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काकोरी काण्ड के मुकदमे की सुनवाई विशेष अदालत में जज हेमिल्टन के सामने लगभग 10, 11 महीने तक चलती रही। उस अर्से में कई छोटी-मोटी, प्रिय-अप्रिय घटनाएं हुई थीं, जिसका वर्णन करने की यहां आवश्यकता नहीं है। अंत में छह अप्रैल 1927 को अदालत ने फैसले की तारीख निश्चित की। 5 अप्रैल 1927 की वह ऐतिहासिक रात हम लोगों ने किस प्रकार बिताई इसकी थोड़ी सी झलक मैं यहां देना चाहता हूं। दूसरे दिन हम लोगों को अपने-अपने भाग्य का फैसला सुनने जाना था।
हमारी उस खुद की 'अदालत' में….
कई दिनों से किसको कितनी सजा हो सकती है इसकी चर्चा आपस में स्वाभाविक रूप से होती रहती थी, किन्तु उस रात हम लोगों ने अपनी स्वयं की एक अदालत (नाटक रूप में) बिठाकर हर एक के भाग्य का फैसला सुनाया। सबसे पहले पं. रामप्रसाद बिस्मिल के भाग्य का फैसला सुनाया गया और उनके ''गुनाहों'' की एक लम्बी-चौड़ी फेहरिस्त गिनाई गई- जिसमें भारत देश को ''दयालु ब्रिटिश साम्राज्य'' से छीनने की कोशिश करना मुख्य अपराध बतलाकर उन्हें एकदम 'मृत्युदंड' सुनाया गया।
फिर दूसरा नंबर श्री शचीन्द्रनाथ सान्याल का आया। उनके 'अपराधों' की भी एक काफी लम्बी सूची थी। उनके 'अपराध' और भी संगीन दृष्टि से देखे गए थे। इसका कारण यह था कि ''मां बाप अंग्रेज सरकार'' ने उन्हें इससे पूर्व भी बनारस षड्यंत्र केस में आजीवन कालेपानी की सजा दी थी, क्योंकि वे उन प्रसिद्ध, 'पुराने और पागल' विप्लवी रासबिहारी बोस के दाहिने हाथ थे- जिन्होंने लार्ड हार्डिंग्ज पर बम फिकवाया था-अत: उनको अण्डमान सरीखे ''स्वास्थ्यकर'' टापू की सेलूलकर जेल में रख कर अपना 'दिमाग सुधारने' का मौका दिया गया था। यहां से लौटने के बाद जब उन्होंने एक सुन्दर युवती से शादी कर ली तो हमारी ''अच्छी सरकार'' धोखे में आ गई कि शायद उनका (शचीन दा) का दिमाग कुछ 'सही' हो गया है किंतु अन्त में वे 'पागल' दिमाग के क्रांतिकारी ही निकले और उन्होंने फिर से उत्तर भारत मेंे एक ''खतरनाक'' पार्टी ''हिन्दुस्तान रिपब्लिकन पार्टी'' के नाम से इतनी ''अच्छी सरकार'' को उखाड़ फेंकने के लिए संगठन किया। उन्होंने 'रिवोल्यूशनरी'(क्रान्तिकारी) नाम का पर्चा छपवा कर समग्र भारत में यहां तक कि बर्मा और लंका में भी एक ही दिन बंटवाया तथा जनता के दिमाग को 'खराब' करने का दुष्कृत्य किया। सबसे बड़ा 'अपराध' उन्होंने यह किया कि ''बन्दी-जीवन'' नाम की प्रसिद्ध पुस्तक लिखकर नौजवानों को गुमराह किया।
''हिन्दुस्तान रिपब्लिकन दल'' के विधान को बनाने का काम भी आप ही का था, जिसके उद्देश्य में ''मनुष्य मनुष्य का शोषण कर सके जैसी खतरनाक'' बात लिखी थी।'' अपराधों की यह सूची सुनाने के बाद उन्हीं से पूछा गया कि उन्हें भी फांसी की सजा क्यों न दी जाए? उस पर शचीन दा ने मुस्कराकर जवाब दिया- ''जब आप मां-बाप सरकार'' बने बैठे हैं तो जिसकी पत्नी सुन्दर और युवती हो-उसको आप फांसी कैसे दे सकते हैं ? इस पर हमारी 'अदालत' ने पुन: विचार किया और शचीन दा को सिर्फ आजीवन कारावास का दंड सुनाया गया। इस प्रकार हर एक को उसके ''अपराध'' सुनाकर तद्नुसार उसे सजा सुना दी गई थी।
ठाकुर रोशन सिंह के विरुद्ध कोई सरकारी गवाही एक प्रकार से हुईं ही नहीं थी। इस कारण हम लोगों के विचार से उन्हें ज्यादा से ज्यादा पांच वर्ष की सजा होनी चाहिए थी। अत: हमारी 'अदालत' ने ठाकुर साहब को पांच ही साल की 'सजा' सुनाई। इस पर वे बहुत बिगड़े और अपनी 'सजा' को हंसी के रूप में न लेकर गुस्से में आ गए। बोले– बदमाशो! मैं तो 'कोदू' बेचकर आया हूं। और कम सजा सुनाओ। तुम लोगों का बस चले तो इस अभागे को शायद छोड़ ही दो।''
मुझे याद है कि मैंने उनको और भी चिढ़ाने के ख्याल से कहा था- ''ठाकुर साहब! हमारी अदालत के सामने बिगड़ने से काम नहीं चलेगा। आपकी तो सिर्फ ''बमरौली'' (डकैती) मेें आवाज सुनी गई थी। आपकी सी आवाज तो और भी किसी की हो सकती है। हम आपको पांच साल की सजा सुनाकर आप पर मेहरबानी कर रहे हैं।'' इस पर सभी एक साथ हंस पड़े किन्तु ठाकुर साहब और भड़क उठे। कहने लगे ''ऐ कंजी आंख वाले! (मेरी ओर इशारा करके)बहुत ज्यादा अपने आप को मत समझ। बड़े आए हमको 'कुछ दिनों' की सजा देने वाले। बच्चू, बाहर होता तो हमारी ऐसी तौहीन करने पर तुम्हें वह मजा चखाता कि जिन्दगी भर न भूलते।'' मैं उन्हें और भी चिढ़ाने जा ही रहा था कि कर दा (गोविन्द कर) व दुबलिश जी ने मुझे रोक दिया। किन्तु उनसे फिर भी कर दा ने यही कहा-''ठाकुर साहब''! आप इन बच्चों पर बेकार बिगड़ता है। वैसे सही पूछो तो सबूत को देखते हुए आपको ज्यादा सजा हम सब समझता है, नहीं ही मिलना चाहिए।'' वहां का हाल यह था कि जिस किसी साथी को औरों से कम सजा सुनाते तो वह अपना अपमान समझने लगता था। वैसे ठाकुर साहब को छोड़कर किसी ने कुछ कहा नहीं किन्तु कम सजा सुनने वाले साथी दिल में उदास अवश्य हो गए। सबूत को देखते हुए हम लोगों के विचार से फांसी की सजा यदि किसी को हो सकती थी तो वह पं. 'बिस्मिल' को, आजीवन कारावास श्री शचीन्द्रनाथ सान्याल व राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी को तथा शेष लोगों को पांच-पांच व दस वर्ष की सजा। दरअसल सभी की राय में ठा. रोशन सिंह को पांच साल से ज्यादा सजा नहीं होनी चाहिए थी। उस रात बारह एक बजे तक यह नाटक चलता रहा और हम लोग इसी प्रकार एक दूसरे के भाग्य का 'फैसला' करते रहे।
छोटी सी इच्छा ….
आखिर वह सन् 1927 की छह अप्रैल का सूर्य निकला। हम लोग प्रात:काल ही जल्दी जल्दी स्नानादि प्रात: कालीन क्रियाओं से निवृत्त हुए। उस रोज सभी सथियों के चेहरों पर एक अजीब गम्भीरता छायी थी। हरएक के हृदय में एक अजीब उथल-पुथल हो रही थी। जीवन-मरण के साथियों के बिछुड़ने का इतना गहरा दु:ख होता है, यह मुझे उसी दिन अनुभव हुआ। पं. रामप्रसाद 'बिस्मिल् ा' कट्टर आर्य समाजी थे। वे अपना भोजन-अलग बनाया करते थे। उस दिन भी वे अपने-पूजा पाठ, हवन आदि से निवृत्त होकर भोजन करने बैठे ही थे कि पीछे-पीछे मैं पहुंच गया और हाथ जोड़कर डबडबाई हुई आंखों से उनसे प्रार्थना की''पंडित जी, मालूम नहीं कि आज इस बैरक से जाने के बाद हम लोग दोबारा मिल पाएं- न मिल पाएं ! मेरी एक छोटी सी इच्छा है कि यदि आप आज्ञा दें तो पूरी कर लूं ? यह सुनकर पंडित जी अभिभूत हो उठे। पूछने लगे- '' क्या चाहते हो भाई ? मैंने कहा- आज मैं अपने हाथ से आपको दो कौर खिलाना चाहता हूं।'' तत्काल अपने भोजन की थाली मेरे सामने करके बोले- '' लो भाई, खिलाओ। मैं भी तुम्हें आज हमने हाथ से खिलाऊंगा।'' हम दोनों एक दूसरे को खिला ही रहे थे कि यह खबर बिजली ही भांति सभी साथियों में फैल गई।
वे हृदयद्रावक क्षण….
फिर सभी साथी दौड़े-दौड़े आए और उन सभी ने भी पंडित जी को एवं आपस में एक दूसरे को खिलाना शुरू कर दिया। वह भोजन कराना नहीं था बल्कि एक प्रकार से एक दूसरे से आखिरी विदाई ली जा रही थी। हम लोगों के हाथ एक दूसरे के मुंह में कौर के साथ जाते थे और उधर आंखों से टप-टप आंसू गिरते जा रहे थे। एक अजीब हृदय विदारक दृश्य था। कभी-कभी आज भी उस दृश्य की याद आती है तो दिल रो उठता है।
पुलिस की एक विशेष व्यवस्था में हम सभी साथी अदालत ले जाए गए। जज ने फैसला सुनाना शुरू किया। सबसे पहले अंग्रेज जज (हैमिल्टन) ने पं. रामप्रसाद बिस्मिल का नाम पुकारा और उन्हें धारा 396 एवं 120 बी के अंतर्गत मृत्युदंड सुनाया। दूसरे नम्बर पर उसने श्री राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी को भी उन्हीं सब दफाओं में उतनी ही सजा सुनाई किन्तु जैसे ही हैमिल्टन ने तीसरा नाम ठाकुर रोशन सिंह का पुकारा, हम सब आश्चर्यचकित और कुछ हतप्रभ से हो गए।
जजवा का बकर-बकर कर गवा ?
उन्हें जज ने पहली दो दफाओं में पांच-पांच साल के कारावास का दंड अंग्रेजी में सुनाया। हम लोग कुछ आश्वस्त होने जा ही रहे थे कि इसी बीच दफा 396 में फांसी की सजा सुना दी। वह अप्रत्याशित सजा सुनकर हमारे दिलों पर मानों वज्रपात सा हो गया। ठाकुर साहब ! और फांसी की सजा। हममें से कोई भी अब इस मन:स्थिति में नहीं रहा कि जज आगे क्या फैसला सुना रहा है, उसे ठीक से सुन सकें। ठाकुर साहब अंग्रेजी बिल्कुल नहीं जानते थे, इस कारण जज ने जो अंग्रेजी में फाइव इयर्स-फाइव इयर्स'' कहा वह उतना हिस्सा तो समझ गए किन्तु बाद की अंग्रेजी उनकी समझ में नहीं आई। दुबलिश जी उनके पास ही खड़े थे। उनसे रोशन सिंह ने पूछा- ''जजवा यह बाद में का बकर-बकर कर गवा।''
'क्यों पंडित! अकेले जाना चाहते थे ?
दुबलिश जी को डर था कि फांसी की अप्रत्याशित सजा सुनकर कहीं वे सदमे के कारण गिर न पड़ें। इस विचार से उन्होंने अपना दाहिना हाथ उनकी कमर में लगाकर कहा- ''ठाकुर साहब! जज ने आपको फांसी की सजा सुनाई है।'' इतना सुनते ही ठाकुर साहब का चेहरा खिल उठा, ऐसे कि जैसे गुलाब का फूल। तुरन्त ही पं. रामप्रसाद बिस्मिल की ओर घूमकर बोले- ''क्यों पंडित! अकेले जाना चाहते थे?'' ठाकुर साहब का यह व्यवहार देखकर सब दंग रह गए।
सजा सुनाकर जज चला गया। पुलिसवालों ने फांसी की सजा पाए तीनों साथियों को सबसे पहले ले जाने की जल्दी मचाई किन्तु उन्हें हम लोगों ने ऐसा करने से रोका कि ''हमें उनसे अंतिम बार मिल लेने दीजिए-अब तो इस जीवन में मिल पाना मुश्किल है।'' यह सुनकर सिपाही रुक गए। सबसे पहले मैंने अपनी जेब से जेल से लाए हुए फूल निकाले और उन्हें पं. रामप्रसाद बिस्मिल श्री राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी एवं ठाकुर रोशनसिंह के चरणों में रखकर प्रणाम किया। उन तीनों ने मुझको कसकर गले से लगाया। गले लगाते वक्त पंडित जी ने कहा था- ''खत्री भाई, तुम्हारे इस अटूट प्रेम भरे व्यवहार को फांसी पर चढ़ते समय तक याद रखूंगा।'' उसके बाद सब साथियों ने मेरे पास से बचे हुए फूल लेकर आपस में बांट लिए और एक-एक कर सबने अपने बिछुड़ने वाले तीनों साथियों को प्रणाम कर उनके चरणों पर फूल चढ़ाए। चिर विदा के इन क्षणों में उम्र और पद वरिष्ठता की सभी दीवारें ढह गईं। छोटे-बड़े का विचार तिरोहित हो गया। श्री शचीन दा, कर दा एवं सुरेश दा सरीखे ज्येष्ठ साथियों ने भी भावविभोर होकर उक्त तीनों महाविभूतियों के चरण छुए थे। -रामकृष्ण खत्री
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