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मंदिरों में भेदभाव की इक्का-दुक्का खबरें आती तो हैं किन्तु मंदिरों में जाति के आधार पर भेदभाव अपवाद ही है। आस्था के साथ सामाजिक समरसता के इन केन्द्रों का उजला पक्ष अन्य मत पंथों के लिए भी उदाहरण
अश्वनी मिश्र
तिरुपति बालाजी मंदिर में जाएं या काशी विश्वनाथ, गौरीशंकर के दर्शन करें या कोलकाता में दक्षिणेश्वर के। कहीं कोई भेदाभेद, कोई जात-पात कोई पूछताछ नहीं। दर्शन की पंक्ति में सब साथ-साथ। कोई बड़ा आगे या छोटा पीछे नहीं। मंदिर में प्रसाद की पांत में सब हिल-मिलकर बैठते हैं। न अगल वाला बगल वाले का अगड़ा पिछड़ा देखता है, न बगल वाला अगले वाले पर भौंहें तरेरता है। ऐसे हैं हमारे मंदिर। और ऐसी है मंदिरों की परंपरा। बांके बिहारी मंदिर,वृंदावन के सेवायत बाल कृष्ण गोस्वामी कहते हैं,''…पूरे आस्थावान समाज को समानता से स्थान देती यह परंपरा ऐसी है जो अन्य प्रार्थना स्थलों के लिए भी अनुकरणीय हो सकती है। ''
वे कहते हैं, ''हालांकि कुछ मंदिरों में भेदभाव की जो घटनाएं प्रकाश में आईं, वे किसी के व्यक्तिगत स्वामित्व में थे या फिर किसी ट्रस्ट या संस्था के जहां उनके बनाए हुए नियम चल रहे थे। लेकिन सेकुलर मीडिया और कथित वामपंथियों ने ऐसा माहौल तैयार किया कि भारत के मंदिरों में जाति और नस्ल के आधार पर भेदभाव होता है। पर सचाई इससे इतर है…।'' रायपुर की अर्पणा पंचेती एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं। उनका अधिकतर समय यात्रा में ही गुजरता है। वे जहां भी जाती हैं, वहां के प्रमुख धार्मिक स्थलों के दर्शन करती ही हैं। हाल ही में वे कर्नाटक के धर्मस्थल मंजूनाथ मंदिर गई थीं। उनसे यह पूछने पर कि आप धार्मिक स्थलों पर जाती रहती हैं, क्या आपको कभी ऐसा दिखा कि वहां पर किसी जाति,मत-पंथ,वर्ण के नाम पर किसी भी तरह का कोई भेदभाव किया जाता हो? उनका कहना था, ''मैं देश के कई प्रमुख धार्मिक स्थलों पर गई पर मुझे तो इस तरह की कोई बात देखने को नहीं मिली। हजारों की संख्या में श्रद्धालु आते हैं, कोई उनसे न जाति पूछता है और न ही वर्ण। जो भी इस तरह की बातें करते हैं, उनका सिर्फ एक ही मकसद है सनातन धर्म को बदनाम करना।''
ओडिशा का जगन्नाथपुरी मंदिर, आन्ध्र प्रदेश का तिरुपति बालाजी, कर्नाटक का धर्मस्थल मंजू नाथ मंदिर और राजस्थान का श्रीनाथ मंदिर, ये कुछ ऐसे मंदिर हैं जहां दर्शन के लिए श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है। यहां कोई किसी से नहीं पूछता कि कौन किस जाति से है। इन मंदिरों में श्रद्धालुओं को नि:शुल्क भोजन कराने का पुनीत कार्य निरंतर होता है। खास बात यह है कि यहां सभी साथ बैठकर महाप्रसाद ग्रहण करते हैं। किसी भी तरह का 'स्पर्शा: स्पर्श' का कोई भेदभाव नहीं होता।
हाल ही में 'हिन्दुओं के आस्था केन्द्रों में अस्पृश्यता और भेदभाव के मिथ्या आरोपों पर राजस्थान के सुप्रसिद्ध श्रीनाथ मंदिर के मुख्य परिचायक गोस्वामी विशाल बाबा ने कहा, ''श्री कृष्ण का नाम घनश्याम है। घन का अर्थ बादल होता है और बादल जब बरसता है तो वह न महल देखता है और न झोंपड़ी। सब पर उसकी फुहारें पड़ती हैं। तो कहने का अर्थ हुआ कि मंदिर में किसी के साथ कोई भेदभाव नहीं होता। किसी के लिए यहां कोई रोक नहीं है। श्रीनाथ मंदिर में मुगल बादशाह अकबर भी दर्शन करने के लिए आया था।'' वे बताते हैं,''पुष्टि संप्रदाय कहता है कि आप किसी भी जाति या नस्ल के हों, अगर आपने कृष्ण की कंठी धारण कर ली तो फिर आप कुछ भी हों, कोई फर्क नहीं पड़ता। आपके मन में प्रभु के प्रति प्रेम और आस्था होनी चाहिए। कुछ लोग हैं जो हिन्दू मंदिरों और आस्था केन्द्रों के बारे में भ्रामक बातें फैलाकर सनातन धर्म को बदनाम करने की साजिश रचते हैं। समाज को चाहिए कि वह ऐसे लोगांे से सचेत रहे और उनकी बात को मानने से पहले जांच-परख जरूर करे।'' मंदिर में श्रद्धालुओं के प्रसाद के बारे में बाबा बताते हैं, ''मंदिर के अपने कुछ नियम होते हैं। आप कोई भी संस्था या घर ही ले लें, बिना नियम के नहीं चलता। तो अगर किसी मंदिर ने अपने कुछ नियम बनाये हैं तो श्रद्धालुओं को चाहिए कि वे उसका पालन करें। यहां पर भी गोसाईं जी ने एक नियम बनाया था, जो आज भी उसी प्रकार चला आ रहा है। कृष्ण जी को भोग में सकड़ी (दाल-चावल, सब्जी-रोटी) और अनसकड़ी, (लड्डू, मठरी, मोंग थाल) का प्रसाद चढ़ाया जाता है। यहां आने वाले प्रत्येक श्रद्धालु को बिना किसी भेदभाव के समान रूप से यह प्रसाद दिया जाता है। असल में कुछ लोगों का काम ही है सनातन धर्म को बदनाम करना तो वे अपना काम करते रहते हैं, हम सभी को अपना काम करते हुए धर्म की रक्षा करनी है। ''
हाल ही में देश के कुछ मंदिरों में प्रवेश और उनके कायदे-कानून को लेकर जो हल्ला मचाया गया, वह वामपंथी और सेकुलर मीडिया के शरारती दिमाग की उपज थी। ऐसे लोगों को एक मात्र मकसद यह है कि हिन्दू समाज को तोड़ो, जाति की खाई को और चौड़ा करो और ऐसा माहौल तैयार कर दो कि खुद हिन्दू ही अपने आस्था केन्द्रों के खिलाफ खड़े होकर विरोध करने लगें।
कर्नाटक के दक्षिण में एक हजार वर्ष पुराना धर्मस्थल मंजूनाथ मंदिर है। यहां पर प्रतिदिन 50 हजार से भी ज्यादा भक्त दर्शन करने के लिए आते है। अस्पृश्यता और जातीय भेदभाव पर धर्मस्थला मंजूनाथ मंदिर से जुड़े राधाकृष्ण बल्लभ कहते हैं, ''जो लोग हिन्दुओं के मंदिरों में अस्पृश्यता और वर्ण, जाति के नाम पर जहर घोलते हैं, उन्हें एक बार यहां आकर जरूर देखना चाहिए। सामाजिक समरसता का इससे बड़ा और उदाहरण क्या हो सकता है कि मंदिर प्रबंधन की ओर से एक साथ लगभग 2500 लोग बैठकर भोजन करते हैं। इसमें कौन क्या है, क्या मतलब। सभी भगवान के भक्त हैं बस यही उनकी पहचान होती है। यह सब मिथ्या बातें बाहरी दुनिया में होती हैं, भगवान के दरबार में नहीं।'' उल्लेखनीय है कि धर्मस्थला मंजूनाथ मंदिर जनसहभागिता से शिक्षा, स्वास्थ्य व अन्य क्षेत्रों में गरीब व असहाय बच्चों को सशक्त बनाने के लिए भी कार्य करता है।
ऐसे ही आन्ध्र प्रदेश के चित्तूर जिले में तिरुपति वेंकटेश्वर मंदिर है जो विश्वविख्यात धार्मिक स्थल है। प्रतिदिन लाखों की तादाद में श्रद्धालु यहां दर्शन करने आते हैं। हाल ही में मंदिर के दर्शन कर लौटे रत्नेश वर्मा कहते हैं, ''हजारों की संख्या में एक साथ सभी लोग भगवान के दर्शन करते हैं तो लगता है कि काश ऐसा बाहर का भी नजारा होता। कोई भेदभाव नहीं, कोई जाति नहीं, कोई ऊंच-नीच की भावना नहीं। यहां का अन्न प्रसाद जहां हर दिन लाखों भक्त एक साथ बैठकर करते हैं। इससे बढ़कर समरसता का उदाहरण क्या हो सकता है।''
ये तो कुछ ही मंदिरों के उदाहरण हैं, सामाजिक समरसता का संदेश इन मंदिरों का ऐसा प्रसाद है जिसे ग्रहण करने में किसी अन्य प्रार्थना स्थल को भी परहेज नहीं होना चाहिए।
जो लोग हिन्दुओं के मंदिरों में अस्पृश्यता और वर्ण, जाति के नाम पर जहर घोलते हैं, उन्हें एक बार यहां आकर जरूर देखना चाहिए। सामाजिक समरसता का इससे बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता है कि मंदिर प्रांगण में एक साथ लगभग 2500 लोग बैठकर भोजन करते हैं। इसमें कौन क्या है, क्या मतलब। — राधाकृष्ण बल्लभ
श्री कृष्ण का नाम घनश्याम है। घन का अर्थ बादल होता है और बादल जब बरसता है तो वह न महल देखता है और न झोंपड़ी। सब पर उसकी फुहारें पड़ती हैं। कहने का अर्थ हुआ कि मंदिर में किसी के साथ कोई भेदभाव नहीं होता। किसी के लिए यहां कोई रोक नहीं है।
— गोस्वामी विशाल बाबा,श्रीनाथ मंदिर
विश्व की सबसे बड़ी रसोई
चार धामों में से एक जगन्नाथ पुरी आपनी महिमा और सौंदर्य के लिए जगत विख्यात है। प्रतिदिन लाखों भक्त भगवान दर्शन के लिए आते हैं। एक बड़ा आकर्षण यहां की रसोई है। यह विश्व की सबसे बड़ी रसोई के रूप में जानी जाती है, जो मंदिर की दक्षिण पूर्व दिशा में स्थित है। इस रसोई में भगवान के लिए भोग तैयार किया जाता है। रसोई में भगवान को चढ़ाने वाले महाप्रसाद को तैयार करने के लिए लगभग 500 रसोइये तथा उनके 300 सहयोगी काम करते हैं। भोग मिट्टी के वर्तनों में बनता है। रसोई में 56 प्रकार के व्यंजन बनाए जाते हैं। रसोई में पकाने के लिए भोजन की मात्रा पूरे वर्ष के लिए रहती है। कितने भी लोगों को खिला लें इसी अन्न से काम चल जाता है, ऐसा यहां के पंडों का मानना है। प्रतिदिन मंदिर में 30-40 हजार से भी अधिक लोग भोजन करते हैं और रथ यात्रा के समय यह संख्या एक लाख के पार भी हो जाती है। खास बात यह है कि यहां पर किसी भी प्रकार का कोई भेदभाव नहीं होता। हजारों दर्शनार्थी महाप्रसाद को एक साथ बैठ कर पाते हैं। अब ऐसे में जो लोग हिन्दुओं के आस्था केन्द्रों में भेदभाव या अस्पृश्यता जैसे झूठे आरोप लगाते हैं, उन्हें क्या ये सब दिखाई नहीं देता।
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