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-आलोक गोस्वामी-
आठ जून, 2016 का दिन अमेरिका के राजनीतिक गलियारों में लंबे समय तक याद रखा जाएगा। वजह: इस दिन दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्र यानी अमेरिका की कांग्रेस के संयुक्त सत्र को दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र यानी भारत के सत्ता-प्रमुख प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने संबोधित किया था। न्यूयार्क टाइम्स, द वाशिंग्टन पोस्ट, वाल स्ट्रीट जर्नल, गार्जियन, द टेलिग्राफ ही नहीं, दुनिया के तमाम देशों के अखबारों में 9 जून की सुर्खियों में मोदी ही मोदी छाए थे। भाषण ऐतिहासिक था ही, क्योंकि मोदी ने पहली बार उस गरिमामय सदन को संबोधित किया था, पहली बार उनके आग्रह पर भाषण दिया था, भारत-अमेरिकी संबंधों के व्याप को रेखांकित दिया था, उस मंच से दुनिया भर में मौजूद आतंक के पैराकारों और कारिंदों को ललकारा था, और पाकिस्तान का नाम लिए बिना उसके खिलाफ अंतरराष्ट्रीय जनमत बनाने का आह्वान किया था। सदन के सदस्यों ने भाषण के बीच 50 से ज्यादा बार तालियां बजाकर मोदी की बातों का अनुमोदन किया। शायद इतिहास में ऐसा उदाहरण दूसरा नहीं मिलेगा।
भारत-अमेरिका द्विपक्षीय संबंधों को एक नया आयाम देकर मोदी ने यूं भी अपने अब तक के दो साल के कार्यकाल में राष्ट्रपति ओबामा के साथ ऐसा सूत्र जोड़ा है जिसके जरिए दोनों देशों की जनता का मिलकर आगे बढ़ने का मन बना है। मोदी ने अमेरिका को बताया कि भारत आज उस मोड़ पर खड़ा है जहां से दोनों देश ऊर्जा और जलवायु परिवर्तन के साथ ही आतंकवाद पर चोट करने में सहयोग कर सकते हैं। ओबामा ने भारत को 48 सदस्यीय एनएसजी का सदस्य बनाने की पैरवी की ही है। अमेरिका के साथ हुए करार जहां रक्षा क्षेत्र में सहयोग को विस्तार देते हैं वहीं अंतरराष्ट्रीय राजनीति में नए बनते समीकरणों की तरफ भी संकेत करते हैं।
ऐसे समय में जब भारत सरकार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की विकास की घोषित 'लंबी छलांग' लगाने की तैयारी करती दिखती है, दुनिया के अधिक से अधिक देशों से संबंध बनाना और उनको निष्ठा से निभाना एक ईमानदार कदम ही कहा जा सकता है। कोई कुछ भी कहे, बढ़ते देश के लिए 'ऊर्जा' की जरूरत होती है। उसके विदेशी मुद्रा भंडार के भरे होने की जरूरत होती है। उसका माल ज्यादा से ज्यादा देशों के बाजारों तक पहंुचना जरूरी होता है। उसकी मेधा का हर क्षेत्र में अपनी धाक जमाना जरूरी होता है। वहां सत्तारूढ़ सरकार की नैतिकता का असंदिग्ध होना जरूरी होता है। इन सब पहलुओं के आलोक में प्रधानमंत्री मोदी की हाल की 5 देशों की यात्रा (4-10 जून) को परखकर ही उसकी फलश्रुति का पता चलता है। अमेरिका से पहले मोदी अफगानिस्तान, कतर, मैक्सिको और स्विट्जरलैंड गए थे।
4 जून को मोदी ने अफगानिस्तान के हेरात सूबे में बने भारत-अफगानिस्तान मैत्री बांध का उद्घाटन करके अपना बेहद व्यस्त सफर शुरू किया। इसे पहले सलमा बांध नाम दिया गया था। अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी समझ चुके हैं कि उनका हित भारत के साथ है न कि तालिबानों और हक्कानियों के दबदबे वाले पाकिस्तान के साथ। अभी 23 मई को तेहरान (ईरान) में चाबहार बंदरगाह के संबंध में भारत-ईरान-अफगानिस्तान के बीच हुए करार पर गनी का विशेष रूप से वहां उपस्थित होना बहुत कुछ साफ कर देता है। मध्य एशिया में भारत की बढ़ती भूमिका और महत्व के बारे में इससे एक संकेत मिलता है।
इस बारे में भारत के पूर्व विदेश सचिव श्री शशांक का कहना है, ''मोदी ने अपने कार्यकाल के शुरू में ही पड़ोसी देशों से संबंधों को खास महत्व देते हुए अफगानिस्तान पर विशेष ध्यान दिया था। वहां के पूर्व राष्ट्रपति हामिद करजई के साथ उनके नजदीकी संबंध बने थे। पाकिस्तान को इस नजदीकी से परेशानी होना स्वाभाविक है।'' वे कहते हैं, ''मोदी ने हाल में अफगानिस्तान में जिस सलमा बांध का उद्घाटन किया है वह भारत द्वारा अफगानिस्तान के साथ आर्थिक-सामाजिक संबंधों की प्रगाढ़ता का परिचायक ही है। इससे द्विपक्षीय संबंधों पर मुहर लगी है।'' लेकिन चीन नहीं चाहता कि भारत एशिया की एक बड़ी ताकत के तौर पर एनएसजी में शामिल हो। उसके इस इस तर्क में कोई दम नहीं है कि भारत पहले एनपीटी पर दस्तखत करे। इस संदर्भ में अनेक देशों में भारत के राजदूत रहे श्री जे. के. त्रिपाठी कहते हैं, ''चीन कौन होता है हमारे ऊपर ऐसी शर्त लादने वाला? 1974 में गठित एनएसजी का चीन तभी सदस्य बन गया था। लेकिन एनपीटी पर तो उसने खुद 1992 में दस्तखत किए थे। अब तो मैक्सिको ने भी भारत की उसमें सदस्यता का समर्थन किया है।''
मोदी की इस यात्रा के संदर्भ में उनका कहना है,''अगर आज अमेरिका भारत को परमाणु ऊर्जा में संबल प्रदान करने को तैयार हुआ है तो यह मोदी सरकार की कूटनीति की कामयाबी ही है। वे लगातार 18-19 घंटे काम करते हैं, खबरों पर नजर रखते हुए विदेशी नेताओं से बात करते हैं।
मोदी मेंं काम करने और समय पर करने की एक इच्छाशक्ति दिखती है। मोदी ने मैक्सिको जाना तय किया जहां भारत के किसी प्रधानमंत्री को गए 30 साल हो चुके थे। राजीव गांधी (1986) के बाद वहां कोई प्रधानमंत्री नहीं गया था। इसी तरह फिजी जाने पर मोदी ने वक्त निकालकर उन 14 प्रशान्त महासागरीय राष्ट्राध्यक्षों से मुलाकात की जो सदा से हमारे हितैषी रहे हैं, पर भारत की पहले की सरकारों ने उनसे मिलने की जरूरत ही नहीं समझी थी। इसी तरह मोदी ने पहल करके कनाडा और ऑस्ट्रेलिया का दौरा किया।''
भारत की तेजी से कदम बढ़ाती विदेश नीति के संदर्भ में श्री शशांक का कहना है, '' मोदी सरकार ने 'एक्ट ईस्ट' की कूटनीति को आगे बढ़ाते हुए 'एक्ट वेस्ट' का नया आयाम शुरू किया है। हमारी कूटनीति अब साउथ ब्लॉक के गलियारों तक नहीं सिमटी हुई है बल्कि सरकार के सभी विभाग अपनी पूरी जिम्मेदारी निभा रहे हैं। राज्यों की मदद भी मिली है। जैसे, बंगलादेश से सुधरे संबंधों में उत्तर-पूर्व के उस देश से सटे राज्यों की भूमिका रही है। सरकार की ये नीतियां अपना जादू दिखा रही हैं। अमेरिका न केवल एनएसजी में हमारी सदस्यता के पक्ष में उतरा है, बल्कि स्विट्जरलैंड, जो पहले हमारी सदस्यता का विरोधी था, अब पक्ष में आया है। उसने काले धन पर सहयोग का वादा
दोहराया है। ''
मोदी का पूरा सफर ऊर्जा से लबरेज रहा तो सिर्फ इसलिए कि उनके मन में भारत को दुनिया में उसका उचित स्थान दिलाने
की ललक और प्रतिज्ञा है। तभी तो लगातार रात में सफर करते हुए उन्होंने दिन में विभिन्न राष्ट्राध्यक्षों से मुलाकात की। समय का यह सदुपयोग आने वाले समय में सुफल देगा, ऐसा विशेषज्ञों का मानना है। ल्ल
''ऐतिहासिक साझेदारी है हमारी''
8 जून को अमेरिकी कांग्रेस के संयुक्त सत्र में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा दिए गए वक्तव्य के संपादित अंश इस प्रकार हैं-
भारत और अमेरिका के बीच साझेदारी की स्वीकार्यता पूरी तरह से हमारे लोगों की कोशिशों की वजह से संभव हुई है। हमारी साझेदारी समुद्र की गहराई से लेकर आसमान की ऊंचाई तक नजर आती है। हमारा विज्ञान और तकनीकी सहयोग स्वास्थ्य, शिक्षा, खाद्य और कृषि क्षेत्र की पुरानी समस्याओं को खत्म करने में लगातार सहयोग कर रहा है। वाणिज्य और निवेश के क्षेत्र में हमारी साझेदारी लगातार बढ़ रही है। हमारा अमेरिका के साथ व्यापार किसी भी दूसरे देश के मुकाबले ज्यादा है।
भारत-अमेरिका के बीच सामान,सेवाओं और पैसों का लेन-देन बढ़ने से दोनों तरफ नौकरियों के अवसर बढ़ रहे हैं। जैसा व्यापार में है, वैसा ही रक्षा क्षेत्र में भी है। भारत का अमेरिका के साथ सैन्य सहयोग किसी भी दूसरे देश की अपेक्षा ज्यादा है। एक दशक से भी कम अवधि में हमारे रक्षा सामान की खरीदारी करीब 0 से10 अरब डॉलर तक पहुंच गई है। आपसी सहयोग से हमारे शहरों और वहां के नागरिकों की आतंकवादियों से रक्षा और आधारभूत संरचनाओं को साइबर खतरों से बचाव सुनिश्चित होता है। हमारे बीच असैन्य परमाणु सहयोग एक वास्तविकता है। दोनों देशों के लोगों के बीच संबंध बेहद मजबूत हैं। दोनों देशों के लोगों के बीच बेहद करीबी सांस्कृतिक संबंध रहे हैं।
'सीरी' ने बताया, भारत की प्राचीन धरोहर योग का अमेरिका में 3 करोड़ लोग अभ्यास कर रहे हैं। और हमने योग पर कोई 'इंटलेक्चुअल प्रॉपर्टी राइट' भी नहीं लगाया है। हमारे 30 लाख भारतीय अमेरिकी दोनों देशों को जोड़ने के लिए एक अद्वितीय और सक्रिय सेतु का काम करते हैं। आज वे अमेरिका के बेहतरीन सीईओ, शिक्षाविद्, अंतरिक्ष यात्री, वैज्ञानिक, अर्थशास्त्री, चिकित्सक और यहां तक कि अंग्रेजी वर्तनी की प्रतियोगिता के चैंपियन भी हैं। ये लोग आपकी ताकत हैं। ये लोग भारत की शान भी हैं। ये लोग हमारे दोनों समाजों के प्रतिनिधि की तरह हैं।
आपके इस महान देश के बारे में मेरी समझ सार्वजनिक जीवन में आने से काफी पहले ही विकसित हो गई थी। पदभार ग्रहण करने से बहुत पहले ही मैं, तट से तट होते हुए 25 से अधिक अमेरिकी राज्य घूम चूका हूं। तब मुझे एहसास हुआ कि अमेरिका की असली ताकत इसके लोगों के सपनों में और उनकी आकांक्षाओं में है। आज वही जज्बा भारत में भी दिख रहा है। 80 करोड़ युवा खासतौर पर जैसे उतावले हैं। भारत में एक बहुत बड़ा सामाजिक-आर्थिक बदलाव आ रहा है। करोड़ों भारतीय पहले से ही राजनीतिक तौर पर समर्थ हैं। मेरा सपना उन्हें सामाजिक-आर्थिक बदलाव द्वारा आर्थिक रूप से सक्षम करने का है।
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