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यह न तो उचित है, ना सार्थक कि किसी सरकार के पांच वर्ष का कार्यकाल संपन्न होने से पहले महज दो साल पर ही उसका मूल्यांकन किया जाए । सत्तारूढ़ नेतृत्व ने संभवत: दो कारणों को ध्यान में रखते हुए इतनी योजनाएं और कार्यक्रम शुरू किए होंगे। पहला, एक ऊंघते शासन की तंद्रा तोड़कर उसे सुस्ती और जड़ता से बाहर निकालना। दूसरा, शुरुआती दो वर्षों में ढेर सारी योजनाएं शुरू करने का उद्देश्य यह रहा होगा कि तीसरे और चौथे साल में इनके सकारात्मक नतीजे आने शुरू हो जाएं।
अपनी अथक ऊर्जा और श्रमसाध्य दिनचर्या के साथ प्रधानमंत्री मोदी ने संभवत: यह लक्ष्य साध रखा होगा कि 2018 तक अर्थव्यवस्था में जबरदस्त सुधार करते हुए एक सशक्त दौर का आगाज किया जाए, ताकि 2019 में होने वाले लोकसभा चुनावों के दौरान दूसरा कार्यकाल जीतने का मंच तैयार किया जा सके। जाहिर है, आने वाले दो साल मोदी सरकार के लिए सबसे व्यस्त होंगे। चंद लोग व्यंग्य से इसे 'जरूरत से ज्यादा व्यस्त' भी कह सकते हैं। अगर 50 फीसद योजनाएं अपने घोषित लक्ष्य का 50 फीसद भी हासिल कर लें तो मैं कहूंगा कि नि:संंदेह यह पांच साल की अवधि में हासिल की गई अभूतपूर्व प्रगति होगी। उदाहरण के लिए अगर सभी सब्सिडी जेएएम (जन धन योजना, आधार, मोबाइल नंबर) के जरिए हस्तांतरित होती हैं, जैसा कि पहले ही मिट्टी तेल और रसोई गैस के लिए किया जा चुका है, तो इससे बचत में इजाफा तो होगा ही और सब्सिडी राशि का दुरुपयोग भी रुक जाएगा। इसलिए, मोदी के प्रधानमंत्री पद पर विराजमान होते ही अगर पहले 18 महीनों में लगभग हर महीने एक नई योजना की अतिउत्साही घोषणा की गई तो उसके पीछे जरूर एक विधिवत नीति होगी।
हालांकि, इन दो वषोंर् में सबसे बड़ी हैरानी इस बात की है कि सरकार जनता को अपने उद्देश्य और कार्य की प्रगति के संबंध में सही जानकारी देने में विफल रही। लेकिन अब दो साल के बाद तीन महत्वपूर्ण मुद्दों पर सुधार की जरूरत नजर आ रही है। पहला, ठोस कदम उठाते हुए यह सुनिश्चित करना है कि ये सभी योजनाएं जल्द से जल्द परिणाम दिखाना शुरू कर दें। अगर कानपुर के चमड़े के कारखाने का कचरा अब भी गंगा में गिरता रहा और दिल्ली से सटी संभावली चीनी मिल का दूषित पानी नदी में पहले की तरह ही बहता रहा तो नमामि गंगे सरकार के लिए उपहास का सबब बन जाएगी।
दूसरा, विकास का बिगुल थामे सत्ता में आए मोदी की नीति दरअसल बिना हस्तक्षेप शासन में सुधार और मौजूदा योजनाओं का अधिक से अधिक लाभ उठाने की थी। हालांकि, विकासकारी परिवर्तन निवेशकों को आकर्षित करने या एक संभावित आर्थिक सुधार के संबंध में देशवासियों को उत्साहित करने के लिए पर्याप्त नहीं रहा। ज्यादातर लोग यही मानते हैं कि कारोबार जस का तस है और परिणाम अब भी अनिश्चित। इसमें तत्काल बदलाव की जरूरत है। इस विकासकारी दृष्टिकोण को कृषि, निर्यात, शिक्षा, स्वास्थ्य और परिवहन जैसे कुछ महत्वपूर्ण क्षेत्रों में निर्भीक संरचनात्मक सुधारों के साथ समन्वित करना होगा, क्योंकि इन क्षेत्रों में हमेशा जरूरत बनी रहेगी। दोहरे अंक की विकास दर हासिल करने का यही एकमात्र उपाय है।
तीसरी और शायद सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि प्रधानमंत्री बेशक अपनी नीतियों को पूर्णत: रोजगार बढ़ाने पर केंद्रित न भी करें, लेकिन इसे प्रमुखता तो देनी ही होगी। एक ऐसा आर्थिक विकास जो पर्याप्त संख्या में रोजगार उपलब्ध न करा सके, विशाल युवा आबादी की हमारी ताकत को हताश कर देगा। पढ़ाई पूरी करने के बाद नौकरी की तलाश में बाजार में प्रवेश करने वालों के लिए भारत को हर महीने एक लाख नए रोजगार के अवसर पैदा करने होंगे। यह एक बहुत बड़ा काम है।
अब प्रधानमंत्री मोदी को सशक्त रूप से यह संदेश देना होगा कि अतिरिक्त रोजगार उपलब्ध कराना ही उनके मंत्रियों और वरिष्ठ नौकरशाही के प्रदर्शन को आंकने की कसौटी होगी। -राजीव कुमार-
(लेखक पहल इंडिया फाउंडेशन के संस्थापक निदेशक हैं)
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