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''भारतीय भाषाओं में करेंगे भारतीय संस्कृति का प्रचार-प्रसार''

by
Jun 20, 2016, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 20 Jun 2016 12:42:55

इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र के अध्यक्ष का पदभार संभालने के बाद से ही श्री राम बहादुर राय ने केन्द्र के माध्यम से भारत की कला और संस्कृति के संरक्षण, संवर्धन की बड़ी योजनाओं पर काम शुरू कर दिया है। पाञ्चजन्य के सहयोगी सम्पादक आलोक गोस्वामी ने उनसे केन्द्र की भावी योजनाओं और विभिन्न कार्यक्रमों पर जो विस्तृत बातचीत की, उसके प्रमुख अंश यहां प्रस्तुत हैं

 

एक आंदोलनकारी छात्र नेता, फिर एक वरिष्ठ पत्रकार, और अब इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र (आइजीएनसीए) के अध्यक्ष। अपनी भूमिका में आए इस परिवर्तन को आप कैसे देखते हैं?

आइजीएनसीए के अध्यक्ष पद पर मुझे लाने का निर्णय कैसे हुआ, इसके बारे में मुझे नहीं पता। मुझे इसकी जानकारी 13 अप्रैल को केन्द्रीय पर्यटन और संस्कृति मंत्री डॉ. महेश शर्मा की इस बारे में की घोषणा से हुई। भारतीय संस्कृति में मेरी खास रुचि रही है, लेकिन मुझे इसका अध्यक्ष बनाया जाएगा, ऐसी मुझे कोई कल्पना नहीं थी। जिम्मेदारी आने के बाद मैंने पाया कि वहां कला और संस्कृति के क्षेत्र में काम करने की अपार संभावनाएं हैं।

आइजीएनसीए के बारे में यह जो कुछ लोगों की धारणा बनी कि भारत सरकार ने नेहरू परिवार से जुड़ी दो संस्थाओं को उससे अलग करने की कोशिश की है, यह गलत है। कारण यह है कि इसका स्वरूप एक स्वायत्त संस्था का है। इसका ट्रस्ट बना हुआ है, भारत सरकार उसे अनुदान देती है। रोजमर्रा का कामकाज ट्रस्ट के नियमों से संचालित होता है।

अभी तक वहां जो काम हुआ है, उसके बारे में क्या कहेंगे?

वहां कई अच्छे काम हुए हैं।  जैसे, सुप्रसिद्ध विद्वान आनंद कुमारस्वामी ने जो लिखा-पढ़ा, उसे आइजीएनसीए ने कुछ साल पहले अमेरिका में रह रहे उनके बेटे से खरीदा। आइजीएनसीए में आनंद कुमारस्वामी का साहित्य, उनकी पाण्डुलिपियां हैं। आज की पीढ़ी तो शायद आनंद कुमारस्वामी के नाम से भी परिचित नहीं होगी। भूगर्भशास्त्री के नाते अपनी खुदाइयों सेमिली चीजों से उन्होंने भारतीय संस्कृति को समझना शुरू किया था। कला और संस्कृति में वे बड़ा नाम हैं। 1947 में उनका निधन हुआ। उन्होंने साफ कहा है कि पश्चिम को श्रेष्ठ बताने वाले किसी भ्रम में न रहें। भारतीय कला और संस्कृति सबसे श्रेष्ठ है। इस पर उनके अनेक ग्रंथ हैं। वाणी प्रकाशन ने 'भारतीयता की पहचान' नाम से इस पर एक छोटी पुस्तक छापी है। उसे पढ़ना चाहिए। पुस्तक पं. विद्यानिवास मिश्र द्वारा कुमारस्वामी पर दिए भाषणों का संकलन है।

यह तो एक उदाहरण हुआ। आइजीएनसीए में हजारी प्रसाद द्विवेदी का पूरा साहित्य उपलब्ध है। हमारी कोशिश होगी कि विभिन्न विद्वानों का पूरा साहित्य वहां आए ताकि नई पीढ़ी उनसे परिचित हो। डॉ. नामवर सिंह से हम संस्कृति और समाज शृंखला शुरू करने जा रहे हैं। सबकी सलाह से हम उसी शंृखला में वासुदेव शरण अग्रवाल और कुमारस्वामी पर भी आयोजन करेंगे। उसकी छोटी किताब हिन्दी में छपेगी। इन दोनों को जानने और समझने वाला भारत और भारतीय संस्कृति को समझ सकता है।

मेरा अपना यह मानना है कि यह संस्था अब तक एक तरह से अपने में बंद थी या कुछ ही लोगों की उसमें रुचि थी, एक अभिजात्य वर्ग ही आइजीएनसीए में आया-जाया करता था।

आपने जिस धारणा की बात की, वह किस डर के चलते बनी? आप आइजीएनसीए में किस तरह का बदलाव देखना चाहते हैं?

आइजीएनसीए के नए बोर्ड ऑफ ट्रस्टीज की घोषणा का सर्वत्र स्वागत हुआ है। लेकिन कुछ लोगों ने विवाद पैदा करने की कोशिश की।

इतिहास देखें तो, आइजीएनसीए भारत सरकार के एक फैसले से 1987 में ट्रस्ट के रूप में बना। बोर्ड ऑफ ट्रस्टीज के अध्यक्ष तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के लिए छोटी-छोटी बैठकों के लिए समय निकालना मुश्किल होगा, यह सोचकर ट्रस्ट डीड में एक प्रावधान रखा गया कि ट्रस्टी मिलकर एक कार्यकारी समिति बनाएंगे। 1999 से पहले आइजीएनसीए का स्वरूप अलग था। उस वक्त प्रधानमंत्री राजीव गांधी उसके अध्यक्ष होते थे और तत्कालीन विदेश मंत्री पी.वी. नरसिंह राव को उसकी कार्यकारी समिति का अध्यक्ष बनाया गया था। आज भी आइजीएनसीए में यही व्यवस्था है। कार्यकारी समिति ही फंड, कार्यक्रमों और प्रबंधन के सारे फैसले करती है। उन फैसलों पर अमल करता है सदस्य सचिव। वही वहां का मुख्य कार्यकारी अधिकारी है।

1999 से पहले एक बार सोनिया गांधी उसकी आजीवन ट्रस्टी बनाई गई थीं। 1999 में इसमें बदलाव हुआ और डॉ. लक्ष्मी मल्ल सिंघवी इसके अध्यक्ष बने। उनके समय से ही वह दोहरी व्यवस्था समाप्त हो गई। उसके बाद के 10 वर्ष के दौरान यह अभिजात्य वर्ग के केन्द्र के रूप में काम कर रहा था। 99 प्रतिशत से भी ज्यादा काम अंग्रेजी में ही होता था। इसीलिए नए बोर्ड के गठन की घोषणा के फौरन बाद मीडिया ने काफी कोशिश की विवाद पैदा करने की। सुबह-सुबह कुछ पत्रकार पहुंच गए चिन्मय गरेखान और कपिला वात्स्यायन जी के पास, कि हमारे खिलाफ उनसे कुछ बुलवाएं। पर उन दोनों ने कहा कि इस ट्रस्ट के पुनर्गठन का अधिकार भारत सरकार को है और उन्होंने जो किया है, ठीक किया है। नए सदस्य सचिव डॉ. सच्चिदानंद जोशी आए हैं, जिन्हें संस्थाओं को चलाने का अनुभव है।

समिति के पहले फैसले में क्या             खास है?

इसमें दो बातें खास हैं। पहली चीज है कि इस केन्द्र की सम्पन्न लाइब्रेरी का विश्वविद्यालयों के शोध के लिए कोई उपयोग नहीं हो रहा था। हम कोशिश कर रहे हैं कि दिल्ली और आस-पास के विश्वविद्यालयों के शोध छात्र और अध्यापक इस लाइब्रेरी का लाभ उठा सकें। इस केन्द्र को हम एक संसाधन केन्द्र के नाते विकसित करेंगे।

भारत में ऐसी अनेक परंपराएं, कलाएं हैं जो अपनी पहचान खोती जा रही हैं। क्या उनके संरक्षण, संवर्धन की भी कोई योजना है?

जिन कलाकारों को कोई मंच नहीं मिल रहा है, आइजीएनसीए उनको मंच देगा, सम्मान देगा और प्रोत्साहित करेगा। इसके अलावा प्रधानमंत्री ने संस्कृति मंत्रालय को एक लक्ष्य दे रखा है कि देश के 6.5 लाख गांवों में जाकर कलाकारों का एक नेशनल रजिस्टर बनाया जाए। गांव का कोई व्यक्ति किसी शास्त्रीय या लोक कला का मर्मज्ञ हो तो उसे भारत सरकार कलाकार मानेगी। यह काम शुरू हो चुका है। इधर हम विलुप्त होती लोक कलाओं को मंच देने का विचार कर रहे हैं। मथुरा की सांझी कला ऐसी ही एक कला है।

अंग्रेजी से इतर हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं में केन्द्र का काम बढ़ाने के लिए आप क्या कर रहे हैं?

आइजीएनसीए में जो काम अंग्रेजी में हुए हैं उसका एक पक्ष है विश्वभर में भारतीय संस्कृति को जानने के वालों की पहंुच में ले जाना। लेकिन अगर यही दृष्टि हो कि हम विदेश वालों के लिए ही काम कर रहे हैं तो मेरी नजर में यह दोषपूर्ण होगा। इसलिए, अपनी कला और संस्कृति के बारे में यहां के लोगों में भी चेतना पैदा करने के लिए हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं में काम करने की जरूरत है।  संस्कृति की आत्मा होती है कला। और दोनों का परस्पर संबंध है। इसलिए हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं के बिना उसे न बचाया जा सकता है, न बढ़ाया जा सकता है। अपनी कोशिश तो यह होगी कि जो काम अंग्रेजी में हुए हैं, वे हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं में भी आएं।

आइजीएनसीए के विभिन्न केन्द्रों में प्रमुख रूप से क्या काम करने का विचार है?

आइजीएनसीए के बनारस केन्द्र में वांग्मय पर काम चल रहा है। वहां कला तत्व कोश पर शोध हो रहा है। पाण्डुलिपि बनती है और वहीं छपाई होती है। गुवाहाटी केन्द्र को 8 राज्यों के केन्द्र के तौर पर बड़े केन्द्र के रूप में विकसित करने का विचार है। सरकार ने आइजीएनसीए के पास 6-6.5 करोड़ का बजट उत्तर-पूर्व के लिए अलग से दे रखा है। अब तक वह पैसा दिल्ली में ही उत्तर-पूर्व के नाम पर खर्च होता था और उत्तर-पूर्व उठकर दिल्ली आता था। हम अब उस पैसे को उत्तर-पूर्व यानी गुवाहाटी केन्द्र पर भेजेंगे और वह वहीं खर्च होगा।  बंगलूरू का केन्द्र दक्षिण के राज्यों की कला-संस्कृति को अच्छा केन्द्र बना है।हमारा फैसला है कि रांची में भी एक केन्द्र खोलें। वहां से हम उड़ीसा, छत्तीसगढ़ और झारखंड के जनजातीय इलाकों में काम करेंगे। जनजातीय संस्कृति के साहित्य, लोककथाओं, कला आदि के बारे में छपना चाहिए। वडोदरा सहित और दो-एक स्थानों पर केन्द्र खोलने की योजना है।

विस्मृत महापुरुषों की स्मृति को समाज और विश्व के सामने लाने की भी कोई योजना है?

हमने सोचा है कि जो संस्थाएं आचार्य अभिनव गुप्त पर काम कर रही हैं उन सबके साथ मिलकर उनकी जन्म सहस्राब्दी पर एक देशव्यापी कार्यक्रम करें। हम इस केंद्र को कला और संस्कृति के हर आयाम का प्रमुख केंद्र बनाएंगे जिसका विद्यार्थी, अध्यापक, कला और साहित्य प्रेमी भरपूर लाभ उठा पाएंगे।

 

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