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पाञ्चजन्य ने सन् 1968 में क्रांतिकारियों पर केन्द्रित चार विशेषांकों की शंृखला प्रकाशित की थी। दिवंगत श्री वचनेश त्रिपाठी के संपादन में निकले इन अंकों में देशभर के क्रांतिकारियों की शौर्यगाथाएं थीं। पाञ्चजन्य पाठकों के लिए इन क्रांतिकारियों की शौर्यगाथाओं को नियमित रूप से प्रकाशित करेगा ताकि लोग इनके बारे में जान सकें। प्रस्तुत है 29 अप्रैल ,1968 के अंक में प्रकाशित आजाद भगत सिंह के साथी रहे श्री विश्वनाथ वैशम्पायन का आलेख:-
विश्वनाथ वैशम्पायन
ग्वालियर में गजानन सदाशिव पोद्दार ने एक घर किराये पर ले रखा था। वहीं हम सब जमा हुए और वहीं बैठकर आजाद दल के सदस्यों से संबंध स्थापित करने लगे।
आजाद ने मुझे अकोला के श्री सहस्रबुद्धे के पास भेजकर राजगुरु से संबंध स्थापित कर सबकी व्यवस्था करने को कहा। इसमें विचार यह था कि जब तक पंजाब और उत्तर प्रदेश गरम है, तब तक दक्षिण में दल का विस्तार किया जाए। अकोला पहुंचकर मैं श्री सहस्रबुद्धे के यहां ठहरा और वहीं राजगुरु को बुलवाया। उनके आने पर उन्हें आजाद का आदेश बतलाया। बात विशेष नहीं थी, यह पत्रव्यवहार से भी हो सकती थी। परंतु काकोरी के बाद पत्र द्वारा कार्य करने की प्रथा बंद ही हो गई थी। पार्टी में मेरे प्रवेश करने के बाद अनेक दिनों तक आजाद के पत्र मेरे घर के पते से आते थे। परंतु बाद में ऐसे पत्र आना बंद हो गये क्योंकि काकोरी षड्यंत्र में पत्रों से ही पुलिस को सदस्यों का पता चला था। तो राजगुरु ने सबके रहने की व्यवस्था का आश्वासन दिया और वह समाचार लेकर मैं ग्वालियर वापस आया। परंतु मेरी राजगुरु की वह अंतिम भेंट हुईं।
प्रसंगवश राजगुरु से एक और भेंट हुई थी, उसका भी उल्लेख यहां कर रहा हूं वैसे तो सौंडर्स वध के बाद वे अनेक बार झांसी आये थे। पार्टी में वे रघुनाथ नाम से पुकारे जाते थे। अकोला जाने तक मैं उनका नाम नहीं जानता था। उस दिन मैं करवी से अपने चाचा के यहां प्रतापगढ़ जा रहा था। करवी और मानिकपुर के बीच रेलगाड़ी में बैठा मैं अपने भाई से बातें कर रहा था। अचानक किसी के गाने की भौंडी आवाज सुनाई दी:-
'अपने आशिक को ढूंढने निकले,
ऐसी होती है लौ लगी दिल की।'
राजगुरु कविता से कोसों दूर थे, परंतु जब कुछ क्रांतिकारी एक स्थान पर जमा होते तो उनमें भगवानदास माहौर गजलें और कविताएं गाकर एक मधुर वातावरण बना देते। उसी में भाई राजगुरु भी रस लेते। महाराष्ट्रीय होने के नाते उन्हें उर्दू इतनी नहीं आती थी, पर हिन्दी अच्छी तरह समझते थे। स्मरणशक्ति अच्छी थी, इस कारण कुछ शायरी भी उन्होंने याद कर ली थी, जिसका उपयोग स्वान्त:सुखाय वे करते रहते थे। यहां भी उन्होंने उसे दोहराया।
मुझे आवाज पहचानते देर न लगी। एक ही सिद्धांत के दो आशिक जुदा-जुदा बैठे थे। दोनों एक दूसरे से मिलने को छटपटा रहे थे। आखिर स्वयं ऊंघना शुरू करके थोड़ी देर में मैंने अपने भाई को ऊपर के बर्थ पर सोने के लिए बाध्य किया। अब राजगुरु पास आ बैठे। ऐसा लगा मानो न जाने कितने वर्षों बाद एक दूसरे से मिले हों। क्रांतिकारियों की हर भेंट अंतिम समझी जाती थी। जब दो दीवाने मिलते तो कौन कहां जा रहा है, यह भी पूछने में असमर्थ थे, क्योंकि पार्टी में ऐसा ही कड़ा नियम था। दोनों ही एक दूसरे से सटकर बैठे चांदनी का आनंद लेते रहे। राजगुरु सौंडर्स वध में शामिल थे। उनका जीवन प्रतिक्षण खतरे में था। यह सोचकर उनके प्रति मेरी अत्यंत श्रद्धा और बड़ा ही ममत्व था। कुछ इधर-उधर की चर्चा में कुछ गाकर रात यूं ही बैठे-बैठे गुजर गई। इलाहाबाद आया, वे उतरे, एक बार उन्होंने मुड़कर देखा, आंखें पोंछ लीं और जल्दी-जल्दी रेलवे पुल पार कर गये। मैं उन्हें तब तक देखता रहा जब तक वे आंख से ओझल न हो गये। फिर चुपचाप बैठ आगरे के मकान में उनके साथ गुजरे दिनों की याद करता रहा।
* * *
ऊनी चादरों वाले व्यक्ति की खोज
कानपुर की बात है। सर्दी का मौसम होने के कारण ठंड से बचने के लिए हम लुधियाने की गरम शालें ओढ़ा करते थे परंतु इससे रिवाल्वर या पिस्तौल रखने में असुविधा होती थी। इसलिए गरम कोट बनने दिए थे। कटरे से जब हम चले तो ये ही शालें ओढ़े हुए थे। स्टेशन जाते समय हम चौक से गुजरे तो भैया से अचानक कहा- 'उस दर्जी के बच्चे के यहां भी तो होते चलें शायद उसने कोट बना दिया हो। गाड़ी में अभी बहुर देर है, इतनी जल्दी भी स्टेशन जाकर क्या करेंगे?'
दर्जी की दुकान के सामने एक्का रोककर हमने जानकारी की तो कोट बनकर तैयार थे। हमने कोट पहन लिए और शालें ट्रंक में डाल दीं। उस ट्रंक में कार्बोलिक एसिड की बोतलें थीं। जब हम स्टेशन पहुंचे तो गाड़ी खड़ी ही थी। यह गाड़ी शाम को पांच या साढ़े पांच बजे चलकर रात को 9 या साढ़े नौ बजे कानपुर पहुंचती थी, गाड़ी चलने को हुई तो उसी समय पुलिस का एक सशस्त्र दस्ता हमारे डिब्बे में ही आ बैठा। इस घटना को हमने विशेष महत्व नहीं दिया। क्योंकि नैनी सेंट्रल जेल में कैदियों को पहुंचाने पुलिस गारद उत्तर प्रदेश के अनेक स्थानों से आती-जाती है। हमने सोचा यह गारद भी ऐसी ही होगी।
गाड़ी में बहुत देर तक हम दोनों बैठे रहे। बाद में आजाद ने कहा-'बच्चा! मुझे नींद नहीं आ रही है, तुम लेटना चाहो तो लेट लो।' उन दिनों रेलगाडि़यों में इतनी भीड़ नहीं होती थी। इससे ऊपर के बर्थ खाली थे वहीं मैं जा लेटा। जब कानपुर स्टेशन पास आ गया तो आजाद ने मुझे जगा दिया। मैं नीचे उतर कर बाहर देखने लगा। गाड़ी हमेशा की तरह एक नम्बर प्लेटफार्म पर न जाकर तीन नंबर पर जा रही थी। प्लेटफार्म धीरे-धीरे साफ दिखाई देने लगा था। मैंने देखा कि पुलिस वाले बंदूकें लिए एक कतार में खड़े हैं।
धीरे से मैंने भैया से उसका उल्लेख किया तो वे बोले- 'आ रहा होगा कोई पुलिस अफसर, उसी के स्वागत के लिए खड़े होंगे।' फिर स्वयं उन्होंने एक दृष्टि प्लेटफार्म पर डाली। उसके बाद मुझसे कहा- 'सावधान जेब में रिवाल्वर पर हाथ रहे।' इस सामान की पेटी पर झल्लाए, 'यह एक मुसीबत साथ है। देखो इसे कुली को देकर तुरंत मेरे पीछे आना। यदि संघर्ष हो तो पीठ से पीठ मिलाकर संघर्ष करना।' अब तक गाड़ी प्लेटफार्म पर आकर रुक चुकी थी। भैया पहले उतरे। मैंने कुली के सिर पर सामान दे उसका नंबर ले लिया और भैया और मैं सही सलामत स्टेशन से निकल गए। तांगे में बैठने पर भी कुली बक्सा लेकर नहीं आया। हम चलने ही वाले थे कि कुली पेटी लेकर आ पहुंचा। भैया उस पर देरी करने पर झल्लाए। कुली ने घबराकर कहा- 'टिकट कलेक्टर पूछ रहा था यह किसका सामान है?' सामान तांगे में रखकर हम गुलजारी लाल मोटर ड्राइवर के यहां पहुंच गए। क्योंकि वही एक ऐसा स्थान था जो वीरभद्र या उसके साथियों को नहीं मालूम था। उस दिन आजाद किसी से नहीं मिले। रात को एक कार की व्यवस्था की गई और बड़े तड़के कार में बैठकर हम फतेहपुर पहुंच गए। गुलजारी लाल के स्वयं मोटर ड्राइवर होने से किसी और को साथ लेने की आवश्यकता ही न रही। फतेहपुर में हम इलाहाबाद ट्रेन से सही सलामत पहुंच गए। बाद में पता चला कि उस दिन हमारी खोज रातभर होती रही पर पुलिस को ऊनी चादरें ओढ़े व्यक्ति न मिले। इलाहाबाद और कानपुर के बीच के स्टेशनों पर भी फोन किया गया पर इस हुलिया के किन्हीं व्यक्तियों का पता न चला। उस दिन से निश्चय किया गया कि भैया को कानपुर न जाने दिया जाएगा क्योंकि वहां उनके लिए अत्यंत खतरा है। भैया (आजाद) कानपुर इसलिए आये थे कि वहां दल की जो एक मोटरकार थी- उसे बेचा जा सके-पश्चात मध्य भारत जाने का विचार था। यह कार कुली बाजार वाले उसी मकान में थी जहां बम के खोल ढालने का कारखाना था।
धीरे से मैंने भैया से उसका उल्लेख किया तो वे बोले- 'आ रहा होगा कोई पुलिस अफसर, उसी के स्वागत के लिए खड़े होंगे।' फिर स्वयं उन्होंने एक दृष्टि प्लेटफार्म पर डाली। उसके बाद मुझसे कहा- 'सावधान जेब में रिवाल्वर पर हाथ रहे।' इस सामान की पेटी पर झल्लाए, 'यह एक मुसीबत साथ है। देखो इसे कुली को देकर तुरंत मेरे पीछे आना। यदि संघर्ष हो तो पीठ से पीठ मिलाकर संघर्ष करना।' अब तक गाड़ी प्लेटफार्म पर आकर रुक चुकी थी। भैया पहले उतरे। मैंने कुली के सिर पर सामान दे उसका नंबर ले लिया और भैया और मैं सही सलामत स्टेशन से निकल गए। तांगे में बैठने पर भी कुली बक्सा लेकर नहीं आया। हम चलने ही वाले थे कि कुली पेटी लेकर आ पहुंचा। भैया उस पर देरी करने पर झल्लाए। कुली ने घबराकर कहा- 'टिकट कलेक्टर पूछ रहा था यह किसका सामान है?' सामान तांगे में रखकर हम गुलजारी लाल मोटर ड्राइवर के यहां पहुंच गए। क्योंकि वही एक ऐसा स्थान था जो वीरभद्र या उसके साथियों को नहीं मालूम था। उस दिन आजाद किसी से नहीं मिले। रात को एक कार की व्यवस्था की गई और बड़े तड़के कार में बैठकर हम फतेहपुर पहुंच गए। गुलजारी लाल के स्वयं मोटर ड्राइवर होने से किसी और को साथ लेने की आवश्यकता ही न रही। फतेहपुर में हम इलाहाबाद ट्रेन से सही सलामत पहुंच गए। बाद में पता चला कि उस दिन हमारी खोज रातभर होती रही पर पुलिस को ऊनी चादरें ओढ़े व्यक्ति न मिले। इलाहाबाद और कानपुर के बीच के स्टेशनों पर भी फोन किया गया पर इस हुलिया के किन्हीं व्यक्तियों का पता न चला। उस दिन से निश्चय किया गया कि भैया को कानपुर न जाने दिया जाएगा क्योंकि वहां उनके लिए अत्यंत खतरा है। भैया (आजाद) कानपुर इसलिए आये थे कि वहां दल की जो एक मोटरकार थी- उसे बेचा जा सके-पश्चात मध्य भारत जाने का विचार था। यह कार कुली बाजार वाले उसी मकान में थी जहां बम के खोल ढालने का कारखाना था।
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