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पाकिस्तान में बौखलाहटआतंक के विरुद्ध गठबंधन की फांस

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Jun 6, 2016, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 06 Jun 2016 13:28:04

 

 

अफगानिस्तान में शांति कायम करने की अमेरिकी कोशिशों में पाकिस्तान और तालिबान के लगातार दखल से हिंसा भड़कने के आसार 

 प्रशांत बाजपेई

ड्रोन ने फिर निशाना साधा है। दस महीने पहले चुने गये मुल्ला उमर के उत्तराधिकारी तालिबान प्रमुख  मुल्ला अख्तर मुहम्मद मंसूर को पाकिस्तान की सीमा के अंदर क्वेटा के पास ढूंढकर मारा जा चुका है। पाकिस्तान को सात घंटे बाद इस हमले की जानकारी दी गई। ये मानवरहित टोही लड़ाकू विमान मध्ययुगीन तालिबान के लिए उनका शिकार करने पर आमादा बाज हैं। लहूलुहान अफगान सुरक्षा बलों के लिए ये शांति का संदेश देते सफेद कबूतर हैं। पाकिस्तानी फौज के लिए ये आसमान में स्थित ऐसी आंख है जो जब-जब आग उगलती है, उसकी बदनामी में एक नया सफा जुड़ जाता है। अफगानिस्तान और पाक के फाटा में जारी ड्रोन के ऑपरेशन रावलपिंडी वालों के खिलाफ  स्टिंग ऑपरेशन साबित हो रहे हैं। अमरीका के लिए यह खिंचता ही चला जा रहा चूहे-बिल्ली का खेल है। पाकिस्तान की राजनीति में ड्रोन एक बड़ा सियासी मुद्दा है कि आखिरकार इस्लाम का परचम उठाए जिहादी अगर पाकिस्तान के अंदर ही ढूंढकर जिहादियों को अगर तो इस्लाम का झंडा कैसे बुलंद होगा? कूटनीतिक भाषा में पाकिस्तानी कुलीन वर्ग इसे पाकिस्तान की संप्रभुता का मामला कहता है। अफगानिस्तान में चल रही ये उठा-पटक  भारत के लिए भी कम महत्व की नहीं है, क्योंकि राष्ट्रीय सुरक्षा के मोर्चे सिर्फ सीमा पर नहीं होते बल्कि वह हर ठिकाना मोर्चा होता है जहां देश के खिलाफ साजिश रची जाती है।

याद रहे कि अफगानिस्तान पर अपने पिट्ठू बर्बर तालिबान का कब्जा होने के बाद पाकिस्तानी फौज ने कश्मीरी मुजाहिदीनों के ट्रेनिंग कैंप अफगानिस्तान में स्थानांतरित कर दिए थे ताकि कश्मीरी जिहाद को अंतरराष्ट्रीय आतंक के साथ जोड़ा जा सके और इल्जाम भी न लगे। इसी दौरान आईएसआई के इशारे पर अपहृत भारतीय विमान आईसी 814 हफ्ते भर कंधार हवाई अड्डे में सशस्त्र तालिबानियों के सुरक्षा घेरे में खड़ा रहा पर तालिबान सरकार ने भारत को आतंकियों के विरुद्ध कमांडो कार्रवाही नहीं करने दी और भारत को अपने  175 नागरिकों की जान के बदले आतंकियों को रिहा करना पड़ा। कश्मीर आज भी तालिबानियों और उनकी अभिभावक पाक फौज की प्राथमिकता सूची में शीर्ष पर है।

पिछले दो-तीन साल से अफगानिस्तान अखबारों में दो ही मौकों पर जगह बनाता आ रहा है, एक, जगह-जगह हो रहे आतंकी हमलों के कारण और दूसरा, अफगान सरकार और तालिबान के बीच शांति वार्ता की अटकलों के चलते । मुहम्मद मंसूर की मौत पर राष्ट्रपति ओबामा ने वियतनाम में कहा, ''मंसूर अफगान सरकार द्वारा किये जा रहे शांति प्रयासों और अनगिनत बच्चों, महिलाओं और पुरुषों की जान ले चुकी हिंसा को समाप्त करने की कोशिशों को ठुकरा रहा था।'' अफगानिस्तान की बहुचर्चित शांति वार्ता का हाल ये है कि पहला पग भी नहीं रखा जा सका है। शुरुआती बातें जैसे कि, किस स्तर के व्यक्ति से किस ओहदे का व्यक्ति बात करेगा, बातचीत का मुद्दा क्या होगा, बातचीत के लिए पूर्ण युद्धविराम, राजनैतिक बंदियों की रिहाई आदि भी लटकी हुई हैं। कहने को अफगानिस्तान, पाकिस्तान, चीन और अमेरिका का चतुष्कोण इस वार्ता को संभव बनाने के लिए काम कर रहा है लेकिन अमेरिका और अफगानिस्तान सरकार में ही इसके लिए वास्तविक इच्छा दिखती है।  दो बड़ी पड़ोसी ताकतों ईरान और रूस को इस खेल से बाहर रखा गया है। पर ज्यादातर तालिबान समूह बातचीत के लिए अनिच्छुक हैं। गुलबुद्दीन हिकमतयार का महत्वपूर्ण माना जाने वाला हिज्ब-ए-इस्लामी समूह वार्ता के लिए सकारात्मक है परंतु विरोधाभास यह है कि चूंकि बीते सालों में उसके नाखून और दांत कमजोर हो गए हैं इसलिए उसके आने  से खास अंतर नहीं पड़ता। उधर पाकिस्तान, अफगानिस्तान में अपने सामरिक स्वाथोंर् की पूर्ति कर रहा है। हक्कानी समूह आईएसआई के वरदहस्त के नीचे काम करने वाला गिरोह है। सबसे हिंसक हक्कानी समूह के इस्तेमाल से हिंसा कम होने के स्थान पर और बढ़ रही है।

संयुक्त राष्ट्र महासचिव के विशेष अफगान प्रतिनिधि निकोलस हेसम ने पिछले दो साल का खाका सामने रखते हुए बतलाया है कि साल 2014 की तुलना में 2015 में अफगानिस्तान में सुरक्षा संबंधी हालात बदतर हुए और तालिबान उन इलाकों में अपनी पकड़ बढ़ाने में सफल हुआ है  जहां पहले उसकी कोई धमक नहीं थी। तालिबान इस्लामिक अमीरात का बैनर बनाकर खुद को अफगानिस्तान के वास्तविक उत्तराधिकारी के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं, शांति वार्ता में सहयोग करने के लिए वो जो शर्ते रख रहे हैं, उन्हें आप पाकिस्तान की  टीवी बहसों में मौलवियों, दिफा ए पाकिस्तान वालों, जमात ए इस्लामी पाकिस्तान के प्रतिनिधियों, और आईएसआई के मुखौटों के मुंह से भी सुन सकते हैं।

तालिबान के एक समूह के हैंडलर रहे मरहूम हामिद गुल भी ये शर्तें खुलेआम रखते थे। ये मांगें इस प्रकार हैं-तालिबान के युद्धबंदियों को छोड़ा जाए। उनके धन स्रोतों को फिर से निर्बाध किया जाए और अमेरिका के नेतृत्व में कार्रवाई कर रही सेनाएं अफगानिस्तान से बाहर निकल जाएं।  तालिबान अमेरिका से इस संबंध में समय सीमा तय करने के लिए सीधी बात करना चाहता है। जाहिर है कि ये शर्तें मान्य नहीं हो सकतीं। विद्रूपता ये है कि इन शतोंर् का खाका तालिबान शूरा में नहीं बल्कि पाक फौज के मुख्यालय में तय होता है। पाकिस्तान का सैन्य अधिष्ठान अफगान मुजाहिदीन को आज भी अपना महत्वपूर्ण सैन्य औजार मानता है। जनरल राहिल शरीफ के पूर्ववर्ती जनरल अश्फाक कियानी का इस संबंध में बयान दस्तावेज बन चुका है।

 

अफगान तालिबान को पाकिस्तान ने अपने उत्तर-पूर्वी सीमांत में पनाह दे रखी है। पेशावर उनका महत्वपूर्ण ठिकाना है। पाक फौज के प्रसिद्ध ऑपरेशन जर्ब-ए-अज्ब के नाम पर भी केवल उजड्ड चेचेन तथा उज्बेक जिहादियों और तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटी पी) के पदातियों को अनुशासन में लाने की कोशिश की गई। पर अफगान तालिबान को छुआ तक नहीं गया। दिसंबर 2014 में जब पेशावर के एक सैनिक विद्यालय पर तहरीक- ए-तालिबान ने हमला कर 132 छात्रों की हत्या कर दी तब भी शोर मचा कि अब राहिल शरीफ आर-पार की लड़ाई लड़ने का मन बना चुके हैं और आतंकी बख्शे नहीं जाएंगे, लेकिन कुछ नहीं हुआ। आखिर टीटीपी बलूचों, शियाओं और एमक्यूएम को नियंत्रण में रखने के काम आता है।

न तो अमेरिका, न ही अफगानिस्तान पाक पर भरोसा करते हैं। आखिरकार उनके जानी दुश्मन  लादेन और मुल्ला उमर दोनों पाकिस्तान में ही छिपे पाए गए थे। परंतु तालिबान पर आईएसआई की पकड़ के चलते पाकिस्तान इस गठबंधन की आवश्यक बुराई बना हुआ है।  शह और मात के इस खेल में अमेरिका मोहरों को पीट कर बाजी उलटना चाहता है। तालिबान ने भी आनन-फानन में हैबतुल्ला अखुंदजादा को नया अमीर बना दिया है ताकि वर्चस्व की लड़ाई न भड़कने पाए। लेकिन यह बेहद कठिन उम्मीद  है। अफगानिस्तान को शांति के लिए अभी और इंतजार करना होगा। वतन लौटने की आस लगाए, अफगानिस्तान में तैनात अमेरिकी सैनिकों की प्रतीक्षा फिलहाल समाप्त होती नहीं दिखती।      

तनाव, संघर्ष और राजनीति की बिसात

''मुझे नहीं लगता कि निकट भविष्य में शांति वार्ता होने जा रही है। ''
– बराक ओबामा, टी-7 शिखर वार्ता, जापान
वार्ता विरोधी, पाक फौज समर्थित तालिबान प्रमुख मुल्ला अख्तर मंसूर को अमेरिकी ड्रोन ने मौत के घाट उतारा।
तालिबान के गढ़ बने बलूचिस्तान में चुपचाप अमेरिकी कार्रवाई। अचकचाया पाकिस्तान।
2015 में तालिबान का प्रमुख बनाए जाने के बाद मुल्ला अख्तर मंसूर ने शांति वार्ता के लिए तैयार तालिबानियों को बेरहमी से कुचला था।
उसने पाक परस्त हिंसक हक्कानी समूह को तालिबान में दूसरे क्रमांक की हैसियत दी । फलस्वरूप आने वाले दिनों में अफगानिस्तान के एक तिहाई शहरों पर तालिबान का कब्जा।
पाकिस्तान की कथनी और करनी के अंतर की एक और मिसाल। आज भी तालिबान और हक्कानी समूह को आईएसआई द्वारा चोरी छिपे रसद आपूर्ति जारी।
मंसूर की मौत के बाद नए सिरे से लड़ाई भड़कने की आशंका। अल कायदा वार्ता विरोधियों के साथ।
शांति वार्ता के लिए बना पाक-अमरीका-अफगान – चीन गठजोड़ बेअसर। बाहर रखे गए ईरान और रूस अपने स्तर पर तालिबान से संबंध साधने में जुटे।
पाकिस्तान ने ड्रोन हमले को अपनी संप्रभुता पर हमला बताया। कहा, साजिश के पीछे भारत।
1979 से आज तक युद्धग्रस्त अफगानिस्तान की स्थिति को लेकर सब तरफ अनिश्चितता। अफगानिस्तान से न निकल पाने को लेकर ओबामा की बढ़ती बेचेनी।
तालिबान के नए अमीर हैबतुल्ला अखुंदजादा ने शांति वार्ता की पेशकश ठुकराई।

 

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