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आतंक का आधार

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May 16, 2016, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 16 May 2016 16:05:51

बांग्लादेश में जिस तरह उसकी आजादी के बाद मुल्ला-मदरसों का दबदबा बढ़ता गया है उससे वहां कट्टर इस्लाम के पैरोकारों को हवा ही मिली है। आज वहां आतंक सिर चढ़कर बोल रहा है

मेजर जनरल (रिटा.) मोहम्मद अब्दुर राशिद
कट्टरपंथी विचार दुनिया भर में खून-खराबा करने वाले जिहादी तैयार करने का प्रमुख माध्यम बन गई है। आइएसआइएस के कसाई 'जिहादी जॉन', बांग्लादेश में जन्मी ब्रिटिश किशोरी जिहादी दुल्हन शर्मीना बेगम, पांच सदस्यीय ब्रिटेनी ब्रिगेड, बांग्लादेशी 'बैड बॉयज' जिहादी तैयार करने के ज्वलंत उदाहरण हालांकि यह नई बात नहीं है, लेकिन दुनिया में संपर्क-संवाद और कहीं भी आने जाने की सहूलियत के चलते किसी एक देश के नागरिक का बहुत दूर किसी सशस्त्र संघर्ष का हिस्सा बनने से यह खतरा बढ़ता जा रहा है।
जिहादी बताना ऐसी प्रक्रिया है जिससे कोई व्यक्ति या समूह बेहद उग्र राजनीतिक, सामाजिक या मजहबी विचारों और आकांक्षाओं का गुलाम बन जाता है।  
अक्सर कहा जाता है कि पिछड़े सामाजिक-आर्थिक परिवेश या खराब माहौल तथा उसमें अपनी स्थिति से उकताए लोग जिहादी बनते हैं। हालांकि किसी के जिहादी होने के पीछे यही कारण जरूरी नहीं हैं, जैसा कि कुछ मामलों में देखा गया है, जिहादी समृद्ध परिवारों में से भी तैयार हो रहे हैं।
ढाका में पकड़े गए बांग्लादेशी आतंकी संगठन अंसारुल्लाह बांग्ला टीम के आतंकियों ने माना कि उनके संगठन का ढांचा, विचारधारा और रणनीति अल ़कायदा के नक्शेकदम पर ही है। यह चार चरणों वाली रणनीति पर काम करता है—दावा यानी लोगों को इस्लाम में शामिल करना, इदाद यानी अंसारों की भर्ती, रिबत यानी हथियारबंद संघर्ष की तैयारी, और यह नाकाम रहे तो कितल यानी जिहाद यानी लोगों को जान से मारना।  
आतंकवाद को अक्सर भू-राजनीति के अस्त्र या विदेश नीति के विस्तार के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है। आतंकी संगठनों को सरकारें अस्थिर करने, या सत्ता में बदलाव या आंतरिक राजनीतिक आयामों को प्रभावित करने या किसी दूसरे देश को अपने सामने झुकाने या इन सबको अंजाम देने के लिए प्रयोग किया जाता है। आतंक के लिए उपजाऊ जमीन तैयार करने को सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियों में बदलाव किया जाता है। इराक और सीरिया तथा अफगानिस्तान ऐसी नीतियों के जीते-जागते उदाहरण हैं।  
सीरिया में एक विरोध प्रदर्शन बाहरी ताकतों की सक्रिय शह पर सशस्त्र संघर्ष में बदल गया। बांग्लादेशी प्रवासी किशोरी शर्मिना बेगम ने 'जिहादी बेगम' बनना मंजूर कर लिया। उसे पूर्वी लंदन की एक मस्जिद में जिहाद का सबक पढ़ाया गया था। पोर्ट्समाउथ के पांच लड़कों को जिहादी बनने की पट्टी स्थानीय मस्जिद में पढ़ाई गई थी।  कैलिफोर्निया के सान बर्नानडिनो के हत्यारे जोड़े को पाकिस्तानी बीवी ने जिहादी सबक सिखाया था। बांग्लादेशी ब्लॉगर के हत्यारे ने माना कि उसे एक मदरसे में जिहाद का सबक पढ़ाया गया और उसके बड़े भाई ने उसे ब्लॉगर वशीकुर रहमान बाबू की हत्या करने का फरमान दिया। उसका विश्वास था कि किसी 'काफिर' की हत्या जन्नत में उसकी जगह पक्की करेगी। मौजूदा पीढ़ी का जिहादीकरण और आतंकवाद सऊदी अरब के कट्टर सल्फीवाद वाली इस्लामी मज़हबी सत्ता पर आधारित है।  आइएस की सोच सुन्नी इस्लाम की मध्ययुगीन कट्टरता के बर्बर क्रियान्वयन पर टिकी है।   
बांग्लादेश में उन्माद का प्रसार
बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के दौरान आधिपत्य रखने वाली पाकिस्तानी सेना और उनके स्थानीय पिट्ठुओं को बांग्लादेशी आबादी के खिलाफ उकसाने के लिए इस्लाम का इस्तेमाल किया गया था। आजादी के बाद बांग्लादेश ने 1972 में अपना संविधान लागू करके सेक्युलर संस्कृति को संस्थागत कर दिया और तमाम मजहब आधारित राजनैतिक दलों को राजनीति से प्रतिबंधित कर दिया। लेकिन कट्टरपंथी विचार फैलाने की सावधानी से तैयार साजिश को शांतिपूर्ण तरीकों से अंजाम दिया गया। मस्जिदों और मदरसों का कट्टरवाद के केंद्रों के बतौर इस्तेमाल किया गया। सेक्युलर मूल्यों की जगह मजहबी मूल्य लाने के लिए सेक्युलर संविधान बदलकर सैन्य शासकों ने पाकिस्तानी रास्ता अपनाया। इस्लाम आधारित राजनैतिक दल जन्मे और राज्य ने  कट्टरता रोपने की इस साजिश को संरक्षण देना शुरू किया जबकि इस बीच आतंकी संगठनों को खड़ा करके उनको सींचने का काम शुरू हो चुका था। देश के दरवाजे भारतीय अलगाववादियों और म्यांमार के कट्टरवादियों के लिए खुले थे। मदरसों और मस्जिदों की संख्या बेरोकटोक बढ़ने लगी और इस तरह एक सेक्युलर राज्य पर वहाबी संस्कृति का हमला शुरू हुआ। सामाजिक और सांस्कृतिक लड़ाई ने आकार लिया  जिससे अशांति और असहिष्णुता बढ़ गई। पश्चिम एशिया के सुन्नी राजतंत्रों और पश्चिमी यूरोप के अप्रवासियों से भारी रकम आई जिसने कट्टरपंथ को तेजी से बढ़ाते हुए आतंकी गुटों को मजबूती दी।
1971 में दाखिल, आलिम, फाजिल और कामिल मदरसों की कुल संख्या 5,075 थी। 2007 में यह 9,493 पर जा पहुंची। ब्यूरो ऑफ एजुकेशनल इन्फॉर्मेशन एंड स्टैटिस्टिक्स की पिछले साल की रिपोर्ट के अनुसार पूरे देश में 13,902 कौमी मदरसों में 1.4 करोड़ बच्चे तालीम ले रहे थे। अनधिकृत रिपोर्ट बताती हैं कि देश में करीब 37,000 मदरसे हैं  जहां 3,340,800 छात्र व 2,30,732 मौलवी हैं।

जिहादी सोच का प्रतिकार
क्या पढ़ाया जा रहा है, क्या नहीं, इस पर नजर रखनी होगी। जिहाद की भ्रामक व्याख्या, सामाजिक और लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के खिलाफ तथाकथित मजहबी विद्वानों द्वारा बेरोकटोक प्रचार की जांच होनी चाहिए और बोलने की आजादी का मतलब नफरत फैलाना नहीं होना चाहिए। मुसलमानों को बिना हिंसा के असहमति जताना सीखना चाहिए। युद्धप्रिय इस्लाम असली इस्लाम न होकर राजनैतिक हथियार है। देश में एक जैसी शिक्षा प्रणाली लागू की जानी चाहिए। मदरसों में दी जाने वाली शिक्षा को राज्य के नियंत्रण में लाया जाना चाहिए ताकि वे कट्टरवाद का कारखाना न बनकर राष्ट्र निर्माण की इकाई बनें। इस्लामी एनजीओ और चैरिटेबल संस्थाओं को राज्य के नियंत्रण में काम करना चाहिए और उनके कायोंर् का दायरा भी विकासोन्मुख होना चाहिए।
इस्लाम राष्ट्र का मजहब नहीं होना चाहिए। जब सरकारें सेक्युलर होगीं तो मजहबी नेता शक्ति बढ़ाने और विवादों के बजाए सिविल सोसाइटी और सामाजिक मूल्यों पर ध्यान देंगे। पुलिस सेवा में सुधार और बदलाव की आवश्यकता है। आतंकवाद  और आपराधिक तंत्र का मुकाबला करने के लिए मजबूत खुफिया तंत्र और पुलिस-जनता सहयोग की आवश्यकता है। बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना द्वारा प्रस्तावित क्षेत्रीय कार्यबल का गठन किया जाना चाहिए जिसमें सुरक्षा बलों, गुप्तचरी, सिविल सोसाइटी, शोधकर्ता, कलाकार और मजहबी विद्वानों की सहभागिता होनी चाहिए। यह कार्यबल मजबूत होने के साथ-साथ लचीला हो जिसमें क्षेत्र आधारित क्षेत्रीय जुड़ाव होना चाहिए। आसन्न खतरे, उनके प्रकार और संरक्षण के स्रोत से जुड़ी त्वरित जानकारी देकर सुरक्षा बल इनसे मुकाबला करने में मदद कर सकते हैं। अच्छे और बुरे आतंकवादियों के बीच फर्क की अवधारणा को दूर किया जाना चाहिए। क्षेत्रीय मेलजोल संभव न भी हो तो उप क्षेत्रीय पहल की जानी चाहिए, जिससे लाभ दिखाई दें।
(लेखक बांग्लादेश के इंस्टीट्यूट ऑफ कन्फ्लक्टि, लॉ एंड डेवलपमेंट स्टडीज के कार्यकारी निदेशक हैं)

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