों ही देशों ने एनएसजी बैठक में पाकिस्तान के विचार को समर्थन देने का फैसला किया है। उन्होंने इसी अवसर पर अमेरिका में पाकिस्तान के पूर्व राजदूत हक्कानी पर भी हमला बोलते हुए कहा कि अमेरिका में पाकिस्तान का एक पूर्व राजनयिक उसके सामरिक रास्ते में तरह-तरह की अड़चनें खड़ी कर रहा है।
पाकिस्तानी समाचारपत्रों में तो इस मुद्दे को लेकर जूतम-पैजार तक की नौबत आ गई थी। बहुत सारे पाठकों जो इस विषय से संबंधित समाचारों को टी-20 के स्कोर की भांति टक-टकी लगाकर देख रहे थे, को इस लेख के शीर्षक से आश्चर्य अवश्य ही होगा। किन्तु यह शीर्षक यथार्थ है। आइए, देखते हैं कि इस घटनाक्रम में कब और कैसे रोचक मोड़ आए और कैसे ये घटनाक्रम आने वाले समय में एनएसजी के लिए भारत का मार्ग प्रशस्त करेंगे। मिसाइल टेक्नोलॉजी कंट्रोल रेजिम (एमटीसीआर) पांच सौ किलोग्राम वजन तक के व्यापक विनाश के हथियारों को तीन सौ किलोमीटर तक मानव रहित यानों (ड्रोन) के माध्यम से प्रक्षेपास्त्रों की प्रौद्योगिकी के हस्तांतरण को नियंत्रित करने वाली व्यवस्था है। जी-7 समूह के सदस्य राष्ट्रों कनाडा, फ्रांस, इटली, जर्मनी, जापान, ब्रिटेन और अमेरिका द्वारा इस व्यवस्था का गठन अप्रैल 1987 में किया गया था।
29 जून से 2 जुलाई 1992 में ओस्लो में संचालित एक बैठक में इसके नियंत्रण में सभी प्रकार के मानव रहित विमानों, जिनसे जन-विध्वंसक शस्त्रों को छोड़ा जा सकता है, को शामिल किया गया। इसको दो अलग-अलग वगार्ें, उपकरण और सॉफ्टवेयर में बांटा गया।
अभी 27 जून को इस समूह ने भारत को पैंतीसवां सदस्य देश स्वीकार करने की घोषणा की है। भारत के लिए यह एक बड़ी उपलब्धि है। इसके साथ ही भारत अद्यतन मिसाइल टेक्नोलॉजी को सरलतापूर्वक रूस और अमेरिका जैसे देशों से हासिल कर सकेगा।
यहां इस बात का उल्लेख आवश्यक है कि चीन ने लगभग बारह वर्ष पूर्व इस समूह की सदस्यता के लिए आवेदन किया था किन्तु उसे इस समूह में आज तक शामिल नहीं किया गया है। चीन पर आरोप है कि उत्तरी कोरिया और पाकिस्तान को उसने ही बालिस्टिक मिसाइल प्रणाली उपलब्ध कराई है। इसके साथ ही उसने अवैध रूप से डीएफ-3ए मध्यम दूरी तक मार करने वाली बालिस्टिक मिसाइल प्रणाली की जानकारी सऊदी अरब और ईरान को बेची है।
भारत की सदस्यता और अमेरिका
भारत के साथ परमाणु संधि के बाद 2010 में अपनी भारत यात्रा के दौरान अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने खुद ही पहल करते हुए कहा था कि अमेरिका, भारत के एनएसजी और 'मिसाइल टेक्नोलॉजीकंट्रोल रिजीम' में चरणबद्ध तरीके से प्रवेश का हिमायती रहा है। अमेरिका का संकेत समझते हुए उसी वर्ष भारत की यात्रा पर आए फ्रांस के तत्कालीन राष्ट्रपति सकार्ेजी ने भी एनएसजी में भारतीय प्रवेश को आवश्यक बताया। ब्रिटेन शुरू से ही एनएसजी में भारत के प्रवेश का समर्थक रहा है। इसी समर्थक माहौल के मध्य गत वर्ष भारत ने इस समूह की सदस्यता के लिए आवेदन प्रस्तुत किया।
2015 में गणतंत्र दिवस के उपलक्ष्य में अपनी भारत यात्रा के दौरान अमेरिकी राष्ट्रपति ने घोषणा की थी कि भारत अब एनएसजी की सदस्यता लेने लायक हो गया है। चीन की नीतियों से परेशान जापान ने भी एनएसजी में भारत का स्वागत किया। लेकिन इस समूह में भारत की मौजूदगी चीन के लिए समस्या का कारण थी। अमेरिका जिस तरह से पाकिस्तान को छोड़कर भारत को इन अंतरराष्ट्रीय समूहों में प्रवेश दिलाने को उत्सुक था उससे उसकी नींद उड़ी हुई थी। उसे स्पष्ट दिखाई पड़ रहा था कि अमेरिका भारत को एक विश्व शक्ति बनाने का भरसक प्रयास कर रहा है। एनएसजी में भी वह अपने ही बनाए नियम को ताक पर रख कर भारत को सदस्य बनाए जाने की जिद पर अड़ा हुआ था। दरअसल, चीन निकट भविष्य में भारत, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, जापान और हिन्द-चीन के कई राष्ट्रों को अपने हित के विरुद्ध खड़ा होता देख रहा था जो कि शीघ्र ही दक्षिण चीन सागर में उसे घेरने की तैयारी में हैं। यही कारण है कि चीन भारत को लेकर
किए गए हर अमेरिकी निर्णय को संशय से
देख रहा है।
पिछले कुछ समय से पाकिस्तान भी अमेरिका से भारतीय तर्ज पर एनएसजी की सदस्यता दिए जाने की गुहार लगा रहा था। किन्तु अमेरिका ने स्पष्ट किया कि यदि पाकिस्तान इस समूह की सदस्यता चाहता है तो उसे अमरीका से अपना समर्थन कराने की बजाय समूह की शतार्ें के अनुरूप आवेदन करना चाहिए।
मुशर्रफ के समय में परमाणु वैज्ञानिक कादिर खान को लेकर पाकिस्तान की जितनी फजीहत हुई थी और अंतरराष्ट्रीय परमाणु अप्रसार एजेंसियों ने जिस तरह से पाकिस्तान के अवैध परमाणु कार्यक्रम को उत्तरी कोरिया, लीबिया और ईरान में धर दबोचा था, उसके मद्देनजर कोई नहीं सोच सकता था कि वह इस समूह की सदस्यता के लिए आवेदन करने की हिमाकत करेगा। चूंकि चीन किसी भी हालत में भारत को इस समूह में दाखिल नहीं होने देना चाहता था अत: उसके और तुर्की के उकसाने पर पाकिस्तान ने भी 19 मई, 2016 को एनएसजी की सदस्यता के लिए अपना औपचारिक आवेदन प्रस्तुत किया।
अंतरराष्ट्रीय मंच और मोदी सिद्धान्त
विश्व के सबसे बड़े प्रजातंत्र, भारत में सत्ता में आते ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस प्रकार राष्ट्र हित में मुखर भारतीय विदेश और कूटनीति का अत्यंत सुगमता से संचालन किया है, वह अवश्य ही इस क्षेत्र के जानकारों की दृष्टि में भारत की बढ़ती अंतरराष्ट्रीय साख की का बायस है। बढ़ती आवश्यकताओं ने भारत को परमाणु ऊर्जा विकल्प की तरफ प्रेरित किया है। एनएसजी की सदस्यता से उसे इस क्षेत्र में उपलब्ध तकनीक रियायती मूल्य में हासिल हो सकती है। इन सब से इतर, स्वयं संचालक देश का इस सदस्यता को ग्रहण करने का आह्वान भारत के लिए श्रेष्ठ अवसर के रूप में सामने आया। सामरिक रूप से उपस्थित ऐसे अवसर बार-बार नहीं आते। एक मायने में माना जा सकता है कि एनएसजी की सदस्यता का आवेदन भले ही भारत के द्वारा किया गया हो, पर कहीं न कहीं इसमें अमेरिका की बड़ी भूमिका थी। अभी हाल के ही अपने दौरे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस प्रकार के अभूतपूर्व अमेरिका-भारत सहयोग की संभावना प्रकट की है वह भारत के विकास के लिए एक कालजयी निर्णय साबित होने वाला है। मेक इन इंडिया के तहत अमेरिकी प्रतिरक्षा कंपनियों द्वारा भारत में निर्माण व्यवस्था स्थापित करना, विमान-वाहक युद्धपोतों का निर्माण, परमाणु हथियार सज्जित पनडुब्बियां और इन सबसे अधिक महत्वपूर्ण स्वच्छ ऊर्जा के लिए परमाणु ऊर्जा संयंत्रों की भारत में स्थापना साझे अमेरिकी-भारत सपने की नींव है। वैसेे यह रातों-रात पूरा नहीं होगा। इसमें कुछ समय लग सकता है, पर इसे अब टाला नहीं जा सकता।
भारत जुड़ सकता है एनएसजी से
प्राप्त सूचनाओं के अनुसार 48 देशों के संगठन एनएसजी की सियोल में संपन्न बैठक भारत की नजर से भले ही बेनतीजा खत्म हो गई हो, लेकिन उसकी उम्मीदें अभी खत्म नहीं हुई हैं। पता चला है, कि चीन के विरोध के बावजूद इस साल के आखिर में सियोल में एनएसजी का विशेष सत्र होगा। जिसमें भारत समेत उन सभी देशों की दावेदारी पर चर्चा होगी, जिन्होंने परमाणु अप्रसार संधि यानी एनपीटी पर दस्तखत नहीं किए हैं।
सूत्रों के मुताबिक साल के आखिर तक अमेरिका भारत की दावेदारी पर पुन: जोर देगा। सूत्रों का कहना है कि दूसरी बैठक का अनुरोध मेक्सिको की तरफ से आया है। भारत की दावेदारी पर सदस्य देशों के बीच अनौपचारिक चर्चा के लिए अजेंर्टीना के राजनयिक राफेल ग्रौसी को नियुक्त किया गया है। एक वरिष्ठ अधिकारी का कहना है, ''हमें विश्वास है कि साल के अंत तक हमारे पास आगे बढ़ने के लिए रास्ता है। कुछ काम रह गया है।
लेकिन हमें भरोसा है कि साल के अंत तक भारत एनएसजी की सदस्यता हासिल कर लेगा।''
एनएसजी की पात्रता
एनएसजी समूह में पहुंचने का रास्ता एनपीटी (न्यूक्लियर नॉन-प्रोलिफरेशन ट्रीटी) से होकर जाता है। अर्थात्, जिस भी देश को एनएसजी की सदस्यता हासिल करनी है, उसे अनिवार्यत: एनपीटी पर हस्ताक्षर करने हांेगे।
क्या है एनएसजी
यहां यह उल्लेख आवश्यक है कि एनपीटी की नाकामयाबी की षड्यंत्र कथा चीन भी अलग तरीके से लिख रहा था। वह अमेरिका के दो धुर विरोधी देशों उत्तरी कोरिया और पाकिस्तान को गुप-चुप परमाणु अस्त्रों के विषय में जानकारी और सहायता मुहैया करवा रहा था। चीनी परमाणु अस्त्रों के हिस्से उचित मूल्य पर ईरान, लीबिया तक पहुंचने का प्रयास कर रहे थे। भारत के द्वारा 1974 में किए गए परमाणु विस्फोट की प्रतिक्रियास्वरूप नवंबर 1975 की एक बैठक के दौरान सात देशों द्वारा इस समूह का गठन किया गया। ये देश थे- कनाडा, पश्चिम जर्मनी, फ्रांस, जापान, सोवियत संघ, ब्रिटेन और संयुक्त राज्य अमेरिका। इस समूह ने तय किया कि परमाणु विज्ञान संबंधी उपकरणों, वस्तुओं, डिजाइन इत्यादि को किसी ऐसे देश को हस्तांरित ना होने दिया जाए जो एनपीटी की सदस्यता प्राप्त नहीं हैं। चीन को इस समूह की सदस्यता 2004 में मिली। अभी 48 देश इसके सदस्य हैं।
बदलता विश्व परिदृश्य
एनपीटी और एनएसजी का गठन '70 के दशक में हुआ था, उस समय से विश्व पटल पर कई क्रांतिकारी परिवर्तन हुए है, नए घटनाक्रमों के चलते राष्ट्रों के मित्रों और शत्रुओं में बदलाव हुआ, ये दोनों संगठन इन परिवर्तनों से अछूते कैसे रह सकते थे।
शीत युद्ध की समाप्ति के बाद रूस से अलग हुए कई देशों को इस समूह में प्रवेश देना पड़ा क्योंकि उसके परमाणु कार्यक्रम इन्हीं नव स्वतंत्र राष्ट्रों में स्थित केन्द्रों से संचालित होते थे। अशांत मध्य एशिया और ईरान की मिसाइलों का लक्ष्य इस्रायल होने से स्थिति में बदलाव हुआ था। ईरान की अपेक्षा अरब सेनाओं का घोषित लक्ष्य इस्रायल को विश्व के नक्शे से मिटा देना है। इस्रायल भी अघोषित रूप से परमाणु सम्पन्न बनने के लिए मजबूर हुआ। हिंसक चीनी विस्तारवाद, तथा पाकिस्तान की दोगली नीतियों ने अमेरिका को अपनी विदेश नीति पर पुनर्विचार करने को विवश किया।
भारत का प्रवेश
शीत युद्ध की स्थिति में विश्व अमेरिका और सोवियत संघ, दो ध्रुवीय राष्ट्रों की अगुआई में रहा। सोवियत संघ के छिन्न-भिन्न हो जाने के बाद अमेरिका ही एकमात्र विश्व शक्ति रह गया। उसके इस वर्चस्व को चुनौती देने के लिए कभी चीन तो कभी रूस-भारत-चीन के संयुक्त संगठन का नाम उछाला गया।
अमेरिका मध्य एशिया और अफगानिस्तान में स्वयं को बुरी तरह से घिरा हुआ महसूस कर रहा था। उसका महत्वपूर्ण गुमाश्ता पाकिस्तान ही अपनी फरेबी नीतियों से उसे अफगानिस्तानी संकट से उबरने नहीं दे रहा था। उससे तमाम तरह की मदद लेने के बावजूद वह विस्तारवादी चीन के साथ था, जो प्रशांत महासागर को हिंसक बनाने पर उतारू था।
एनपीटी और भारत
1968 में एक दस्तावेज जारी कर समस्त देशों से अनुरोध किया गया था कि वे एनपीटी की सदस्यता ग्रहण कर लें। संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थायी सदस्यता प्राप्त एनपीटी के प्रमुख पांच प्रस्तावक देश थे-अमेरिका, रूस, ब्रिटेन, फ्रांस और चीन। इस संधि के अंतर्गत केवल इन्हीं राष्ट्रों को परमाणु आयुध वाले राष्ट्र की मान्यता प्राप्त है। इस अंतरराष्ट्रीय संधि में वर्तमान में 191 सदस्य राष्ट्र हैं। उत्तरी कोरिया ने वर्ष 1985 में एनपीटी पर हस्ताक्षर किए थे किन्तु 2003 में वह इस संधि से बाहर आ गया था। '70 के दशक में भारत गुट-निरपेक्ष राष्ट्रों के समूह का नेतृत्व कर रहा था। वह आरंभ से ही एनपीटी के सिद्धान्त का विरोधी रहा। भारत का मानना था-(1) परमाणु विज्ञान में महारत हासिल करने के बाद ये राष्ट्र किसी अन्य राष्ट्र के पास इस ज्ञान को नहीं जाने देना चाहते, यह बात भेदभावपूर्ण है। (2) परमाणु विज्ञान में दक्षता हासिल करने के बाद विश्व में परमाणु अस्त्रों के प्रसार में इन्हीं पांच प्रस्तावक देशों की भूमिका रही है। इन्हीं राष्ट्रों ने इस विज्ञान का उपयोग अस्त्रों के निर्माण के लिए किया अत: किसी अन्य देश की परमाणु विज्ञान दक्षता पर इनके द्वारा लगाए जाने वाला प्रतिबंध अनुचित है। अद्यतन जानकारियों के अनुसार इन्हीं राष्ट्रों के पास लगभग 22,000 परमाणु अस्त्र मौजूद हैं। (3) यदि कोई एनपीटी सदस्य राष्ट्र शांतिपूर्ण उपयोग के लिए परमाणु दक्षता हासिल करना चाहता है तो उसे ये सब प्रस्तावक देशों की निगरानी में करना पड़ेगा। भारत इसे अपनी संप्रभुता पर एक चोट मानता था। भारत ने तमाम अंतरराष्ट्रीय दबावों, प्रतिबंधों को दरकिनार कर परमाणु विज्ञान की दिशा में अपना अनुसंधान जारी रखते हुए 1974 में 'स्माइलिंग बुद्ध' ऑपरेशन के तहत राजस्थान के पोकरण में परमाणु विस्फोट कर एनपीटी प्रस्तावक पांचों राष्ट्रों को अचंभित कर दिया।
1971 के युद्ध में भारत के हाथों बुरी तरह से पराजित होने के बाद पाकिस्तान ने गुप-चुप तरीके से परमाणु क्षेत्र में प्रवेश किया और चीन की शह पर उत्तरी कोरिया की सहायता से इस दिशा में आगे बढ़ा। पाकिस्तान ने भी एनपीटी पर हस्ताक्षर नहीं किए, उसका कहना था कि जब तक भारत एनपीटी पर हस्ताक्षर नहीं करेगा वह भी इस संधि से दूर रहेगा। इन देशों ने भारत को परमाणु शक्ति सम्पन्न राष्ट्र का दर्जा नहीं दिया, क्योंकि ऐसा करने से उन्हें भारत को संयुक्त राष्ट्र संघ की सदस्यता और 'वीटो' का अधिकार भी देना पड़ता। एनपीटी वस्तुत: बिना दांत का हाथी सिद्ध हो रहा था। ऐसे में एनपीटी प्रस्तावक देशों ने पूरे परमाणु विज्ञान संबंधी व्यापार को ही अपने कब्जे में लेने का अनोखा प्रयास करते हुए न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप (एनएसजी) का गठन किया।
एमटीसीआर व्यवस्था
भारत को लाभ
सदस्यता हासिल करने के बाद भारत को सदस्य देशों से अत्याधुनिक प्रक्षेपास्त्र प्रौद्योगिकी हासिल करने तथा रूस के साथ संयुक्त रूप से विकसित ब्रह्मोस मिसाइल को निर्यात करने की छूट मिल गयी है। इस व्यवस्था में सदस्य देशों को 300 किलोमीटर से अधिक रेंज के प्रक्षेपास्त्रों के निर्यात की अनुमति नहीं है। भारत में विकसित ब्रह्मोस प्रक्षेपास्त्र की रेंज 290 किलोमीटर है इसलिये भारत अब इस प्रक्षेपास्त्र को निर्यात करने में समर्थ होगा। अफगानिस्तान में तालिबान पर घातक मार करनेवाले प्रीडेटर ड्रोन भी अब भारत को मिल सकेंगे।ा
2004 से कतार में है चीन
चीन द्वारा 2004 से एमटीसीआर की सदस्य पाने की कोशिश की जा रहीं है, लेकिन मिसाइल कार्यक्रम में उसके खराब रिकॉर्ड के कारण उसे अभी तक इस समूह में प्रवेश नहीं मिल पाया है। चीन पर आरोप लगता रहा है कि उसके सहयोग से ही उत्तर कोरिया का मिसाइल कार्यक्रम चल रहा है, पर वह इससे इनकार करता रहा है। इस समूह में सदस्यता के चीन के आवेदन को पहले खारिज किया जा चुका है।
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