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तलाश समाधान की
जर्मनी में गुरुद्वारे पर हमला करने वाले उन्मादी मुस्लिम युवकों का घोषित मकसद है 'काफिरों को समाप्त करना'। यूरोप में आतंकवाद और मजहबी कटट्रवाद के खिलाफ आक्रोश बढ़ रहा है। लोगइसके तत्काल समाधान की मांग उठा रहे हैं
प्रशांत बाजपेई
म जर्मनी की 90 मस्जिदों की खुफिया निगरानी कर रहे हैं। और भी अनेक की निगरानी की आवश्यकता है।'' हाल ही में जर्मनी की आंतरिक खुफिया संस्था के प्रमुख हैं। जॉर्ज मैसन ने यह सार्वजनिक बयान दिया है। मैसन ने कहा कि इन मस्जिदों में इमाम अपने अनुयायियों को गैर मुसलमानों के खिलाफ हिंसक जिहाद के लिए उकसा रहे हैं। भड़काऊ भाषण दिए जा रहे हैं। कट्टरपंथियों के विरुद्ध संगठित होने की आवश्यकता है। इसके पहले कुछ राजनैतिक-सामाजिक संगठनों द्वारा जर्मनी में राजनैतिक इस्लाम की बढ़त रोकने और जर्मन मुसलमानों को जर्मन जीवनशैली में ढालने की मांग उठाई गई है। दक्षिणपंथी कहलाने वाले दल मांग कर रहे हैं कि मस्जिदों में जर्मन भाषा का ही प्रयोग करने का कानून बनाया जाए। साथ ही जर्मनी में रहकर जर्मन तौर-तरीकों अथवा जर्मनी की सार्वभौमिकता पर सवाल खड़े करने वालों पर कार्रवाई की जाए।
जिहादी इस्लाम के खतरों पर लिखे गए बहुचर्चित फ्रेंच उपन्यास 'सबमिशन' पर आधारित नाटक हैमबर्ग शहर में बेहद सफल रहा। इसके पीछे कुछ विचारणीय कारण हैं। नाटक में केंद्रीय भूमिका निभाने वाले एडगर सेल्ज के अनुसार,''ऐसा लगता है कि यह कहानी अत्यंत सामयिक है, क्योंकि हर कोई इस विषय के किसी न किसी हिस्से से खुद की चिंताओं को जोड़ पा रहा है।'' दरअसल जर्मन महसूस कर रहे हैं कि हर कोई जिहादियों के निशाने पर है।
1 मई को जर्मनी की जांच एजेंसी ने गत अप्रैल के पहले पखवाड़े में एसेन शहर में गुरुद्वारे पर हुए हमले के बारे में खुलासा किया। गुरुद्वारे में चल रहे विवाह समारोह में बम रखने वाले मुहम्मद बी. की उम्र है 16 साल। उसने अपना उपनाम रखा है 'कुफ्फार किलर'अर्थात् काफिरों का कातिल। उसका दूसरा हमउम्र साथी है यूसुफ टी.। जांचकर्ताओं के अनुसार, दोनों किशोर हमलावर अधिक से अधिक जानें लेना चाहते थे। समारोह में भाग ले रहे 200 लोग बेहद भाग्यशाली रहे कि बम उस समय फटा जब वे किसी रस्म के लिए दूसरे हाल में चले गए थे। पर तीन लोग बम की चपेट में आ ही गए। हैरत की बात है कि यह बम मुहम्मद और यूसुफ ने खुद ही बनाया था।
सोशल मीडिया में गुस्सा उबल रहा है। स्टैट मर्केल कहते हैं, ''जर्मनी में राजनैतिक स्वाथोंर् के चलते जिहादी इस्लाम के खतरों को कम करके आंका जा रहा है।'' माइकेल इस्तजेनबर्गर ने टिप्पणी की कि पहले वे (राजनीतिज्ञ) आंखें मूंदे रहे और अब मूर्खता भरे सवाल पूछ रहे हैं कि 'अरे! यह कैसे हो गया?' केवल जर्मनी नहीं बल्कि दुनिया के अनेक हिस्सों में यह सवाल उठ रहा है कि जब बच्चे और किशोर खुद ही बम तैयार कर मौत बांटने निकल पड़ेंगे तो इस खतरे से कैसे निबटा जा सकेगा? जिहाद के वायरस की रोकथाम कैसे होगी? यूरोप में बढ़ते जनसांख्यिकीय असंतुलन से भी असंतोष गहरा रहा है। 'इस्लाम एंड यूरोप: व्हाट वेंट रांग' के लेखक बर्नाड लुईस चिंता जताते हैं कि इस सदी के अंत तक वर्तमान यूरोप पूरी तरह गायब हो जाएगा और नया यूरोप एक इस्लामी यूरोप होगा। इस्लामिक कट्टरता उभार पर है।
जिहादी इस्लाम से पार पाने में सबसे बड़ी बाधा जिहादी सोच की पहचान कर सकने वाली इच्छाशक्ति की है। आखिरकार दुनिया के कोने-कोने में जिस प्रकार व्यक्तिगत प्रेरणा से स्वयंभू जिहादी तैयार हो रहे हैं, उससे महाशक्तियों के आतंकवाद से लड़ने के तौर-तरीकों पर सवाल उठना स्वाभाविक है। जिस समय अमरीका की अगुआई में इस्लामिक स्टेट पर प्रतिदिन अरबों का बारूद बरसाया जा रहा है, ठीक उसी समय यह निष्कर्ष निकलकर सामने आ रहा है कि जिहाद से लड़ना सिर्फ गोला-बारूद का मामला नहीं है, न ही यह बेहतरीन खुफिया नेटवर्क, चाक-चौबंद सुरक्षा बंदोबस्त और मुस्तैद पुलिस तक सीमित है। यह तो वैचारिक और सांस्कृतिक लड़ाई है जिसमें कम से कम एक पूरी पीढ़ी को खपना- खपाना पड़ेगा।
यूरोपीय देशों में स्थानीय मुस्लिम कट्टरपंथियों द्वारा राष्ट्रध्वज जलाया जाना, शरिया कानून लागू करने की मांग, शहरों-कस्बों में सघन बस्तियां बनाकर रहना और वहां गैर मुसलमानों को आतंकित करना, गैर मुस्लिम महिलाओं के विरुद्ध योजनाबद्ध तरीके से यौन अपराध करने वाले गिरोहों का उभार, प्रेस पर हमले, मुस्लिम बहुल इलाकों में आतंकियों पर कार्रवाई करने वाले पुलिस बलों पर हमले लोगों में चिंता पैदा कर रहे हैं। बेल्जियम और फ्रांस में हुए हमले इसके ताजा उदाहरण हैं। लेखक तारिक यिल्दिज ने 'एन्टी व्हाइट रेसिज्म' नामक किताब में फ्रेंच मूल के लोगों पर मुस्लिम अप्रवासियों द्वारा किए जा रहे हमलों का विषय उठाया। वे कहते हैं, ''मेरी किताब को वर्जित रचना के रूप में देखा जा रहा है। श्वेतों पर हमले हो रहे हैं, पर कोई इस बात को मानने को तैयार नहीं है। पुलिस पर भी आक्रमण हो रहे हैं और मीडिया चुप है।''
नेशनल रिव्यू पत्रिका के स्टाफ राइटर डेविड फ्रेंच लिखते हैं, ''आज जब पश्चिम अतुलनीय सैन्य श्रेष्ठता का आनंद उठा रहा है उसी दौरान उसके मन और आत्मा का न केवल हास्यास्पद रूप से क्षय हो रहा है बल्कि उसे योजनाबद्ध रूप से समाप्त किया जा रहा है। जब तक हम इस प्रक्रिया को उलटते नहीं, और अपनी सभ्यता को परिभाषित करने वाले मूल्यों की पुनर्स्थापना नहीं करते, हमारी बंदूकें, हमारे बम और हमारे प्रशिक्षित-शानदार सुरक्षा बल आने वाली आपदा की तरफ से आंख मूंदने और उसे थोड़ा विलम्बित करने के बहाने बने रहेंगे।''
'प्यू रिसर्च सेंटर' द्वारा किये गए एक सर्वे में यूरोपीय मुसलमानों से सवाल पूछा गया था कि क्या इस्लाम की रक्षा के नाम पर नागरिकों पर किये जा रहे आत्मघाती तथा दूसरे जिहादी हमलों को उचित ठहराया जा सकता है? फ्रांस में 36 प्रतिशत मुसलमानों ने कहा कि ये हमले जायज हो सकते हैं। इसी प्रकार ब्रिटेन में 30 प्रतिशत, जर्मनी में 17 प्रतिशत और स्पेन में 31 प्रतिशत मुसलमानों ने इन हमलों को इस्लाम संगत बताया। निश्चित रूप से सभी मुस्लिम आतंकवाद का समर्थन नहीं करते, लेकिन कट्टरपंथियों की अच्छी-खासी संख्या है, इस पर कोई शक करने की गुंजाइश नहीं है। ऐसे में निरंतर हो रहे जिहादी आतंकी हमलों ने पश्चिम में घबराहट पैदा कर दी है जो धीरे-धीरे संगठित आक्रोश का रूप ले रही है।
कुछ दशक पहले यूरोप सोवियत धड़े से मिलने वाली चुनौती को लेकर चिंतित था। सुरक्षा विशेषज्ञ परमाणु युद्ध की संभावनाओं पर बहस किया करते थे और पश्चिमी समाजशास्त्री हिप्पी, मादक पदार्थ, युवाओं में बढ़ती आक्रामकता और अवसाद की चर्चा किया करते थे। आज जिहादी हमले और इस्लामिक चरमपंथ उनकी चिंता में सबसे ऊपर हैं। शायद इसलिए अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप सफलता की सीढि़यां चढ़ते जा रहे हैं। ग्रीस, फ्रांस, स्वीडन, जर्मनी सब जगह दक्षिणपंथी कहलाने वाले दल उभार पर हैं। लोग चाहते हैं कि जिम्मेदार लोग दाएं-बाएं, इधर-उधर की बात न करते हुए सीधे मुद्दे पर आएं और समाधान की बात करें।
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