सिंधु-सरस्वती सभ्यतायंू बढ़ी शोधयात्रा डॉ. रत्नेश त्रिपाठी
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सिंधु-सरस्वती सभ्यतायंू बढ़ी शोधयात्रा डॉ. रत्नेश त्रिपाठी

by
Jun 6, 2016, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 06 Jun 2016 12:52:23

वर्तमान युग में सरस्वती की तरफ शोधकर्ताओं का ध्यान आकर्षित करने का मुख्य श्रेय भारतीय सर्वेक्षण विभाग के सी.एफ़ ओल्डहम तथा आऱ डी़ ओल्डहम नामक दो अंग्रेज पदाधिकारियों को जाता है। सन् 1874 में सी.एफ़ ओल्डहम ने पहली बार थार के रेगिस्तान में विलुप्त नदी के प्राचीन प्रवाह मार्ग का विवरण प्रस्तुत किया है। कालान्तर में ओल्डहम ने सन् 1893 में इस विलुप्त नदी को ऋग्वेद में वर्णित सरस्वती बताया। इसके बाद बहुत वषार्ें तक इसके बारे में कोई शोध व सर्वेक्षण कार्य नहीं हुआ। फिर इस विषय को सन् 1931 में पुरातत्वविद् मार्शल ने सारस्वत घाटी में स्थित हड़प्पा काल के पूर्व और उत्तर कालीन पुरास्थलों की खोज कर आगे बढ़ाया। इसके बाद स्टाइन ने सन् 1942 में हड़प्पा काल की सभी बस्तियों को घग्घर तथा सरस्वती के पुरा प्रवाह मार्ग से जोड़ा। स्टाइन के अनुसार घग्घर तथा हाकड़ा पुरा प्रवाह मार्ग विलुत सरस्वती का ही प्राचीन प्रवाह मार्ग था। डॉ. कृष्णन ने सन् 1952 में प्रकाशित शोध पत्र में सरस्वती को 5000 ईसा पूर्व की एक विशाल नदी बताया है। ऋग्वैदिक नदी सरस्वती की वर्तमान खोज से भारतीय इतिहास को सही परिपे्रक्ष्य में समझने का आधार प्राप्त हुआ है। अखिल भारतीय इतिहास संकलन योजना ने इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। स्वर्गीय विष्णु श्रीधर वाकणकर ने 1983 में अपनी इतिहास संकलन योजना के अन्तर्गत सरस्वती शोध प्रकल्प की रचना की। वाकणकर जी ने इस प्रकल्प को मूर्तरूप प्रदान करने के लिए देश के कुछ विद्वानों को साथ लेकर सरस्वती शोध अभियान का श्रीगणेश किया। 19 नवम्बर, 1985 को उन्होंने अपनी शोध यात्रा का आरंभ हरियाणा के आदिबद्री से किया।
उल्लेखनीय है कि आदिबद्री से ही सरस्वती मैदान में प्रकट होती है। इसके बाद वाकणकर जी पश्चिमी राजस्थान होते हुए 20 दिसम्बर, 1985 को लगभग 4,000 किमी की यात्रा पूरी करते हुए गुजरात के प्रभास पाटन पहंुचे। प्रभास पाटन सरस्वती का समुद्र संगम माना जाता है। इस यात्रा के दौरान सरस्वती के सूखे जलमागार्ें का भौतिक सर्वेक्षण तथा इसके किनारों पर बसी प्राचीन बस्तियों का स्थलीय अध्ययन भी किया गया।
1988 में वाकणकर जी के निधन के बाद श्री मोरोपन्त पिंगले ने सरस्वती शोध अभियान को नेतृत्व प्रदान किया। कुशल संगठनकर्ता होने के नाते उन्होंने सरस्वती शोध अभियान को दृढ़ता प्रदान की। उन्होंने दो बार आदिबद्री से प्रभास पाटन तक की यात्रा की। उन्हीं की प्रेरणा से हरियाणा, राजस्थान व गुजरात में प्रादेशिक स्तर पर सरस्वती शोध संस्थानों का विधिवत गठन किया गया। सरस्वती प्रवाह मार्ग को चिन्हित करने का महत्वपूर्ण कार्य भारतीय अन्तरिक्ष अनुसंधान संगठन, जोधपुर स्थित क्षेत्रीय सुदूर संवेदनशील सेवा केन्द्र ने 8 वर्ष तक सतत प्रयासरत रहकर भू-उपग्रह छाया चित्रों का विश्लेषण करके किया। इसके परिणामस्वरूप गुजरात में कच्छ के रण से लेकर हरियाणा में आदिबद्री तक का सरस्वती प्रवाह मार्ग का पहला विस्तृत मानचित्र प्रकाश में आया।
सरस्वती नदी का प्रवाह मार्ग है आदिबद्री, पेहोवा, सिरसा, हनुमानगढ़, सूरतगढ़, अनूपगढ़, मरोट, किशनगढ़, तनोट, घोटारु, शाहगढ़, इनके आस-पास के पाकिस्तान का बहावलपुर सिंध प्रदेश और कच्छ का रण।
(लेखक ने सरस्वती नदी पर शोध करके पी.एचडी. की उपाधि प्राप्त की है और वर्तमान में दिल्ली के सत्यवती कॉलेज में इतिहास के प्राध्यापक हैं)

 

 

 

 

 

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