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पाञ्चजन्य ने सन् 1968 में क्रांतिकारियों पर केन्द्रित चार विशेषांकों की शंृखला प्रकाशित की थी। दिवंगत श्री वचनेश त्रिपाठी के संपादन में निकले इन अंकों में देशभर के क्रांतिकारियों की शौर्यगाथाएं थीं। पाञ्चजन्य पाठकों के लिए इन क्रांतिकारियों की शौर्यगाथाओं को नियमित रूप से प्रकाशित करेगा ताकि लोग इनके बारे में जान सकें। प्रस्तुत है 29 अप्रैल ,1968 के अंक में प्रकाशित पेशावर कांड के सेनानी रहे श्री चन्द्रसिंह गढ़वाली का आलेख:-
-चन्द्रसिंह गढ़वाली-
अपनी झोंपड़ी की बगल में धूप सेंकता हुआ पाजामे पर पेबन्द (थेगला) लगा रहा था। डाकिये ने आकर पाञ्चजन्य का क्रांति-संस्मरण अंक प्रथम खंड मेरे हाथ में थमा दिया। पृष्ठ दर पृष्ठ पलटता गया। भारत की आजादी के रणबांकुरों के चित्र और संस्मरणों को पढ़ने और देखने से मुझे यह लगा कि कांग्रेस का यह कहना कि हमने स्वराज्य लिया, गलत व झूठ है।
कांग्रेस का कलुषित सौदा
सन् 1857 से 1947 तक 90 वर्षों के संघर्ष के बाद भारत को स्वतंत्रता मिली परंतु देश का विभाजन होकर! और वह भी वायसरायों के साथ भेंट करने, गोलमेज कांफ्रेंसों में जाने एवं सत्य अहिंसा से प्राप्त नहीं हुई। अपितु भारत के बाहरी और भीतरी क्रांतिकारियों और अंतरराष्ट्रीय स्थिति ने ब्रिटिश सरकार को बाध्य किया कि वह उच्च न्यायालय के जज सर मॉरिस गायड के द्वारा घोषित कराये कि वह भारत से अपनी सत्ता समाप्त करे तथा वहां के राष्ट्रीय नेताओं को जेलों से रिहा करके भारत की स्वतंत्रता स्वीकार करे। ब्रिटिश सरकार ने भारत के नेताओं के साथ एक गुप्त समझौता किया और तब भारत का जो 18 अरब पौंड पावना ब्रिटेन में था, वह ब्रिटिश के फौजी और सिविलियनों की पेंशन डिपोजिट ट्रस्ट में दे दिया गया।
भारत को मित्रराष्ट्र कुनबे के अंदर रहना स्वीकार कराया गया। आजाद हिन्द फौज को 30 वर्षों तक के लिए गैरकानूनी करार दिया गया। भारत के ब्रिटिश नागरिकों की चल-अचल संपत्ति का मुआवजा चुकाया गया। ब्रिटिश बैंकों, कारटेलों और कारपोरेशनों की सुरक्षा की जिम्मेवारी कांग्रेसी नेताओं ने अपने ऊपर ले ली।
सर्वश्री एम.एन. राय, रासबिहारी बोस, राजा महेन्द्र प्रताप, गुलाम रसूल, पृथ्वीसिंह आजाद, गदर पार्टी जो जापान से कामागाटामारू जहाज में हथियारों को लेकर भारत आये थे और पंजाब लाहौर, दिल्ली आदि में फौजी क्रांति भी कराई थी जो असफल रही थी, सफलता को कांग्रेसी भाई स्वीकार क्यों नहीं करते। 92 फौजी हबलदारों को, डकसाई कोर्टमार्शल के द्वारा गोली से उड़ाया गया। बिहार के 15 हजार पुलिस जवानों द्वारा क्रांति-आह्वान चौरी-चौरा काण्ड, लाहौर काण्ड, दिल्ली की असेम्बली में बम फेंकना, श्री यशपाल द्वारा वायसराय की ट्रेन को उड़ाया जाना, चटगांव, मद्रास, उटकमण्ड, सहारनपुर, मेरठ, बनारस, पेशावर आदि के काण्डों में क्या कांग्रेस की सहमति थी? सन् 1942 के 'तोड़फोड़ आंदोलन' के बारे में तत्कालीन वायसराय ने पूना के कांग्रेसी राजनीतिक शिविर से पूछा था कि (हू इज रेस्पोन्सिबिल) इसके लिए कौन जिम्मेवार है? उनके पत्र का जवाब कांग्रेस की तरफ से दिया गया था कि जनता पागल हो गई है। देशव्यापी क्रांतिकारी आंदोलन को पागलों का आंदोलन बताने की धृष्टता की गई।
भारत के क्रांतिकारी आंदोलन को भावी इतिहास लेखक चार स्तंभों में अंकित करेंगे-1. अमर शहीद यतीन्द्रनाथ दास 2. अमर शहीद सरदार भगतसिंह और आजाद 3. पेशावर काण्ड (चन्द्रसिंह गढ़वाली) 4. नेताजी सुभाषचंद्र बोस (आजाद हिन्द फौज)।
जब डबलरोटी-मक्खन खाने का समय आया
स्वर्गीय यतीन्द्रनाथ दास ने 64 दिनों की भूख हड़ताल करके अपने जीवन की बलि चढ़ा दी, जिनकी मांग थी कि भारतीय राजनैतिक बंदियों को सम्मान के साथ उच्च श्रेणियों में रखा जाए। यतीन्द्रनाथ के शहीद होने के बाद ब्रिटिश पार्लियामेंट में तहलका मच गया था कि भारत का नौजवान इज्जत और आजादी के लिए बलिदान हुआ। शर्म-शर्म के नारों से पार्लियामेंट गूंज उठी थी। इसी के बाद भारतीय नेताओं को ए.और बी. श्रेणियों में रखा जाने लगा। कांग्रेसी नेता निर्भीकता के साथ जेलों में जाने लगे, क्योंकि उनके लिए जेल में पलंग, मच्छरदानी, डबलरोटी-मक्खन, कैदी नौकरों की कतार और चाय की प्यालियां तैयार रहती थीं। लेकिन इसके पीछे 57 लाख जन-सत्याग्रहियों की 18 सेर गेहूं पीसने की मशक्कत, कोल्हू का कठोर श्रम, मूंज कुटाई और बेड़ी- हथकडि़यों की झंकार थी।
सन् 42 बनाम अहिंसा
अमर शहीद भगतसिंह ने भारत के नौजवानों का आह्वान किया कि जवानो! समय आ गया है, अब बलिदान की जरूरत है। अब नेताओं की वायसरायों के साथ भेंटों से अथवा गोलमेज कांफ्रेंसों से स्वराज्य मिलने वाला नहीं, वह तो हथेलियों पर सिर कटाने से ही प्राप्त होगा। उन्होंने रिपब्लिकन आर्मी का संगठन करके अंग्रेजी साम्राज्य को उलटने का बीड़ा उठाया था जो कि सन् 1942 की विकराल तोड़-फोड़ के रूप में विकसित हुआ। आजादी की प्राप्ति में महान नेता सुभाषचंद्र बोस की आजाद हिन्द सेना का प्रमुख स्थान था- अहिंसा का नहीं।
पेशावर कांड
पेशावर कांड जिस समय हुआ था, उस समय फौजें शहर और बाजारों को घेर करके जनता पर गोली चलाया करती थीं। पेशावर कांड की घटना के बाद से फौजों को राजनीतिक आंदोलनों को दबाने के लिए इस्तेमाल नहीं किया गया। सन् 1930 की 12 मार्च की बात। महात्मा गांधी ने अपने गुजरात स्थित साबरमती आश्रम में 72 स्त्री-पुरुष सत्याग्रहियों को साथ लिया और कढ़ाई, कलछा सहित डाण्डी की ओर कूच किया ताकि समुद्र के किनारे नमक बनाया जा सके- उस समय उन्होंने ऐलान किया था कि मेरा यह अभियान ब्रिटिश हुकूमत के लिए भयंकर सिद्ध होगा। इस पर ब्रिटिश सरकार ने भारत के शहरों, कस्बों और सामरिक स्थानों को फौजों से घेर लिया था। उस समय हमारी 2/18 गढ़वाल रेजीमेंट को जमरूद खैबर घाटी लनदीकोटक से दिनांक 29-11-29 को पेशावर में लाया गया था। घनी मुस्लिम आबादी के शहरों में हिन्दू फौजें और हिन्दू बहुसंख्यक कस्बों में मुसलमान फौजों को तैनात किया गया। पेशावर में एक सिख, एक राजपूत और एक गोरा रेजिमेंट तोपखाना आदि और भी थे।
गढ़वालियों की राजभक्ति, ईमानदारी और बहादुरी पर विश्वास करके अंग्रेजों ने हमारी पलटन को खासकर पेशावर में लगाया था। कांग्रेस ने ऐलान किया था कि 29 मार्च सन् 1930 तक विदेशी कपड़ा, शराब और नमक बेचना-खरीदना बंद न किया गया तो दुकानों पर धरना दिया जाएगा। इसी सिलसिले में पेशावर शहर में भी तैयारियां हो रही थीं। 29 अप्रैल सन् 1930 की दोपहर को ए. कंपनी कमाण्डर ने कंपनी लाइन में आकर मुझे आदेश दिया कि कंपनी को फालीन करो। हुक्म की तामील होने पर साहब का भाषण हुआ था कि जवानो!
यहां पेशावर में 18 प्रतिशत मुसलमान हैं और 2 प्रतिशत हिंदू। मुसलमान हिन्दुओं की दुकानों पर खड़े हो जाते हैं और सामान नहीं बेचने देते, उनके मंदिरों को भ्रष्ट करते हैं, बहू-बेटियों को उठा ले जाते हैं- इसलिए सरकार ने हमारी हिन्दू पलटन को यहां भेजा है। संभव है, सन्निकट समय में हमें शहर में हिन्दुओं की हिफाजत के लिए भेजा जाएगा। मुसलमानों को गोली मारनी पड़ेगी।
गोली नहीं चलाएंगे
अंग्रेज के चले जाने के बाद सिपाहियों ने मुझसे पूछा, बात क्या है? मैंने कहा, न तो हिंदू का, न मुसलमान का, यह तो कांग्रेस का आंदोलन है। उसे कुचलने के लिए हमारी पलटन को शहर में ले जाएगा। पलटन भर में खुस-फुस- खुस फुस फैलने लगी। हमारी ए. कंपनी को दो घंटे की नोटिस पर पेशावर के सिटी मजिस्ट्रेट को रिपोर्ट देनी थी। इसीलिए मैंने दिनांक 22 अप्रैल, 1930 की रात को नौ साहसी देशसेवकों की बैठक बुलाकर निश्चित किया था कि शहर में आंदोलन उठेगा, तब हमारी पलटन को गोली चलाने का हुक्म भी जरूर मिलेगा, उस हालत में हमको क्या करना चाहिए। इसी बैठक में तय किया था कि हम किसी भी हालत में जनता पर गोली नहीं चलाएंगे। उस समय फौजी बैरकों की दीवारों पर उद्धृत भारतीय सेना के अनुच्छेद, सेक्शन 27, पैराग्राफ ए में लिखा था कि जो कोई सैनिक बगावत करे या बागियों को किसी प्रकार राशन या शस्त्र सप्लाई करेगा, उसको निम्नलिखित सजा दी जाएगी-
1. गोली से उड़ा दिया जाएगा 2. फांसी दी जाएगी 3. कच्चे चूने की खत्ती में खड़ा करके उसमें पानी डालकर जला दिया जाएगा 4. कुत्तों से नुचवाया जाएगा 5. कुल संपत्ति जब्त करके देश-निष्कासन की सजा दी जाएगी।
अब बैठक के सामने दो ही विकल्प थे कि या तो 18 लाख गढ़वालियों को कलंकित किया जाए या 672 गढ़वाली सैनिकों का बलिदान कर उपर्युक्त कानूनी खंजर के नीचे रहना कबूल किया जाए। सभा में आक्रोश और जोश-खरोश के बीच किसी ने कहा – हमको हुक्म मान लेना चाहिए, किसी ने कहा- जो ऑफिसर हमें गोली चलाने का हुक्म देगा, हम उसे गोली से उड़ा देंगे। आखिर में यह तय हुआ कि हम गोली चलाने से इंकार कर देंगे। अब सवाल था, न जाने कौन-कौन से प्लाटून व सैक्शन को कहां-कहां भेजा जाएगा? अवज्ञा कौन करेगा? तय हुआ कि जिस किसी के सामने गोली चलाने का हुक्म होगा, वही सीज फायर की चुनौती देगा।
23 अप्रैल का ऐतिहासिक दिन
23 अप्रैल, सन् 1930 की सुबह ए. कंपनी को पेशावर शहर जाने का आदेश हुआ। जब तक कंपनी के किशाखने बाजार के गेट पर पहुंचे- उधर सीमांत गांधी खान अब्दुल गफ्फार खां की लालकुर्ती-खुदाई खिदमतगार तथा कांग्रेसियों के पीछे लगभग 20,000 निशस्त्र जनता का मुहिम विदेशी माल की दुकानों पर धरने लगाता हुआ सामने आ गया। कंपनी कमांडर रीकेट को लिखित आज्ञा एक संदेशवाहक के द्वारा आ गई कि गढ़वाली थ्री राउंड फायर। मैं कंपनी कमांडर रीकेट के बाईं ओर बगल में खड़ा था। हमारी ए. कंपनी के नंबर एक और नंबर तीन प्लाटून शहर की चौड़ी सड़क एवं दुकानों के आगे, सामने बीचोबीच दो-दो कदमों के फासले पर सिपाही जनता की ओर बंदूकें ताने हुए थे अर्थात् जनता के हजूम को घेरा हुआ था। कंपनी कमांडर रीकेट ने जोर से गोली चलाने की आज्ञा दी- थ्री राउंड फांयर। रात की बैठक के फैसले का पालन भी मुझे ही करना पड़ा।
मैंने भी जोर से 'सीज फायर' की आवाज दे दी। सिपाहियों ने खड़म की आवाज करते हुए बंदूकों को जमीन पर टेक दिया। एक दो ने तो अपनी रायफलों को पठानों के हाथों में भी दे दिया था। हमारी कंपनी कैद करके वापस बैरकों में लाई गई। 24 अप्रैल, सन् 1930 को बटालियन पेशावर से कैद करके हेबुटाबाद पहुंचाई गई और कोर्टमार्शल की कार्यवाही होने लगी। 24 अप्रैल, सन् 1930 को हमलोगों ने- 67 सैनिकों ने अपने कमांडिंग ऑफिसर को लिखित मेजरनामा दिया था कि हम गोली नहीं चलाएंगे उन्हीं उपर्युक्त 67 जवानों को हेबुटाबाद से काकुल, गोरा तोपखाने के बैरकों के अहाते में कांटेदार तार-बाड़ के अंदर कैद कर दिया गया।
पुरस्कार
उपर्युक्त 67 सैनिकों में से 7 सरकारी गवाह बन गये। अब 60 में से 43 सिपाहियों की जायदाद, नौकरी जब्त करके रजिस्टर से नाम काट दिये गये और 17 हवलदार नायक, लांसनायकों को 3 वर्ष से 20 वर्षों तक की सजाएं देकर जेल की कोठरियों में ठूंस दिया गया था। मुझे छोड़कर 16 को आधी सजा काटने के बाद रिहा कर दिया। मुझे 11 वर्ष, 8 महीने कांटेदार तार की जेल भुगतनी पड़ी। जिला अल्मोड़ा, पट्टी कतपूर ग्राम स्थित मेरी माइगढ़ी की फौजी जागीर भूमि अब तक भी जब्त है। फौजी जायदाद, बंदूक, सोलह वर्षों की सर्विस की एवज में 30 रु. मासिक पेंशन जीविका के आधार पर मिलती है।
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