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पाठकों के पत्र : कब रुकेगा हत्याओं का सिलसिला?

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May 30, 2016, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 30 May 2016 13:22:05

आवरण कथा 'कन्नूर के कातिल' से स्पष्ट  है कि केरल में कानून-व्यवस्था का कोई नामोनिशान नहीं है। दादरी और रोहित वेमुला पर विलाप करने वाले सेकुलर राजनीतिक दल केरल में स्वयंसेवकों की निर्मम हत्या पर मौन साधे रहते हैं? केरल में कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ताओं द्वारा स्वयंसेवकों पर अत्याचार सभ्य समाज पर एक बदनुमा दाग है।

—मनोहर मंजुल, पिपल्या (म.प्र.)

ङ्म केरल में स्वयंसेवक कम्युनिस्टों के अत्याचारों से डरने वाले नहीं हैं। ये जितने  हिंसक होंगे, संघ उतनी ही तीव्र गति से यहां बढ़ेगा। असल में संघ कठिन परिस्थितियों में अपनी जड़ें मजबूत करता है। संघ के स्वयंसेवक कठिन परिस्थितियों से जूझते हैं और कितनी भी आपदा आएं, डरते नहीं हैं। देश का जो सेकुलर मीडिया भगवा, हिन्दू व हिन्दुत्व का नाम लेकर आए दिन विषवमन करता रहता है, केरल पर उसकी बोलती बंद हो जाती है। क्या यही निष्पक्षता का पैमाना है? मीडिया का यह रवैया न केवल दुर्भाग्यपूर्ण है, बल्कि शर्मनाक भी है।
      —आलोक कुमार, प्रतापगढ़ (उ.प्र.)
    
ङ्म केरल में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा कार्यकर्ताओं की हत्याओं पर उनके परिजनों की पीड़ा हृदय को झकझोर देती है।  क्या इससे ज्यादा भी असहिष्णुता का उदाहरण हो सकता है? पिछले 50 वर्षों में तीन सौ से ज्यादा स्वयंसेवकों की इसलिए हत्या कर दी गई कि केरल में वामपंथियों को चुनौती देने वाली कोई ताकत न खड़ी होने पाए। अगर वामपंथियों को लगता है कि उनके इस कृत्य से संघ के कार्यकर्ता डरने वाले हैं और उनके कदम ठिठकने वाले हैं, तो शायद यह उनकी भूल है।
                         —कृष्ण वोहरा, सिरसा (हरियाणा)

ङ्म  केरल में संघ का प्रसार बड़ी तेजी से हो रहा है। कम्युनिस्ट इसी को सहन नहीं कर पा रहे हैं। बस यही कारण है, संघ कार्यकर्ताओं की हत्या का। लेकिन कितनी भी चुनौती आ जाएं, संघ कार्य को बढ़ने से कोई नहीं रोक सकता, क्योंकि यह तो ईश्वरीय कार्य है। केरल में संघ के स्वयंसेवक पूरे मनोयोग से लगे हुए हैं। उन्हें कम्युनिस्टांे की बंदर घुड़कियों से कोई डर नहीं लगता। इसलिए ही तो 1969 से 2016 तक बराबर संघ कार्य तेजी से बढ़ रहा है।
        —आशीष कुमार राव, विष्णुनगर, हैदराबाद (आं.प्र.)

ङ्म  आए दिन संघ कार्यकर्ताओं पर होने वाले हमले वामपंथियों के चेहरे से नकाब उतारते हैं। रपट में स्वयंसेवकांे के परिवार की आपबीती सुनकर आक्रोश होता है। जो वामपंथी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पैरोकार हैं, वे केरल-कन्नूर में स्वयंसेवकों की हत्या पर अपना मुंह क्यों सिल लेते हैं? तब उनकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कहां चली जाती है?
  —सुभाष वर्मा, मुरैना (म.प्र.)

ङ्म साम्यवाद समाप्त हो रहा है। आज रोशनी हाथ में लेकर भी ढ़ंूढने से साम्यवाद समर्थक नहीं मिलते। दूसरी ओर संघ के स्वयंसेवक सभी क्षेत्रों में काम करते दिखाई पड़ते हैं। यही पीड़ा कम्युनिस्टों से सही नहीं जाती और वे हिंसा पर आमादा हैं।
      —सनी सिंह, झांसी (उ.प्र.)

ङ्म  पिछले 50 वर्ष से ज्यादा समय से कांगे्रस की मिलीभगत से वामपंथियों द्वारा लगातार स्वयंसेवकों की हत्याएं होती रहीं है। वोट के लालच में या फिर किसी अन्य रूप से हिन्दुओं की आस्था पर कुठाराघात किया जा रहा है और चापलूस मीडिया इसे बढ़ा-चढ़ाकर दिखा समाज को भ्रमित करने में लगा हुआ है। क्या मीडिया को हिन्दुओं पर होते अत्याचार दिखाई  नहीं देते?
  —रूपसिंह सूर्यवंशी, ईमेल से

ङ्म  जो वामपंथी दिल्ली में बैठकर अपने को सहिष्णु कहते हैं, उनके घिनौने चेहरे को केरल में देखना चाहिए। अब तक इनके कार्यकर्ता संघ के सैकड़ों स्वयंसेवकों को वीभत्स तरीके से मार चुके हैं। वोट के लालच और अपना प्रभुत्व कम होने के डर से ये इतने हिंसक हो जाते हैं कि हत्या करने से भी नहीं चूकते। जो सेकुलर मीडिया पानी का घूंट पी-पीकर रोहित वेमुला की आत्महत्या पर रोता है, उसे कन्नूर क्यों दिखाई नहीं देता? न ही उन्हें उन माताओं का दर्द दिखाई देता है, जिनके बेटों को कम्युनिस्ट हत्यारों ने मार डाला। मीडिया का यह रवैया अशोभनीय है?
  —नरेश सोनी, चडीगढ़ (हरियाणा)

ङ्म  'कन्नूर के कातिल' रपट पढ़कर दिल दहल उठा। जिन माता-पिता के सामने उनके बच्चे की हत्या की गई होगी, उनके दिल पर क्या गुजरी होगी, उनसे अच्छा कौन जान सकता है। इन लोगों ने कानून-व्यवस्था का मजाक बना रखा है। सत्ता के दवाब के चलते ये हत्यारे या तो छूट जाते हैं या पकड़े ही नहीं जाते। इसके कारण इनके हौसले और बुलंद हो जाते हैं। माकपा, कांग्रेस और यूडीएफ के गठजोड़ के चलते संघ कार्यकर्ताओं पर हमले होते हैं। इन सभी का सहयोग इस कार्य में रहता है। क्योंकि ये राजनीतिक दल कभी नहीं चाहते कि संघ के कार्य का केरल में विस्तार हो। पर इनके चाहने से कुछ होने वाला नहीं है। संघ कार्य केरल में तेजी
से विस्तार पा रहा है और आगे भी
बढ़ता रहेगा।
  —राम पाण्डेय, राउरकेला (ओडिशा)

फलीभूत होती सोच
आवरण कथा 'सोच भारत की (10 अप्रैल, 2016)' वर्ष प्रतिपदा विशेषांक प्रेरणादायक लगी। पं. दीनदयाल उपाध्याय का दिया गया एकात्म मानववाद का सिद्धांत आज के लिए बहुत ही प्रासंगिक है। उन्होंने जनसंघ की स्थापना कर राजनीति का भारतीयकरण किया। उन्हीं के अथक प्रयासों का परिणाम है कि वर्तमान में केन्द्र और अनेक प्रान्तों में भाजपा की सरकार है। आज उन सरकारों द्वारा समाज की अंतिम पंक्ति में बैठे लोगों के विकास के लिए योजनाएं चलाई जा रही हैं।
  —मयंक सिंह, बेगुसराय (बिहार)

  पं. दीनदयाल उपाध्याय ने देश और समाज के  लिए जो कार्य किया, जिन व्यक्तियों को साथ में लेकर परिश्रम किया, उसे कभी भी भुलाया नहीं जा सकता। कुछ लोग दीनदयाल जी को एक पार्टी से जोड़कर देखते हैं और उनके विचारों को नहीं अपनाते है। जबकि उन्हें पता होना चाहिए कि दीनदयाल जी ने समाज के प्रत्येक वर्ग के विकास की बात की है।
  —बी.एस.शांताबाई,बंगलुरू (कर्नाटक)

ये कैसी स्वतंत्रता?
 लेख 'कौन नहीं बोलना चाहता जय' (3 अप्रैल,2016)अच्छा लगा। प्रजातांत्रिक मूल्यों का जब हनन होता है, तब हर देशभक्त को पीड़ा होती है। जहां तक आजादी की बात है तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अपना एक दायरा है। क्या जो लोग आजादी मांग रहे हैं, वे चाहते हैं कि आतंकी अफजल को शहीद का दर्जा दिया जाये, जो दर्जनों लोगों की हत्या का दोषी है? आश्चर्य की बात है कि कांग्रेस और उसके सहयोगी सेकुलर दल भी देशद्रोहियों की पैरवी करने से नहीं चूके। यह उनकी हकीकत है, जिसे देश ने देख लिया है।
  -उदय कमल मिश्र, सीधी (म.प्र.)

इनसे लें प्रेरणा
रपट 'अनुकरणीय गांव (8 मई, 2016)' अच्छी लगी। इस प्रकार की रपटें प्रेरणा के साथ कुछ करने का हौसला देती हैं। आज बहुत से लोग किसी भी कार्य को करने से पहले सरकार की ओर आशा लगाकर देखते हैं और चाहते हैं कि बिना प्रयास से ही उन्हें बहुत कुछ हासिल हो जाये। ऐसे लोगों कोे इन लोगों से प्रेरणा लेनी चाहिए, जो बिना किसी सरकारी मदद के अपने गांव का विकास कर उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं। युवा कई बार भटक जाते हैं और सही मार्ग का चयन नहीं कर पाते। इसलिए इस प्रकार की रपट युवाओं के लिए दिशा निर्देशन और सही मार्ग का चयन करने में सहायक होती हैं।
  -आशाराम कनौजिया, भोपाल (म.प्र.)

इन्हें मिले अधिकार
भारत की तमाम शिक्षित जनता ने पश्चिमी सभ्यता को आधुनिकता का सबसे बड़ा मानक मान रखा है। लोग आधुनिक होने के नाम पर अपना पश्चिमीकरण और ईसाईकरण करने में लगे हुए हैं। जिस भारतीय नागरिक के पास (मैकाले की शिक्षा व्यवस्था द्वारा प्रदत्त) जितनी ऊंची उपाधियां हैं, वे उतनी ही तेजी से अपना ईसाईकरण करने में लगे हुए हैं। मैकाले द्वारा प्रदत्त शिक्षा व्यवस्था ने हमारे समाज को खोखला करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। शिक्षा किसी भी समाज की रीढ़ होती है और उसी पर संपूर्ण समाज टिका होता है। लेकिन जब रीढ़ में ही समस्या हो तो मुश्किल होना स्वाभाविक है।
-निशांत पाराशर, हाथरस (उ.प्र.)

जो लोग मजहब की आड़ में स्त्री को गुलाम बनाये रखने को अपना अधिकार समझते हैं, वे लोग मजहब की परिभाषा ही नहीं जानते। क्या एक पत्नी के रहते चार-चार शादियां करना ठीक है? कोई मुल्ला-मौलाना आगे आकर इसका विरोध क्यों नहीं करता?  ऐसे लोगों से छुटकारा पाने के लिए मुस्लिम महिलाओं को अपनी लड़ाई खुद ही लड़नी होगी।
-अश्वनी जांगड़ा, रोहतक (हरियाणा)

 पुरस्कृत पत्र : सबके लिए समान हो कानून
देश में अधिकारों को लेकर आजकल लड़ाई चल रही है। हाल ही में वर्षों से मजहब की जंजीरों में जकड़ी उन मुस्लिम महिलाओं ने अपने अधिकार के लिए आवाज बुलंद करनी शुरू कर दी है जो मुल्ला-मौलवियों के दबाव में अपने मौलिक अधिकारों से वंचित रही हैं। ये सभी महिलाएं दशकों से संकीर्ण एवं अज्ञानता भरे माहौल में खुली सांस लेना तो दूर बुनियादी सुविधाओं और अपने अधिकारों के लिए भी जूझती नजर आ रही हैं। असल में इस सबके मूल में रूढि़गत पूर्वाग्रह, अज्ञानता और पुरुषवादी वर्चस्व का आग्रह भरा पड़ा है। इस मानसिकता ने मुस्लिम महिलाओं को भोग-विलास का सिर्फ साधन माना है। आज जब सारे विश्व में नवोन्मेष, आधुनिक ज्ञान और तकनीक के प्रचलन पर जोर है, चारदीवारी से बाहर निकलकर आधे समाज का प्रतिनिधित्व करने वाली महिला को सशक्त करने के अभियान छेड़े जा रहे हैं। ऐसे में मुस्लिम समाज की महिलाएं आज भी पुरुषों के सहारे लाचारी में जीने को विवश हैं। कई मुस्लिम देशों में एक पत्नी के रहते दूसरा निकाह करने की इजाजत नहीं है। लेकिन ठीक यही कानून भारत में लागू करने की बात आते ही मुल्ला-मौलवी अडं़गा लगाने लगते हैं। मैं इन फतवेधारियों और मुल्ला-मौलानाओं से पूछना चाहता हूं कि उन देशों में क्या कुरान और हदीस अलग है और भारत में अलग? अगर इस्लाम को मानने वाले देशों में इस तरह का कानून लागू हो सकता है तो भारत में क्यों नहीं लागू हो सकता? कानून सभी के लिए समान होना चाहिए फिर चाहे वह कोई भी हो। केन्द्र सरकार को मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और समान नागरिक कानून की दिशा में आगे बढ़ना चाहिए। और समान कानून बनाकर यह संदेश देना चाहिए कि भारत में सभी बराबर हैं।     

-हरेन्द्र प्रसाद साहा, कटिहार (बिहार)

प्रति सप्ताह पुरस्कृत पत्र के रूप में चयनित पत्र को प्रभात प्रकाशन की ओर से 500 रु. की पुस्तकें भेंट की जाएंगी। 

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