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जिस दिन पाकिस्तान अपनी धरती पर ड्रोन हमले में मुल्ला अख्तर मंसूर की मौत पर डरी-सहमी सी प्रतिक्रिया दे रहा था, उसी दिन भारत, ईरान और अफगानिस्तान के नेता तेहरान में एक करार को अंतिम रूप देने के लिए बैठक की तैयारी कर रहे थे। भारत तीनों देशों के बीच आर्थिक सहयोग को नई ऊंचाइयों पर ले जाने वाला है।
वह बैठक 23 मई को हुई थी। और उसी दिन, हमारे विदेश विभाग ने अमेरिकी राजदूत के सामने ड्रोन हमले पर 'चिंता' जताई थी, जबकि राष्ट्रपति ओबामा ने इसे ' मील का पत्थर' कहकर इसकी तारीफ की थी। उसी दिन, भारत के प्रधानमंत्री और अफगानिस्तान के राष्ट्रपति के बीच में बैठे ईरान के राष्ट्रपति हसनरूहानी ने ट्रांजिट संधि पर हस्ताक्षर होने के बाद, टेलीविजन पर कहा, ''ये तेहरान, नई दिल्ली और काबुल से एक अहम संदेश है.. ..कि क्षेत्रीय देशों के लिए प्रगति का रास्ता साझा सहयोग और क्षेत्रीय अवसरों के इस्तेमाल से गुजरता है।'' साल दर साल, पाकिस्तान अपने ही पड़ोसियों से अलग-थलग होता गया है, और 23 मई के घटनाक्रमों को एक दूसरे के सामने तोलने पर, वे इस बात की एक बड़ी साफ तस्वीर पेश करते हैं कि ये कैसे हो रहा है।
चाबहार बंदरगाह, और इससे खुलने वाले रास्ते या तो सामना करने वाली चुनौती के रूप में देखे जा सकते हैं या पाकिस्तान के लिए इस्तेमाल करने के अवसर के तौर पर। प्रतिद्वंद्विता की नजर से देखने पर पाकिस्तान के चार में से तीन पड़ोसियों द्वारा, चाबहार को इस सहयोग के प्रतीक चिन्ह के तौर पर रखकर बनाए जा रहे सहयोगी संबंध देश को घेरने जैसा आभास देते हैं, जो इससे बचने के उपाय करने की जरूरत जताते हैं, जैसे देश की विदेश नीति को चीन के फरमानों के और ज्यादा अधीन करना।
लेकिन अगर इसे सहयोग के नजरिए से देखें तो यही संबंध ऐसे अवसर की तरह दिखते हैं जिन्हें खंगालना चाहिए। जैसे तीन देशों के बीच जमीन के रास्ते कारोबारी आवागमन के लिए बातचीत शुरू करना, चाबहार और ग्वादर के बीच संपर्क जोड़ना, साथ ही हेरात और मजार-ए-शरीफ के बीच सड़क संपर्क बढ़ाना जिसमें चमन और पेशावर भी दायरे में आएं।
पाकिस्तान की विदेश नीति प्रतिद्वंद्विता पर आधारित है, जबकि इसके बजाय सहयोग के नजरिए से इसके क्षेत्रीय माहौल को देखा जाए, तो यह देश के दीर्घकालिक फायदे में होगा।
हमारा क्षेत्र ऐसी संभावनाओं से जीवंत है जो वृहत सहयोग और जुड़ाव से आती हैं-व्यापार से ऊर्जा तक-और अगर हमारे विदेश संबंधों पर शक हावी न हो तो इन अवसरों का लाभ उठाकर पाकिस्तान की स्थिति एक अहम संपदा बन सकती है। यह सुझाना व्यावहारिकता है, नासमझी नहीं कि बन रहे क्षेत्रीय समीकरणों में सहयोग ज्यादा लाभ देगा, जबकि प्रतिद्वंद्विता और संघर्ष देश में सिर्फ मुसीबतें ही बढ़ाते हैं। बेशक, जिन पटरियों पर हमारे विदेश संबंध दौड़ते हैं उनको बदलना आसान नहीं होगा, खासकर बीते वक्त के बोझ को देखते हुए। लेकिन इससे यह बात धुंधलाती नहीं है कि मुनाफा असल में दूसरे पाले में है।
(पाकिस्तान के अंग्रेजी दैनिक द डॉन में 25 मई 2016 को प्रकाशित संपादकीय)
पाकिस्तान और चीन की सभी चालें बेकार
चीन कभी पाकिस्तान के बलूचिस्तान और कभी पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में भारत को परेशान करने वाली गतिविधियों को अंजाम देता रहता है जो भारत को अखरती रहती है। अब भारत ने ईरान से यह समझौता करके चीन और पाकिस्तान के नहले पर दहला मार दिया है। अब जहां भारत को कच्चा तेल सस्ता पड़ेगा, वहीं पाकिस्तान को यह महंगा पड़ेगा। इसके अलावा भारत चाबहार बंदरगाह पर कच्चे तेल का भण्डारण भी कर सकेगा जिसेे जरूरत होने पर इस्तेमाल किया जा सकेगा।
इससे भी बड़ा कमाल यह हुआ है कि अब भारत की चीन और अमेरिका की गतिविधियों पर भी नजर रहेगी, साथ ही अफगानिस्तान में भारतीय बाजार के खड़ा होने के बाद पाकिस्तान अपने आप में बंधकर रह जाएगा।
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