जवाहर बाग/ विशेष रपट - बाग की आग पर सत्ता मुलायम
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जवाहर बाग/ विशेष रपट – बाग की आग पर सत्ता मुलायम

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Jun 13, 2016, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 13 Jun 2016 14:37:58

-पवन निशांत-

घायल अवस्था में जिला अस्पताल लाए गए पैंतीस वर्षीय अनमोल रतन की मानें तो वह रामवृक्ष यादव द्वारा तैयार किए गए उपद्रवियों की तीसरी पंक्ति में शामिल था। हुक्म दिया गया था,''पुलिस के इरादे ठीक नहीं हैं। ऊपर से मदद मिल रही है। सशस्त्र बलों को आदेश हो गया है, गोली तो क्या लाठी-डंडा भी नहीं चलेगा, फिर भी तैयार रहना है और कोई भी हरकत होते ही टूट पड़ना है।'' अनमोल रतन अब खुद को निदार्ेष बता रहा है। उसे यह आश्चर्य है कि पुलिस आखिर बाग में आ      कैसे गयी।
2 जून की शाम जवाहर बाग ऑपरेशन के बाद मथुरा के जिला अस्पताल लाए गए करीब डेढ़ दर्जन कथित सत्याग्रहियों में ज्यादातर मरहम-पट्टी कराने के बाद भाग निकलने की फिराक में हैं। अनमोल भी राह देख रहा है, पर उसे लग नहीं रहा कि वह निकल पाएगा। यह आश्वासन मिलने के बाद कि उसे सकुशल जाने दिया जाएगा, वह बताता है,''रामवृक्ष यादव बहुत बड़े नेता हैं और उनके सरकार के मंत्रियों और नेताओं से बढि़या संबंध हैं। वह कोई भी आदेश दे सकते हैं।'' उसे जब बताया जाता है कि  रामवृक्ष यादव मारा गया तो वह टूट जाता है। दो-तीन बार बिजली कटने से लेकर मुकदमा दर्ज होने के मामलों में वह बताता है कि मंत्री जी के फोन के बाद प्रशासन और पुलिस 'गीदड़' बन जाते थे।
मथुरा के जवाहर बाग में ढाई साल तक जमे रहे करीब चार हजार कथित सत्याग्रहियों को आखिर किसका संरक्षण था, यह उसकी बातों से  साफ हो जाता है। इससे पहले यह आशंका कई बार जाहिर होती ही रही थी। पुलिस और प्रशासन ने इस दौरान करीब एक दर्जन बार शासन को संस्तुतियां भेजी, लेकिन हुआ कुछ नहीं। यह तो मथुरा में जन दबाव इतना बन गया था कि प्रशासन के पास कोई चारा नहीं बचा था।
31 मई से लगातार 'रिहर्सल' करने के बावजूद पुलिस 2 जून की शाम को भी 'रिहर्सल' ही करने पहुंची थी। पुलिस अधीक्षक मुकुल द्विवेदी और फरह थाने के एसओ संतोष यादव मुट्ठी भर पुलिस वालों के साथ चारदीवारी तोड़ कर अंदर घुस गए थे। लेकिन भीड़ ने तीन सिपाही पकड़ लिए और उन्हें मारने लगी। पीछे से पहुंचे पुलिस उपाधीक्षक राकेश सिंह ने माइक से गुहार लगाई कि वे जवानों को छोड़ दंे, वे वापस चले जाएंगे। लेकिन तब तक एक गोली एसओ संतोष यादव का माथा फोड़ते हुए निकल गई। इसके बावजूद फायरिंग के आदेश नहीं दिए गए। इससे पुलिस का हौसला टूटा और पुलिस अधीक्षक (शहर) के साथ चल रहे सिपाही भाग निकले। भीड़ ने मुकुल द्विवेदी को घेरकर उनपर ताबड़तोड़ डंडे बरसाने शुरू कर दिए। उनका हेल्मेट निकल गया, सिर कई जगह से फट गया। इतना सब होने के बाद पुलिस बल आगे बढ़ा और बिना आदेश ही फायरिंग करनी शुरू कर दी। पुलिस बल के साथ सदर थाने के एसओ प्रदीप कुमार भी शामिल थे। भीड़ ने उन्हें भी नहीं छोड़ा। प्रदीप कुमार ने घटना के चार दिन बाद एक स्टिंग में माना कि उन्हें गोली तो क्या लाठी-डंडे चलाने की भी इजाजत नहीं थी।
छह जून को 'पोस्टमार्टम हाउस' में रखे शवों का चार डॉक्टरों के पैनल नेे पोस्टमार्टम किया। रिपोर्ट के मुताबिक किसी भी कथित सत्याग्रही के शरीर पर गोलियों के निशान नहीं पाए गए। उनकी मौत लाठी-डंडों और आग में जलने से हुई। आगरा के एसएन अस्पताल में दो शवों के पोस्टमार्टम में भी यही कारण सामने आए। घटना में कुल 28 लोगों की मौत की पुष्टि हुई है।
इससे साफ है कि उत्तर प्रदेश की सत्ता में बैठे एक दबंग मंत्री का जो नाम बार-बार लिया जाता रहा है, उसमें दम है। एक माह पहले जब जन दबाव के आगे ऑपरेशन की बारी आने लगी तो अधिकारियों के मांगे जाने के बावजूद अतिरिक्त पुलिस बल मुहैया नहीं कराया गया। इससे उनमें इतनी हताशा भर गयी कि कई कर्मी स्थानांतरण तक मांगने लगे थे।  
खूनी संघर्ष की  जड़ कहां?
जवाहर बाग के कथित सत्याग्रहियों को सत्ता में बैठे नेताओं का संरक्षण था, यह बात इन तीन तथ्यों से साफ हो जाती है। पहला, घायल सत्याग्रही का कबूलनामा। दूसरा, जवाहर बाग में 2 जून को सत्याग्रहियों द्वारा हमला करने के बावजूद फायरिंग के आदेश न देना और तीसरा, शवों के पोस्टमार्टम में लाठी-डंडों से हुई पिटाई से मौत की पुष्टि। आखिर इसकी वजह क्या हो सकती है? दरअसल आगरा-दिल्ली राष्ट्रीय राजमार्ग-2 पर मथुरा स्थित जयगुरुदेव आश्रम की 12 हजार करोड़ से ज्यादा की संपत्ति इस खूनी संघर्ष की जड़ है। 18 मई, 2012 को जय गुरुदेव के निधन के बाद लोक निर्माण मंत्री शिवपाल यादव तत्काल मथुरा आए थे। सूत्रों के अनुसार आश्रम में जय गुरुदेव की तेरहवीं पर पूरी योजना का खाका तैयार किया गया था। बाबा इटावा के खितौरा गांव के यादव परिवार से थे। यहीं के चरण सिंह यादव जय गुरुदेव की संस्था के अधिवक्ता हैं और उनका बेटा पंकज यादव बाबा का वाहन चालक था। बाबा के अनुयाईयों की मानें तो पंकज यादव के कुछ आपत्तिजनक कार्यों के सामने आने के बाद बाबा ने उसे खुद से दूर कर दिया था। लेकिन उनकी मौत के बाद एक कथित वसीयत के जरिए पंकज को बाबा की करोड़ों की संपत्ति पर बैठा दिया गया। इससे बाबा के दो शिष्य आक्रोशित हो गए। बाबा के परम शिष्यों में शुमार रहे उमाकांत तिवारी के गुट ने जब मुखर विरोध किया तो प्रशासन और पुलिस ने उन्हें हर कदम पर हतोत्साहित किया। उनके लिए धारा 144 भी लगा दी गई। हार कर तिवारी ने उज्जैन में आश्रम बना लिया। पंकज बाबा भी उत्तराधिकार संबंधी वसीयत को फर्जी बताते हुए उमाकांत तिवारी के प्रवक्ता रमाकांत पांडेय कहते हैं,''तत्कालीन जिलाधिकारी ने उमाकांत तिवारी से यहां तक कह दिया था कि जनपद में आगे से दिखाई मत देना, कोई वारदात हो गई तो उनकी ही जिम्मेदारी होगी।''
दूसरी ओर बाबा जय गुरुदेव के निधन की खबर सुनकर रामवृक्ष यादव सागर, मध्य प्रदेश से अपने शिष्यों के साथ मथुरा आ गया। उसके साथ संस्था के लोगों का संघर्ष भी हुआ। कमजोर पड़ने पर वह लौट गया और करीब 2 साल बाद फिर से करीब पांच सौ लोगों के साथ जनवरी, 2014 में मथुरा में आ पहुंचा। 'स्वाधीन भारत विधिक सत्याग्रह' के बैनर तले उसने अन्य मांगों के साथ बाबा के मृत्यु प्रमाण पत्र की मांग फिर दोहराई।
सूत्र बताते हैं कि बाबा की संस्था पर काबिज पक्ष का सिरदर्द बनने के बाद उसे शांत करने का जिम्मा प्रदेश सरकार के एक मंत्री ने अपने हाथ में ले लिया और उसे दो दिन अनशन करने के लिए जवाहर बाग दे दिया गया। तत्कालीन जिलाधिकारी विशाल चौहान ने मार्च, 2014 में उसे दो दिन के लिए बाग आवंटित किया। इसके बाद तो वह ऐसा जमा कि उसे निकालने के लिए दो पुलिस अधिकारियों को अपनी जान गंवानी पड़ी। बहरहाल जो जानकारियां निकलकर आ रही हैं, वे बताती हैं कि सपा सरकार के एक दबंग मंत्री ने जय गुरुदेव संस्था पर काबिज पंकज बाबा पर दबाव बनाए रखने के लिए ही रामवृक्ष को शह दी थी।     
बहरहाल, जय गुरुदेव के गुजरने के बाद राजनीतिकों की छांह में दौड़े शिष्यों की रस्साकशी हजारों लोगों को उस मोड़ पर अकेला छोड़ गई है, जहां से उन्हें आगे की कोई राह नहीं दिखती। अनमोल रतन जैसे अनुयायियों के पास अब हताशा के सिवा कुछ नहीं है।     ल्ल

सुलगते सवाल
–    आखिर जिला प्रशासन  पर कार्रवाई न करने के लिए किसका दबाव था?
–   जब अतिरिक्त पुलिस बल मौजूद था तो मुट्ठी भर जवान ही एसपी सिटी मुकुल द्विवेदी के साथ क्यों भेजे गए?
–    मौके पर पुलिस उपाधीक्षक, जिलाधिकारी, मंडलायुक्त, डीआईजी और आईजी क्यों नहीं थे?
–    जवाहर बाग कांड की जांच आगरा मंडलायुक्त ने लेने से क्यों इनकार कर दिया ?
 –    ऑपरेशन में चारों तरफ से घिरने के बावजूद चार हजार से ज्यादा सत्याग्रहियों में से मुट्ठी भर ही क्यों हाथ आ पाए?
–    पकड़े गए सत्याग्रहियों को जिन अस्थायी जेलों में रखा गया था, वे सुबह होते ही वहां से भाग निकले। उनको पुलिस ने अपनी मौजूदगी में किसके आदेश पर निकल जाने दिया?
–    मथुरा के उपाधीक्षक राकेश सिंह और जिलाधिकारी राजेश कुमार को अगले ही दिन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने निलंबित करने के आदेश दे दिए। यह खबर सोशल मीडिया पर वायरल होने के बाद कार्रवाही क्यों रोक दी गयी और उन्हें छह जून को केवल स्थानांतरित ही क्यों किया गया? जबकि मुख्यमंत्री ने ऑपरेशन में बड़ी चूक मानी थी।

तथ्य, जो सामने आए
–    बाग में भारी मात्रा में हथियार बरामद हुए। बाग में स्थापित फैक्ट्री में हथियारों का कच्चा माल बिहार, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश से आता था और हथियार नक्सल प्रभावित इलाकों में भी भेजे जाते थे।
–    सर्च ऑपरेशन में पुलिस को मौके से पांच किलो गंधक, डेढ़ किलो गन पाउडर और भारी मात्रा में बैरल बनाने वाले पाइप मिले हैं। इतना सामान तो तब मिला, जब ऑपरेशन शुरू होते ही रामवृक्ष ने पूरे बाग में आग लगा दी थी।
–    उसकी डायरी में दर्ज लेखा-जोखा की मानें तो वह हर महीने 48 लाख रु. की सहायता बाहर से पा रहा था।
–    कथित सत्याग्रहियों के राशन कार्ड बन गए थे। बाग से हजारों गैस सिलेंडर मिले हैं, जो आपरेशन के दौरान धू-धू कर जले थे। उसे हर महीने किसी न किसी गैस एजेंसी से 1,500 गैस सिलिंडरों की आपूर्ति होती थी।
–    वह बाग के अंदर वातानुकूलित कमरे में रहता था। उसका एक स्वीमिंग पूल भी था।  कमरे में से शराब की बोतलें, महिलाओं के कपड़े और दर्जनों चार पहिया वाहन मिले हैं।

'योजनाबद्ध तरीके से ऑपरेशन को नहीं दिया गया अंजाम'
मथुरा के चर्चित जवाहर बाग प्रकरण ने कुछ ज्वलंत प्रश्न खड़े किये हैं। पुलिस के लिए, प्रशासन के लिए, पुलिस की कार्य पद्धति पर और उसके ऊपर क्या राजनीतिक दबाव रहते हैं। जवाहर बाग में उत्तर प्रदेश पुलिस को भारी कीमत चुकानी पड़ी है। एस.पी. स्तर के एक बड़े अधिकारी मुकुल द्विवेदी और अधीनस्थ संतोष यादव को खोकर। इसकी भरपाई कभी नहीं हो सकती। लेकिन  अगर इसकी पृष्ठभूमि में जाएं तो रामवृक्ष यादव का मथुरा आगमन,जवाहर बाग में उसको डेरा जमाने की अनुमति दिए जाने  और उसके बाद कालांतर में ढाई वर्ष तक बना रहना क्या था? उच्च न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद भी जनवरी,2016 में अंतरिम नोटिस दिये जाने के बावजूद स्थानीय पुलिस मूकदर्शक बनी रही। शासन-प्रशासन की बिना मूक सहमति के इस प्रकार का अंधेर हो ही नहीं सकता। सबसे पहली चीज, अगर पुलिस के हाथ में सब कुछ होता तो पुलिस अधीक्षक कम से कम इस प्रकार के अवैधानिक दबाव में न आते। ये भी जानकारी मिली है कि जिलाधिकारी ने गृह सचिव को सशस्त्र बलों का मूल्यांकन करके भेजा, जिसमें 25 कंपनी सशस्त्र सैन्य बल, महिला टुकडि़यां, इसके अलावा इतने उपनिरीक्षक, 1,800 सिपाही। अगर जिलाधिकारी बल का मूल्यांकन करके गृहसचिव को भेजते हैं, ये बड़ी स्पष्ट परंपरा है। कदाचित इसमें यह हुआ होगा कि पुलिस अधीक्षक में इतना साहस नहीं था कि अपने वरिष्ठ अधिकारियों से इतनी भारी मात्रा में सशस्त्र बल मांगें। इतनी भारी मात्रा में सशस्त्र बल मांगने का यह तात्पर्य है कि या तो आपको अपना कार्य आता नहीं है या फिर इस  प्रकार कार्य कर रहे हैं कि कोई अप्रिय घटना हो जाये, जैसे कोई कहे कि मैंने सशस्त्र बल मांगा, आपने उपलब्ध नहीं कराया, जिसके  परिणामस्वरूप अप्रिय घटना घटित हुई। आप जब वहां पर गए, आपने कोई रणनीति, रण कौशल का परिचय भी नहीं दिया। शाम को गए तो क्या ये उम्मीद कर रहे थे कि जाते ही आपके  संबोधन के उपरांत वे जमीन खाली कर देंगे? ऐसे ऑपरेशन सामान्यत: सुबह होते हैं। दिन के उजाले में कार्रवाई करने का समय मिलता है। आप अत्याधुनिक हथियारों के साथ-साथ पूरे साजोसामान के साथ गए थे, यह सवाल अहम है। वहां पर जो भागमभाग और ऊहापोह की स्थिति थी वह  बिल्कुल  विपरीत थी। यह ऑपरेशन संभवत: योजनाबद्ध तरीके से नहीं हुआ। मैं यह भी नहीं कह रहा हूं कि विगत में हुए सभी ऑपरेशन कामयाब रहे। लेकिन असफलता से हम सबक सीख सकते हैं।
कम से कम यह शहादत एक बात तो इंगित करती है कि 'फ्रंट लाइन लीडरशिप' आगे थी। पर आपकी रणनीति, युद्ध कौशल, आपके उपकरण और बाकी कार्ययोजना पर प्रकाश डालने की आवश्यकता है। इन सभी विषयों पर पुलिस को चिंतन करना होगा। अपने उपकरण को आगे बढ़ाना होगा। बताया जाता है कि रामवृक्ष ने अत्याधुनिक हथियारों से गोली चलाई। तो क्या पहले यह आवश्यक नहीं था कि आप अत्याधुनिक हथियारों को निष्क्रिय करते? उसके बाद अगर आपको मालूम था कि वे हथियार के साथ हैं तो क्या ये जरूरी नहीं था कि बुलेटप्रूफ गाडि़यों से आगे बढ़ते? अगर बुलेटपू्रफ गाडि़यों से आगे बढ़ते तो कदाचित इसको रोका जा सकता था। जो गलतियां इस बार हुई हैं, उनकी पुनरावृत्ति न हो, इसके लिए ठोस कार्रवाई, चिंतन और कार्ययोजना की आवश्यकता है। इसके अलावा ये देखें कि इतनी बड़ी घटना घटी पर डीआइजी रेंज, आइजी जोन, ये क्यों नहीं आए? एडीजी (कानून एवं व्यवस्था) तो आए लेकिन मैं नहीं समझता कि इसमें डीआइजी और आइजी के न आने का कोई औचित्य है। ऐसे मौके  पर इनको आना ही चाहिए था। न आना एक नकारात्मक संदेश देता है।  पुलिस बल नेतृत्व के निर्देश से चलता है और उनका घटनास्थल पर उपस्थित न होना, परिपक्व मार्गदर्शन न करना यह नेतृत्व का अभाव दर्शाता है। मैं समझता हूं कि पुलिस अधिकारियों को प्रशिक्षण की आवश्यकता है। इसमें सबसे पहले अपना स्वास्थ्य, रक्तचाप, अपने उपकरणों का संचालन, हथियार का प्रयोग, अच्छे उपकरण, आधुनिक हथियारों से सुसज्जित होना, वज्र वाहन को 'अपग्रेड' करने की आवश्यकता है। अधिकांश पुलिस बल के पास अभी ये संसाधन उपलब्ध नहीं हैं। सरकार की ओर से आधुनिकीकरण के लिए जो धनराशि आवंटित की जाती है वह आपको फोटो कॉपी और कम्प्यूटर खरीदने के लिए दी जाती है जो आधुनिकरण में शामिल नहीं होता है। आधुनिकरण में अच्छे वाहन, अच्छे आईटी सेलमैन, अच्छे हथियार, ये आधुनिकीकरण हुआ। घटना के बाद उम्मीद की जाती है कि न केवल उत्तर प्रदेश पुलिस बल बल्कि सभी सशस्त्र सैन्य बल और अन्य पुलिस बल इस पर चिंतन करेंगे।
(लेखक उत्तर प्रदेश के पूर्व पुलिस
महानिदेशक रहे हैं) 

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