पढ़े-लिखों का जिहाद
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पढ़े-लिखों का जिहाद

by
May 30, 2016, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 30 May 2016 15:11:53

जिहादी आतंकवाद अशिक्षा का परिणाम नहीं, बल्कि कट्टरवाद की लगातार खुराक का परिणाम है, जो गैर-मुसलमानों के विरुद्ध नफ़रत से भरे जंगजुओं की औद्योगिक स्तर पर पैदाइश कर रही है

प्रशांत बाजपेई  
इस्लाम कबूल करो या मरो।  हम तुम्हें जिबह करने आ रहे हैं। इस्लाम को अमन का मजहब कहने वाले झूठ बोलते हैं। इस्लाम एक दिन के लिए भी अमन का मजहब नहीं रहा है।' ये शब्द हैं इस्लामिक स्टेट (आई.एस.) के आतंकवादियों के। पिछले दिनों आई.एस. ने पहली बार भारत को केंद्रित कर एक वीडियो जारी किया है। इसमें भारतीय मुसलमान युवक, जो अब बगदादी के प्यादे हैं, भारत को रक्त में डुबोने की धमकी दे रहे हैं।  एक और मामले को देखें।  ''हमें आज शाम 4 बजे जन्नत में होने वाले अल-इसरा के जलसे में शामिल होना है। हम 50 जिहादी हैं। हमें आज अल्लाह के सामने हाजि़र होना है। मुझे गोली मार दो।'' उत्तरी इराक के मोसुल में आत्मघाती हमला करने वाले इस्लामिक स्टेट के जिहादियों में से एक को पेशमर्गा सैनिकों (कुर्दों के सैनिकों को पेशमर्गा कहते हैं) ने पकड़ लिया तो उसने उन 'काफिरों' को खुद से दूर रहने की चेतावनी  देते हुए यह मांग की।
इसके पहले कि आप  इसे किसी अनपढ़ आदमी का दिमागी फितूर कहें, आपको सऊदी अरब के ह्दय रोग विशेषज्ञ मोशरी अल अंजी की याद दिलाना चाहूंगा जिसने जिहादी आत्मघाती हमले में खुद को उड़ा लिया था। एक अन्य 25 वर्षीय चिकित्सक  फैसल बिन शामन ने अपनी विस्फोटकों से भरी कार को एक सुरक्षा नाके से टकराकर दो दर्जन लोगों को मौत के घाट उतार दिया था। और इस्लामिक स्टेट के ताज़ा वीडियो में भारत की तबाही का ख्वाब देखने वाले अमान टांडेल, फहद शेख और उनके साथी भी अच्छी तरह शिक्षित हैं।
हाल ही में इटली के समाजशास्त्री डिएगो गैम्बेत्ता की 'इंजीनियर्स ऑफ़ जिहाद' नाम से एक किताब आई है। पुस्तक में यह अध्ययन प्रस्तुत किया गया है कि किस प्रकार जिहादियों और इस्लामी कट्टरवादियों में पढ़े-लिखों की संख्या बढ़ रही है। पश्चिमी देशों में से निकल रहे जिहादियों में से 25 प्रतिशत और अरब जगत से निकल रहे जिहादियों में से 46 प्रतिशत विश्वविद्यालयों में पढ़े हैं। यूरोप के उच्च शिक्षित इस्लामी कट्टरवादियों में से 45 प्रतिशत इंजीनियर हैं। जिहाद की तरफ मुड़े चिकित्सकों की संख्या भी आश्चर्यजनक रूप से ज्यादा है। अल कायदा का वर्तमान मुखिया अल जवाहिरी एक शल्य चिकित्सक है।  लादेन इंजीनियर था। अबु बकर अल बगदादी भी उच्च शिक्षित है। बगदादी की बर्बरता में हाथ बंटाने के लिए मुंबई से जाने वाले मुस्लिम युवा भी कॉलेज में तकनीकी शिक्षा प्राप्त कर रहे थे।
सिमी और इंडियन मुजाहिदीन के आतंकी भी प्राय: कॉलेज शिक्षित हैं। भारत से इस्लामिक स्टेट के लिए भर्तियां करते हुए कुछ लोगों को राष्ट्रीय जांच एजेंसी ने गिरफ्तार किया, जिनमें से एक 46 वर्षीय अब्दुल अहद है। अब्दुल ने अमरीका के कैनेडी-वेस्टर्न विश्वविद्यालय, कैलफोर्निया से स्नातकोत्तर की उपाधि ली है। सब मध्यमवर्गीय परिवारों से हैं। 33 वर्षीय मुदब्बिर शेख एक आईटी फर्म के लिए काम करता था। निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि जिहादी इस्लाम और जिहादी आतंकवाद अशिक्षा का परिणाम नहीं, बल्कि एक विशेष प्रकार की लगातार कट्टरवादी खुराक का परिणाम है, जो गैर-मुसलमानों के विरुद्ध नफ़रत और खून की प्यास से भरे जंगजुओं का पैदाइश  औद्योगिक स्तर पर कर रही है। ऐसे में, भारत में भी, खारिजियों (इस्लाम से बाहर करने वाले) की बढ़ती जमात, वअजीबुल कत्ल ( कत्ल करने योग्य) की लंबी  होती फेहरिस्त, 'काफिरों' के विरुद्ध उबलती घृणा और धरती को दारुल इस्लाम में बदलने की बढ़ती ललक हमें चेता रही है कि सतह के नीचे बारूद सुलग रही है।

भारत की विडम्बना यह है कि इस विषय पर बात करना, यहां तक कि इस ओर इंगित करना भी निषिद्ध हो गया है। आज़ाद भारत में अल्पसंख्यकवाद ऐसा सिर चढ़कर बोलने लगा कि जहां प्रचलित हिंदू परंपरा के दोषों पर चोट करना (जो कहीं उचित था तो कहीं हद से ज्यादा पूर्वाग्रहग्रस्त अथवा अतिरेकी रहा ) तो प्रगतिशीलता की निशानी माना गया, लेकिन सेमेटिक सोच के विश्लेषण को  घोर दुस्साहस और दुर्भावनापूर्ण निरूपित किया गया। परिणामस्वरूप भारत में जिहादी आतंकवाद की समस्या पर हमारे पास कोई ठोस अध्ययन नहीं है। इसके विपरीत पाकिस्तान में, जहां सर्वशक्तिमान फौजी इस्टैब्लिशमेंट स्वयं जिहाद का पोषण -संरक्षण करता है, कई लेखकों और शोधार्थियों ने उपयोगी और साहसपूर्ण विश्लेषण प्रस्तुत किये हैं। भारत और पाकिस्तान की राजनैतिक परिस्थितियां बिलकुल भिन्न हैं, लेकिन परंपरागत  इस्लाम का स्वरूप एक होने के कारण तथा पाकिस्तान के पंजाब में समाज के वहाबीकरण के कारण सामने आ रही चुनौतियों के मद्देनज़र ये अध्ययन उपयोगी हो सकते हैं। ध्यान रहे कि यहां पर बात अल्लामा इकबाल के 'शिकवा' और 'जवाब-ए -शिकवा ' तथा  मौलाना मौदूदी की विरासत को ध्यान में रखते हुए करनी होगी क्योंकि सीमा के दोनों तरफ दोनों को ही मान्यता प्राप्त है।
मनोवैज्ञानिक और लेखक सोहेल अब्बास  ने अपनी किताब 'प्रॉबिंग द जिहादी माइंडसेट' में 17 से 72 आयुवर्ग के  517 जिहादियों पर एक शोधपूर्ण प्रस्तुति दी है। लगभग आधे जिहादियों का कहना  था कि पास-पड़ोस और नातेदारों के बीच उनका परिवार इस्लाम में ज्यादा गहरा विश्वास रखता था। तिस पर भी, ये जिहादी अपने परिवार में भी सबसे ज्यादा पक्के मुसलमान थे जो अपने परिवार  के सदस्यों  को भी और 'शुद्ध मुसलमान' बनने के लिए प्रेरित करते थे। अधिकांश जिहादी मज़हबी नेताओं द्वारा जिहाद में दीक्षित हुए।   
हाल ही में भारत में हुई गिरफ्तारियों में भी ऐसे अनेक मामले सामने आये, जहां शादी-शुदा बाल-बच्चेदारों ने भी बेहिचक जिहाद का रास्ता चुना।  65़ 5 प्रतिशत जिहादी इस मामले में  स्पष्ट सोच नहीं रखते थे कि लादेन 9/11 के हमलों में शामिल था कि नहीं, लेकिन 74 प्रतिशत इस बात पर स्पष्ट थे कि अमेरिका ने इस्लाम के विनाश के उद्देश्य से अफगानिस्तान पर हमला किया।
भारत में बुद्धिजीवियों के एक बड़े वर्ग को लगता है कि जिहादी आतंक के पनपने की मुख्य वजह समाज में आधुनिकता की कमी है। बात विचारणीय हो सकती है परंतु आधुनिकता की परिभाषा क्या है? क्या आधुनिकता की परिभाषा आधुनिक साधन-संसाधनों से है? क्योंकि साधन संपन्नता तेल पर तैर रहे अरब राष्ट्रों में दुनिया के किसी भी हिस्से से अधिक है। क्या आधुनिकता का अर्थ आधुनिक जीवन शैली से है? यदि हां, तो याद करें  ब्रिटेन की सैली जोन्स उर्फ़ जिहादी ब्राइड और समेंथा लुईस ल्यूथवेट उर्फ़ व्हाइट विडो की, जो पश्चिम के डिस्कोथेक से सीधे जिहाद के कारखाने में पहुंच गईं। जब ये पंक्तियां लिखी जा रही थीं ठीक उसी समय जिहादी ब्राइड ने ट्वीट्स की श्रृंखला जारी कर ब्रिटेन वासियों से सिलसिलेवार बम धमाकों का वादा किया है। ट्वीट्स का सार ये है कि घर से बाहर निकलो तो जान हथेली पर रखकर ही निकलना। यह जिहादी ब्राइड कभी एक रॉक बैंड की मुख्य गिटार वादक हुआ करती थी। एक सर्वेक्षण के मुताबिक़, ब्रिटेन में सेना में जाने वाले मुसलमान युवाओं की तुलना में इस्लामिक स्टेट में भर्ती होने वाले मुसलमान युवकों की संख्या काफी ज्यादा है।
निश्चित रूप से हमारे लिए भी यह आत्मावलोकन का समय है। आखिरकार 17 करोड़ मुरिलम आवादी वाले देश में मुसलमान युवकों को बगदादी की आतंक फैक्ट्री और आईएस की महत्वाकांक्षा का चारा बनने के लिए नहीं छोड़ा जा सकता। जटिल होती इस समस्या पर सभी को जिम्मेदारी के साथ सोचना होगा। लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं होता। बाटला हाउस से संबंध रखने वाला एक आतंकी इस्लामिक स्टेट के ताज़ा वीडियो में भारत को धमका रहा है। सलमान खुर्शीद ने कहा था, ''बाटला हाउस के आतंकियों पर हुई पुलिस कार्रवाई के बारे में सुनकर सोनिया जी के आंसू निकल आए, वह रातभर सो नहीं सकीं।'' पर सोनिया गांधी ने कभी इस बात का खंडन नहीं किया। अब लादेन को 'ओसामा जी' संबोधित करने वाले दिग्विजय सिंह ने इस कार्रवाई को एक बार फिर गलत कहा है। सकुचाई कांग्रेस इस बयान से किनारा कर रही है। अरविंद केजरीवाल ने तो बाकायदा बाटला मामले का जिक्र करते हुए मुसलमानों के नाम पत्र लिख डाला था। सारी दुनिया का सरदर्द बन चुकी इस समस्या से इस तरह नहीं निपटा जा सकता। देश के अमन-चैन और सुरक्षा से जुड़े मामलों पर स्पष्टता और ईमानदारी की आवश्यकता है। जरूरत है कि जो नहीं समझते उन्हें समझाया जाए और जो सब समझते हुए अनजान बन रहे हैं उनका पर्दाफ़ाश किया जाए।     ल्ल
 

भारत की विडम्बना यह है कि इस विषय पर बात करना, यहां तक कि इस ओर इंगित करना भी निषिद्ध हो गया है। आज़ाद भारत में अल्पसंख्यकवाद ऐसा सिर चढ़कर बोलने लगा कि जहां प्रचलित हिंदू परंपरा के दोषों पर चोट करना (जो कहीं उचित था तो कहीं हद से ज्यादा पूर्वाग्रहग्रस्त अथवा अतिरेकी रहा ) तो प्रगतिशीलता की निशानी माना गया, लेकिन सेमेटिक सोच के विश्लेषण को  घोर दुस्साहस और दुर्भावनापूर्ण निरूपित किया गया। परिणामस्वरूप भारत में जिहादी आतंकवाद की समस्या पर हमारे पास कोई ठोस अध्ययन नहीं है। इसके विपरीत पाकिस्तान में, जहां सर्वशक्तिमान फौजी इस्टैब्लिशमेंट स्वयं जिहाद का पोषण -संरक्षण करता है, कई लेखकों और शोधार्थियों ने उपयोगी और साहसपूर्ण विश्लेषण प्रस्तुत किये हैं। भारत और पाकिस्तान की राजनैतिक परिस्थितियां बिलकुल भिन्न हैं, लेकिन परंपरागत  इस्लाम का स्वरूप एक होने के कारण तथा पाकिस्तान के पंजाब में समाज के वहाबीकरण के कारण सामने आ रही चुनौतियों के मद्देनज़र ये अध्ययन उपयोगी हो सकते हैं। ध्यान रहे कि यहां पर बात अल्लामा इकबाल के 'शिकवा' और 'जवाब-ए -शिकवा ' तथा  मौलाना मौदूदी की विरासत को ध्यान में रखते हुए करनी होगी क्योंकि सीमा के दोनों तरफ दोनों को ही मान्यता प्राप्त है।
मनोवैज्ञानिक और लेखक सोहेल अब्बास  ने अपनी किताब 'प्रॉबिंग द जिहादी माइंडसेट' में 17 से 72 आयुवर्ग के  517 जिहादियों पर एक शोधपूर्ण प्रस्तुति दी है। लगभग आधे जिहादियों का कहना  था कि पास-पड़ोस और नातेदारों के बीच उनका परिवार इस्लाम में ज्यादा गहरा विश्वास रखता था। तिस पर भी, ये जिहादी अपने परिवार में भी सबसे ज्यादा पक्के मुसलमान थे जो अपने परिवार  के सदस्यों  को भी और 'शुद्ध मुसलमान' बनने के लिए प्रेरित करते थे। अधिकांश जिहादी मज़हबी नेताओं द्वारा जिहाद में दीक्षित हुए।   
हाल ही में भारत में हुई गिरफ्तारियों में भी ऐसे अनेक मामले सामने आये, जहां शादी-शुदा बाल-बच्चेदारों ने भी बेहिचक जिहाद का रास्ता चुना।  65़ 5 प्रतिशत जिहादी इस मामले में  स्पष्ट सोच नहीं रखते थे कि लादेन 9/11 के हमलों में शामिल था कि नहीं, लेकिन 74 प्रतिशत इस बात पर स्पष्ट थे कि अमेरिका ने इस्लाम के विनाश के उद्देश्य से अफगानिस्तान पर हमला किया।
भारत में बुद्धिजीवियों के एक बड़े वर्ग को लगता है कि जिहादी आतंक के पनपने की मुख्य वजह समाज में आधुनिकता की कमी है। बात विचारणीय हो सकती है परंतु आधुनिकता की परिभाषा क्या है? क्या आधुनिकता की परिभाषा आधुनिक साधन-संसाधनों से है? क्योंकि साधन संपन्नता तेल पर तैर रहे अरब राष्ट्रों में दुनिया के किसी भी हिस्से से अधिक है। क्या आधुनिकता का अर्थ आधुनिक जीवन शैली से है? यदि हां, तो याद करें  ब्रिटेन की सैली जोन्स उर्फ़ जिहादी ब्राइड और समेंथा लुईस ल्यूथवेट उर्फ़ व्हाइट विडो की, जो पश्चिम के डिस्कोथेक से सीधे जिहाद के कारखाने में पहुंच गईं। जब ये पंक्तियां लिखी जा रही थीं ठीक उसी समय जिहादी ब्राइड ने ट्वीट्स की श्रृंखला जारी कर ब्रिटेन वासियों से सिलसिलेवार बम धमाकों का वादा किया है। ट्वीट्स का सार ये है कि घर से बाहर निकलो तो जान हथेली पर रखकर ही निकलना। यह जिहादी ब्राइड कभी एक रॉक बैंड की मुख्य गिटार वादक हुआ करती थी। एक सर्वेक्षण के मुताबिक़, ब्रिटेन में सेना में जाने वाले मुसलमान युवाओं की तुलना में इस्लामिक स्टेट में भर्ती होने वाले मुसलमान युवकों की संख्या काफी ज्यादा है।
निश्चित रूप से हमारे लिए भी यह आत्मावलोकन का समय है। आखिरकार 17 करोड़ मुरिलम आवादी वाले देश में मुसलमान युवकों को बगदादी की आतंक फैक्ट्री और आईएस की महत्वाकांक्षा का चारा बनने के लिए नहीं छोड़ा जा सकता। जटिल होती इस समस्या पर सभी को जिम्मेदारी के साथ सोचना होगा। लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं होता। बाटला हाउस से संबंध रखने वाला एक आतंकी इस्लामिक स्टेट के ताज़ा वीडियो में भारत को धमका रहा है। सलमान खुर्शीद ने कहा था, ''बाटला हाउस के आतंकियों पर हुई पुलिस कार्रवाई के बारे में सुनकर सोनिया जी के आंसू निकल आए, वह रातभर सो नहीं सकीं।'' पर सोनिया गांधी ने कभी इस बात का खंडन नहीं किया। अब लादेन को 'ओसामा जी' संबोधित करने वाले दिग्विजय सिंह ने इस कार्रवाई को एक बार फिर गलत कहा है। सकुचाई कांग्रेस इस बयान से किनारा कर रही है। अरविंद केजरीवाल ने तो बाकायदा बाटला मामले का जिक्र करते हुए मुसलमानों के नाम पत्र लिख डाला था। सारी दुनिया का सरदर्द बन चुकी इस समस्या से इस तरह नहीं निपटा जा सकता। देश के अमन-चैन और सुरक्षा से जुड़े मामलों पर स्पष्टता और ईमानदारी की आवश्यकता है। जरूरत है कि जो नहीं समझते उन्हें समझाया जाए और जो सब समझते हुए अनजान बन रहे हैं उनका पर्दाफ़ाश किया जाए।

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