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देवेन्द्र स्वरूप
सन् 1964 की बात है। मैं तब लखनऊ विश्वविद्यालय का शोध छात्र था और अपने कार्य को आगे बढ़ाने के लिए आर्थिक सहारे की खोज कर रहा था। छात्रवृत्ति या शिक्षक की नौकरी के रूप में। उन्हीं दिनों मुझे दिल्ली से एक पोस्ट कार्ड मिला, जिस पर लिखा था, ''मेरे कॉलेज में इतिहास विभाग में चयन होने वाला है। तुम इन्टरव्यू के लिए आ जाओ।'' पत्र दिल्ली से था और लिखने वाले थे प्रो. बलराज मधोक, जो पी.जी.डी.ए.वी. कॉलेज की सांध्य कक्षाओं में इतिहास के शिक्षक थे। उनसे मेरी पहली भेंट 1952 में लखनऊ में अमीनाबाद स्थित भारतीय जनसंघ के प्रांतीय कार्यालय में हुई थी। वे प्रथम आम चुनाव के लिए उत्तर प्रदेश में भारतीय जनसंघ का प्रचार करने आए थे और मुझे संघ की योजना से भारतीय जनसंघ के प्रचार विभाग का दायित्व संभालने के लिए लखनऊ में अमीनाबाग पार्क स्थित जनसंघ के प्रांतीय कार्यालय में भेज दिया गया था।
उस पोस्ट कार्ड के भरोसे मैं दिल्ली पहुंच गया। संयोगवश उन दिनों बलराज जी दिल्ली से बाहर थे, किन्तु पी.जी.डी.ए.वी. कॉलेज की सांध्य कक्षाओं में इतिहास के शिक्षक के रूप में मुझे नियुक्ति मिल गई। छुट्टियों से वापस लौटने के बाद बलराज जी के सहयोगी के नाते मुझे एक ही विभाग में साथ-साथ काम करने का सुअवसर मिला।
सन् 1948-49 में जब संघ के भीतर एक बहस छिड़ी थी कि संघ राजनीति में भाग ले या न ले, बलराज जी राजनीति में हस्तक्षेप करने के प्रबल पक्षधर थे। उन्होंने 'ऑर्गनाइजर' में एक लेख द्वारा संघ प्रेरित राष्ट्रवादी विचारधारा पर अधिष्ठित एक राजनीतिक दल की रूपरेखा भी प्रस्तुत की थी। वे जल्दी से जल्दी राजनीति में हस्तक्षेप के लिए व्याकुल थे। अंबाला के डी.ए.वी कॉलेज में शिक्षक रहते हुए उन्होंने एक छात्र संगठन का सूत्रपात किया, जो अब अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के नाम से देश के विशालतम छात्र संगठनों में गिना जाता है। अंबाला में रहते हुए ही उन्होंने एक नए राजनीतिक दल का ढांचा खड़ा करने के लिए एक सम्मेलन दिल्ली में बुलाया, जिसने भारतीय जनसंघ का रूप धारण कर लिया।
बलराज जी प्रखर राष्ट्रवाद के प्रवक्ता के रूप में जाने जाते थे, और जहां भी बैठते, अपने विचारों को बहुत आक्रामक रूप से प्रस्तुत करते। वे इस बात की चिंता नहीं करते थे कि उनके कथन की सुनने वालों पर क्या प्रतिक्रिया हो रही है। वे उन्हें पसंद करते हैं या नहीं। उन दिनों पी.जी.डी. ए.वी. कॉलेज की कक्षाएं पहाड़गंज के निकट चित्रगुप्ता रोड पर लगा करती थीं। मुझे स्मरण है कि बलराज जी की वरिष्ठता, राजनीतिक लोकप्रियता के कारण हमारे कॉलेज के सभी शिक्षक उनका बहुत आदर करते थे और उनके विचारों और आक्रामक शैली से सहमत न होते हुए भी उनके सामने बोलने का साहस नहीं करते थे। ऐसे कई दृश्य मेरी आंखों में घूम रहे हैं। जब बलराज जी स्टाफ रूम में घुसते और शिक्षक उन्हें सम्मानपूर्वक प्रणाम करते हुए देखते कि वे कहां बैठने वाले हैं। स्वाभाविक ही बलराज जी उस कोने की ओर बढ़ते, जहां वे अधिक से अधिक सहयोगियों को अपनी बात सुना सकें । किन्तु धीरे-धीरे स्टाफ वहां से खिसकता जाता और बलराज जी अपनी बात कहने के लिए अकेले रह जाते।
अपनी आक्रामक शैली के बावजूद बलराज जी अपने सभी सहयोगियों के प्रति चाहे वे वामपंथी रामलाल धूरिया हों या संघ के प्रति मोहभंग की स्थिति से गुजर रहे हिन्दी विभाग के एक पूर्व स्वयंसेवक, अपार स्नेह भाव और प्रत्येक की सहायता करने को तत्पर रहते थे। अपनी बेबाक आक्रामक अभिव्यक्ति के कारण वे शिक्षकों में तो विवादास्पद थे ही, संघ परिवार के भीतर भी विवादास्पद बन गए थे। जनसंघ के दूसरे लोकप्रिय नेता अटल बिहारी वाजपेयी को उनके प्रतिद्वंद्वी के रूप में देखा जाता था। यद्यपि व्यक्तिगत अनुभव से मैं कह सकता हूं कि इसमें सत्यांश कम और अतिरेक अधिक था।
सच बात यह है कि बलराज जी विचारों में उग्र और चरमपंथी होते हुए भी स्वभाव से बहुत शुद्ध थे। वे किसी पर भी सरलता से विश्वास कर लेते थे। व्यक्तियों की पहचान में वे कमजोर थे। मुझे स्मरण है कि उनकी धर्मपत्नी स्व. कमला मधोक जी, जो कालिंदी कॉलेज में हिन्दी की शिक्षिका थीं, बहुत मितभाषी और संयत स्वभाव की धनी थीं। बलराज जी चाहे जिस पर विश्वास करते और उनको अपने मन की बातें उडे़लने से वह त्रस्त रहती थीं। एक बार उन्होंने मुझे बताया कि बलराज जी चाहे जिस पर भरोसा करके उसे घर ले आते हैं, खूब स्वादिष्ट भोजन कराते हैं और उनके सामने मन की बातें उड़ेल देते हैं, उन्हें पता ही नहीं कि वह व्यक्ति उनका आलोचक है। यही कारण है कि बलराज जी किसी गुट के केन्द्र नहीं बने और गुटबाजी से हमेशा दूर रहे।
बलराज जी के मन में यह बैठ गया था कि वे राजनीति में प्रभावी भूमिका अदा कर सकते हैं। इसलिए भारतीय राष्ट्रवाद पर अधिष्ठित राजनीति के संचालन में उन्हें केंद्रीय भूमिका मिलनी चाहिए। इसीलिए पंडित दीनदयाल उपाध्याय की सौम्य और संस्कृति प्रधान शैली उन्हें पसंद नहीं थी और आगे चलकर अभिव्यक्ति व राजनीतिक कार्यशैली का यह अंतर बलराज बनाम अटल बिहारी रंग धारण कर गया।
इसके फलस्वरूप बलराज जी ने अटल जी का खुला विरोध करना शुरू कर दिया। मैं उन दिनों पाञ्चजन्य का संपादन कर रहा था। इसलिए दोनों नेता पाञ्चजन्य को अपने दृष्टिकोण व अभिव्यक्ति का साधन बनाना चाहते थे। स्थिति यहां तक पहुंच गई कि जनसंघ के एक अधिवेशन में बलराज जी ने अटल जी की नीतियों की अलोचना में एक पत्रक बंटवाया और उसमें मुझे भी अटल जी का चमचा घोषित कर दिया। यह सब होते हुए भी उनकी स्नेह-छाया मुझ पर उनके अंतिम क्षणों तक बनी रही। 1975 में इंदिरा गांधी ने देश पर आपातकाल थोपा और बलराज जी को पहली खेप में ही गिरफ्तार करके पूरे 19 महीने मीसा के अंतर्गत जेल में बंद रखा। 1979-80 में जनता पार्टी के विघटन के समय जनसंघ के अधिकांश कार्यकर्ताओं ने अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एक नया दल गठित किया, जबकि बलराज मधोक अकेले ही भारतीय जनसंघ की पताका फहराते हुए साथियों से अलग हो गए। तब से लेकर जीवन के अंत तक वे भारतीय राजनीति में भारतीय जनसंघ की पताका फहराते रहे और दो मई, 2016 को 96 वर्ष की आयु में उनके निधन को मीडिया ने जनसंघ नेता की मृत्यु के रूप में प्रस्तुत किया। (03 मई, 2016)
उनकी भविष्यवाणी सही सिद्ध हुई
आऱ के. सिन्हा
मधोक जी ने श्यामा प्रसाद मुखर्जी के साथ मिलकर जनसंघ का संविधान लिखा था। जहां तक मैं जानता हूं, मधोक साहब ने ही सबसे पहले 1968 में राम मंदिर को हिंदुओं को सौंपने की मांग की थी। वे गो-रक्षा आंदोलन से भी जुड़े रहे। वे नरेन्द्र मोदी को देश का प्रधानमंत्री देखना चाहते थे। मधोक जी की पुत्री माधुरी ने मुझे बताया कि बीते लोकसभा चुनाव के समय वे एक दिन नरेन्द्र मोदी से बात करने की जिद करने लगे। घर वालों ने मोदी जी से संपर्क किया। वे चुनावी कार्यक्रमों में व्यस्त थे। खैर, बात हो गई। तब मधोक जी ने मोदी जी से कहा था कि चुनाव के बाद वे ही प्रधानमंत्री के पद पर आसीन होंगे और भाजपा को पूर्ण बहुमत मिलेगा। उनकी भविष्यवाणी सही साबित हुई।
मेरी उनसे पहली मुलाकात 1966 में पटना में हुई थी। मधोक साहब ही आडवाणी जी को जनसंघ में लेकर आए थे। घटना कुछ ऐसी है कि एक दिन दीनदयाल जी ने मधोक जी से कहा कि मुझे एक अंग्रेजी का अच्छा ज्ञाता व्यक्ति चाहिए, जो हमारे प्रस्तावों का अंग्रेजी में अनुवाद कर सके। तब मधोक जी ने कहा कि मैं एक अच्छे स्वयंसेवक को जानता हूं, जो कराची के कान्वेंट में पढ़ा है। और, आडवाणी जी जनसंघ में आ गए। उसके बाद का इतिहास तो सबको मालूम ही है।
मधोक जी के दिल्ली के राजेंद्र नगर स्थित घर में रखी हजारों पुस्तकों को देखकर समझ आया कि वे कितने बड़े सरस्वती पुत्र थे। उनकी अंत्येष्टि के मौके पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, लालकृष्ण आडवाणी, अरुण जेटली समेत भाजपा के तमाम वरिष्ठ नेता मौजूद थे। यह इस बात का संकेत था कि मधोक जी से वैचारिक मतभेदों के बावजूद सब उनका हृदय से सम्मान करते हैं।
मधोक 18 साल की आयु में अपने छात्र जीवन में ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सम्पर्क में आये। सन् 1942 में भारतीय सेना में सेवा (कमीशन) का प्रस्ताव ठुकराते हुए उन्होंने संघ के प्रचारक के रूप में देश की सेवा करने का व्रत लिया।
उन्होंने फरवरी, 1973 में कानपुर में जनसंघ की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सामने एक नोट प्रस्तुत किया। उस नोट में मधोक जी ने आर्थिक नीति और बैंकों के राष्ट्रीयकरण पर जनसंघ की घोषित विचारधारा के उलट बातें कही थीं। इसके अलावा मधोक जी ने कहा था कि जनसंघ पर संघ का असर बढ़ता चला जा रहा है। मधोक जी ने संगठन मंत्रियों को हटाकर जनसंघ की कार्यप्रणाली को ज्यादा लोकतांत्रिक बनाने की मांग भी उठाई थी। लालकृष्ण आडवाणी उस समय जनसंघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष बन चुके थे। वे मधोक जी की इन बातों से इतने नाराज हो गए कि उन्होंनेे उन्हें पार्टी का अनुशासन तोड़ने और पार्टी विरोधी गतिविधियों में शामिल होने की वजह से तीन साल के लिये पार्टी से बाहर कर दिया। इस घटना से बलराज मधोक इतने आहत हुए थे कि फिर कभी पार्टी में वापस नहीं लौटे।
दरअसल, मधोक जी जनसंघ के जनता पार्टी में विलय के खिलाफ थे। उन्होंने 1979 में जनता पार्टी से इस्तीफा देकर जनसंघ को अखिल भारतीय जनसंघ का नया नाम देकर पुनर्जीवित करने का प्रयास किया, लेकिन उन्हें कामयाबी नहीं मिली। तब तक गुजरे दौर के योद्धा पर बढ़ती उम्र का असर दिखाई देने लगा था, लेकिन वे निरंतर लेखन करते रहे, अपनी बात देश के सामने रखते रहे। (लेखक राज्यसभा सांसद हैं)
ऐसे थे मेरे पिता जी
डॉ. माधुरी मधोक
मेरे पिता जी श्री बलराज मधोक शारीरिक रूप से अब नहीं रहे, लेकिन उनके कर्म सदैव हमें यह सिखाते रहेंगे कि विपरीत हालत में भी धैर्य नहीं खोना। वे विद्वान, तपस्वी और भारत मां के सच्चे सपूत थे। उनकी भारत-भक्ति गजब की थी। वे आजीवन भारत के लिए सोचते रहे, भारत के लिए लिखते रहे और भारत के लिए कर्म करते रहे। उनकी वीरता, विद्वता और दृढ़ता के अनेक उदाहरण हैं। उनकी वीरता की एक बात बताना चाहूंगी। यह बात अक्तूबर, 1947 की है। उन दिनों वे श्रीनगर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संघचालक थे। कबाइलियों के वेश में पाकिस्तानी सेना ने जम्मू-कश्मीर पर हमला कर दिया था। जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन महाराजा हरि सिंह का एक दूत मेरे घर आया और पिताजी से बोला कि जब तक भारतीय सेना श्रीनगर नहीं पहुंच जाती है तब तक आप श्रीनगर हवाई अड्डे की सुरक्षा का इंतजाम करें। यह सुनते ही पिता जी सक्रिय हो गए। रातोरात लगभग 200 स्वयंसेवकों को विशेष प्रशिक्षण देकर तैयार किया गया। सुबह होने से पहले ही स्वयंसेवकों ने हवाई पट्टी की सुरक्षा संभाल ली। पिता जी भी उनके साथ थे। स्वयंसेवकों ने हवाई पट्टी की मरम्मत भी की।
कश्मीर समस्या को लेकर 8 मार्च, 1948 को पिता जी तत्कालीन गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल से मिले और उनसे जल्दी इस समस्या के समाधान के लिए कदम उठाने का आग्रह किया। उस समय सरदार पटेल ने उनसे जो कहा उससे वे दंग रह गए। सरदार ने कहा कि नेहरू जी ने कहा है कि कश्मीर समस्या को वे खुद सुलझाएंगे। इसलिए मैं अपनी ओर से कुछ भी नहीं कर सकता। उनकी बात सुनकर पिता जी ने अनेक बातें उनसे कहीं। इस पर पटेल ने उनसे कहा, ''बलराज मैं तुम्हारी बातों से सहमत हूं, लेकिन मैं क्या करूं मेरे हाथ बंधे हुए हैं।'' उनकी विद्वता पर एक प्रसंग याद आता है। शिमला में 1969 में एक गोष्ठी आयोजित हुई थी। उसमें वरिष्ठ पत्रकार खुशवंत सिंह भी थे। गोष्ठी में सेकुलरवाद पर पिता जी ने बहुत ही तर्कपूर्ण भाषण दिया था। इस भाषण से खुशवंत सिंह इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने पिता जी को 'वन मैन आर्मी' कहते हुए उनकी बड़ी तारीफ की।
1980 में उनकी एक पुस्तक 'रेशनल ऑफ हिन्दू स्टेट' प्रकाशित हुई थी। इस पुस्तक के बाजार में आने के बाद ही कुछ लोगों ने हल्ला मचाना शुरू कर दिया। सैयद शहाबुद्दीन ने 40 मुस्लिम सांसदों के साथ तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से मुलाकात की और पुस्तक पर प्रतिबंध लगाने की मांग की। कुछ दिन बाद प्रधानमंत्री कार्यालय के एक वरिष्ठ अधिकारी दिल्ली स्थित मेरे घर आए। उन्होंने पिता जी से कहा कि प्रधानमंत्री श्रीमती गांधी ने आपकी पुस्तक की एक प्रति मांगी है। पिता जी ने उन अधिकारी को पुस्तक की दो प्रतियां देते हुए कहा कि एक तो श्रीमती गांधी को दे दें और दूसरी पुस्तक आप खुद पढ़ें। कुछ दिन बाद वही अधिकारी हमारे घर एक बार फिर से आए। उन्होंने पिता जी से जो कहा वह कम आश्चर्य की बात नहीं थी। उन्होंने कहा कि श्रीमती गांधी ने यह पुस्तक पढ़ ली है और उन्होंने कहा है कि इसमें ऐसा कुछ भी नहीं है कि इसे प्रतिबंधित किया जाए। साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि श्रीमती गांधी तो मानती हैं कि यह किताब हर भारतीय को पढ़नी चाहिए।
किताब का ही एक दूसरा प्रसंग है। पिता जी उन दिनों दिल्ली के कैम्प कॉलेज में प्रोफेसर थे। उन्हीं दिनों उनकी एक पुस्तक 'इंडिया ऑन द क्रास-रोड्स' प्रकाशित हुई। वह पुस्तक डॉ. भीमराव अंबेडकर ने भी पढ़ी। वे बड़े प्रभावित हुए। उन्होंने कॉलेज में फोन किया और प्राचार्य से पिता जी के बारे में पूछा। फिर उन्होंने पिता जी से भी बात की और मिलने की इच्छा व्यक्त की। 10-15 मिनट मिलने की बात थी, लेकिन वह पहली ही बैठक तीन घंटे तक चली। इसके बाद तो दोनों अनेक बार एक-दूसरे से मिले। उनकी पुत्री होने के नाते मेरे पास उनके संस्मरणों का अथाह सागर है। वे संस्मरण मुझे जीवन-पर्यन्त प्रेरित करते रहेंगे।
(अरुण कुमार सिंह से बातचीत के आधार पर)
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