कन्नूर : जैसा मैंने देखा
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कन्नूर : जैसा मैंने देखा

by
May 2, 2016, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 02 May 2016 13:20:44

अद्वैता काला

इसी फरवरी की बात है। एक आदमी के मृत शरीर की तस्वीरें मेरी ट्विटर टाइमलाइन पर एक-एक कर उभरने लगीं। पहले पहल तो सनसनी जानने की इंसानी फितरत के कारण मैंने उन तस्वीरों को गौर से देखा। मृतक का चेहरा बिगड़ चुका था, उसका जबड़ा अपने स्थान से हिल चुका था, नाक-नक्श बिगड़ चुके थे, आंखें गहरे धंस गई थीं। यह सब देखकर मैंने अपनी नजरें फेर लीं। मुझे उस व्यक्ति का नाम नहीं पता था, यह भी नहीं पता था कि वह कौन था। उसके चेहरे ने उसकी समूची पहचान को छुपा लिया था और वही उसका अस्तित्व मात्र था। एक और लाश।

अब तक ऐसे दृश्यों के हम आदी हो चुके हैं, दूसरों के साथ घटने वाले भयानक हादसों के प्रति कुछ कठोर। हमारी भाषा, दृष्टिकोण और हमारी भावनाओं पर घर कर चुकी दृश्यात्मक और शाब्दिक हिंसा पर बहस के अभाव में जनसभाओं में की जाने वाली बहसें मुझे हमेशा से सतही लगती रही हैं। ऐसी बहसें इनसान की इनसानियत को नष्ट करने वाले किसी भी अन्य कारण से अधिक कारगर होती हैं। मेरी नजरों के सामने से भी इस शव की तस्वीरें रोजमर्रा की अन्य घटनाओं की मानिंद निकल जातीं। लेकिन तस्वीर के नीचे लिखी पंक्तियों ने मुझे रोका, उनमें मृतक का नाम 'सुजित' दिया गया था और लिखा था कि उसे उसके माता-पिता के सामने इस बेरहमी से मारा गया। इसके बाद मुझे रुकना पड़ा क्योंकि एक अन्य तस्वीर में उसकी माता दिख रही थीं, जिनकी बाजू लटकी हुई थी, अपने बेटे को बचाने के प्रयास में वह टूट गयी थी। जब मैं कुछ महीने बाद उनसे मिली तो उस छोटे कद की महिला की हिम्मत देखकर दंग रह गई थी। मैं सोच सकती थी कि कैसे वह नंगे पैर अपने घर के बाहर की पथरीली जमीन पर भागती गई होंगी, इस बात की परवाह किए बिना कि उनके पैर छिल रहे थे। उन्होंने सचमुच अपने पुत्र को घेरे खड़े उन बीसियों लोगों की भीड़ को चीरने की जी-तोड़ कोशिश की होगी। शायद अपनी छोटी सी कद-काठी के बल पर वह उस घेरे को भेद भी गई होंगी, लेकिन उनकी असहायता देखते हुए भी उस भीड़ की क्रूरता कम नहीं हुई। उनको एक ओर धकेल कर, पीट कर और उनका बाजू तोड़ने के बाद उन्होंने उनके बेटे को मार डाला। उस दिन मैं उनके खौफ का सही अंदाजा नहीं लगा पाई थी, लेकिन उनके बेटे की उन तस्वीरों को पहली बार देखने वालों को उनकी हालत का सहज ही अंदाजा हो जाता है।

लिहाजा, मेरी कन्नूर की यात्रा शुरू हुई। यह केरल का खूबसूरत हिस्सा है। ऐसा राज्य जिसे 'ईश्वर की धरती' वाले विज्ञापनों और पर्यटन क्षेत्र के नाते बिताए समय के जरिये ही मैंने जाना था। कई वरिष्ठ पत्रकारों सहित अनेक लोगों ने मुझे वहां न जाने की सलाह दी थी। एक मित्र ने तो मुझे 'पागल' तक करार दे दिया था। शायद मैं थी भी। काफी घबराहट के साथ मैंने अपनी यात्रा शुरू की। मैं उस दौरान बर्मा में रहती थी जब उसने लोकतंत्र की ओर अपनी यात्रा शुरू की थी। वहां का जनजीवन अभी भी डरा-सहमा है, लोग अपने दिलों की बात नहीं कहते। एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में किसी भी पत्रकार ने एक सवाल तक नहीं पूछा था। वहां बौद्घ भिक्षुओं और सैनिक सरकार के बीच भिड़ंत देखने वाले मेरे बर्मी दोस्तों को यह तो याद नहीं था कि वह उस समय क्या कर रहे थे, लेकिन इतना जरूर याद था कि उन्होंने कुछ देखा या सुना नहीं था। बर्मा से भारत भेजे गए मेरे लेखों में मुझे राजनीति को दरकिनार रखना पड़ता था, अन्यथा मेरा वीजा रद्द हो जाता और मुझे वापस भेज दिया जाता। वहां के घटनाक्रमों को दिमाग में सहेजते हुए मैंने स्थापत्य और अन्य धरोहरों पर लिखा। लेकिन कम-से-कम अपनी सोच में तो मैं सुरक्षित थी।

लेकिन कन्नूर में मैं नहीं जानती थी कि मेरा दिल मुझे मजबूत रखेगा कि नहीं। वैसे परेशान होना बेमानी था, क्योंकि खतरा अपनी जगह बना हुआ था। लेकिन डर जा चुका था। पहले कुछ दिनों तक मैंने कुछ भी ट्वीट नहीं किया। उसके बाद एक जानी-मानी पत्रकार की सलाह आ पहुंची, 'पूरी जानकारी ट्वीट करो, अपना स्थान, जिन लोगों से मिलो, सब कुछ। कहीं कुछ हो जाए तो़.।' अत: तीसरे दिन से मैंने ट्वीट शुरू किया। इसलिए क्योंकि जहां एक ओर वह खुद को सुरक्षित रखने का तरीका था, वहीं जिन लोगों से मैं मिली, उनकी कहानियों और हिम्मत ने मुझ पर गहरा असर डाला। पहली रात मैं अपने होटल के कमरे में पहुंची। मैं जैसे अंदर से आहत थी। वहां टीवी नहीं था, कोई बाधा नहीं थी, बस विचार थे और आवाजें थीं, आंसू थे, कटे हुए अंग और टूटे हुए सपने थे। मैंने एक मित्र को संदेश भेजा और कहा, 'पी जाओ इसे'-लेकिन कैसे? मैंने खुद को कभी इतना बंटा हुआ नहीं समझा था? मैं पत्रकार नहीं, केवल एक कहानीकार थी। और केवल एक ही पक्ष की कहानी बताती आ रही थी। लेकिन अगर लोगों को किसी बहस का हिस्सा बनाना हो तो यह भी जरूरी होता है-यानी 'हम बनाम वो', फिर बात और अंत में उसका समाधान। यह जरूरी था। इससे जानें बच सकती थीं और मुद्दे सुलझ सकते थे।

तीसरे दिन हमने वृत्तचित्र फिल्माना शुरू किया। अपनी छोटी सी बचत के आधार पर मुझे दो सहयोगी मिल पाए थे। एक जुबैर, जिसके पिता की किताबों की दुकान पर मेरा पंद्रह बरस से आना-जाना है। मुझे उसकी सुरक्षा की चिंता थी। वह कुछ यात्राओं पर मेरे साथ रहा था, लेकिन इस बार हिंसा का खतरा था। इसके अलावा मुझे चिंता थी कि बतौर मुस्लिम वह संघ कार्यकर्ताओं के बीच असहज हो सकता था। उसने यकीन दिलाया कि ऐसा नहीं था, हालांकि संघ के प्रति उसके संदेह हैं, लेकिन यह काम था।

मैंने उसके आश्वासन पर यकीन किया। पहले दिन जुबैर और मंजीत (दूसरा सहयोगी) सदानंदन मास्टर से मिले जो हमारी फिल्म के सूत्रधार थे। वे अपने कैमरे लेकर उनकी ओर लपके जब वे अपनी कार से उतर रहे थे। उस दौरान सदानंदन के सहयोगी उन्हें सीढि़यां चढ़ने में मदद कर रहे थे। शुरुआती बातचीत हुई और नाम पूछे गए, हम संघ कार्यालय में थे, जब जुबैर ने अपना पूरा नाम बताया-दिमाग पर सवार सुरक्षा भाव से मैंने मौजूद लोगों के चेहरों को देखा और वहां केवल मुस्कराते चेहरे ही दिखे। अपनी शंका पर शर्मिंदगी हुई, क्योंकि संघ को मैं इससे भी बेहतर तौर पर जानती रही हूं।

हमने दोपहर कार्यालय में बिताई, वहां केले के पत्तों पर परोसा गया घर का बना खाना खाया। मैं एक बैठक के लिए तलास्सेरी गई जबकि जुबैर और मंजीत सदानंद मास्टर की दिनचर्या फिल्माने के लिए रुक गए। सदानंद जी ने उस दौरान लोगों से मिलना था। उनके साथ बिताए तीन घंटों के दौरान कुछ ऐसा जरूर हुआ कि जब वह दोनों हमारे गाइड/ड्राइवर रिथिन के साथ लौटे तो लगता था जैसे उनके बीच गहरी दोस्ती हो चुकी थी। जुबैर मेरे पास आया और हैरानी से बोला, 'मैडम, क्या आप जानती हैं कि रिथिन के ज्यादातर दोस्त मुस्लिम हैं?' रिथिन ज्यादातर मलयालम में बोलता था, लेकिन अंग्रेजी के कुछ जरूरी शब्द भी जानता था। उसने सिर हिलाकर एक घर की ओर इशारा किया, 'फ्रेंड, अशरफ'। हमने उस ओर देखा। उस इमारत पर मध्य-पूर्व के स्थापत्य की छाप दिखी। मैंने पूछा, 'गल्फ?' उसने 'हां' में सिर हिलाया। कन्नूर के कई युवा मध्य-पूर्व जा चुके हैं और वहां से अपने घरों के निर्माण के लिए पैसा भेजते हैं। इस तथाकथित 'अंतिम गढ़' में अब अवसर सीमित हो गए हैं और माहौल राजनीतिक हिंसा के कारण दूषित हो गया है। उसके बाद के दिनों में, भाषा की सीमा के बावजूद, हमारा समय खूब हंसी-मजाक में बीता।

रिथिन हमें संघ ग्राम ले गया, ये सागर से घिरे छोटे-छोटे द्वीप थे। असल में वे उस उग्र लाल सागर के बीच विरोध रूपी बिंब प्रदर्शित कर रहे थे। कन्नूर में संघ की मौजूदगी प्रतिरोधक रूप में थी और संघ कार्यकर्ता सिर्फ इतना चाहते हैं कि वे शाखाएं शुरू कर सकें। यह उनकी एकमात्र मांग है। यही मांग हिंसा के मूल में है। वे ऐसी शाखाएं शुरू करना चाहते हैं जहां तमाम राजनीतिक और धार्मिक पृष्ठभूमियों वाले लोग आ सकें। शाखा की तरह वह ग्राम भी सबके लिए खुला है। ऐसी छूट किसी भी 'पार्टी ग्राम' में नहीं दी जा रही है। रास्ते में हम कांग्रेस के एक चुनावी जत्थे के पास से गुजरे। हमने उनकी ओर हाथ हिलाया तो उन्होंने भी हाथ हिलाकर अभिवादन किया। मेरे सामने वहां राजनीतिक मैत्री दिखाता यही एक दृश्य था।

चुनावी पंडितों के अनुसार इस बार यूडीएफ हारेगी, लेकिन लोकप्रिय मुख्यमंत्री के साथ उनके कैडर का उत्साह जोरों पर है। कन्नूर से मेरी वापसी उन लोगों की यादों के साथ हुई जिनसे मैं मिली, जिनके साथ हंसी और रोयी।

मुझे उम्मीद थी कि वहां मुझे डर महसूस होगा, लेकिन इसके विपरीत वापस लौटकर डर महसूस हो रहा है। यह डर उनके लिए है जिनसे मैं नहीं मिल सकी और जो हिंसा की छाया तले जी रहे हैं। हमारी गाड़ी के दिल्ली पहुंचने पर जुबैर मेरे पास आया और बोला, 'मैडम, हम ड्रॉइंग रूम की दुनिया में लौट आए हैं, लेकिन यहां के लोग मास्टर जी, दाढ़ी वाले जी और रिथिन जैसे लोगों को कभी जान नहीं पाएंगे। वह केवल संघ से नफरत ही करते रहेंगे।' बेशक उसका कहना अभी के लिए ठीक है, लेकिन हमेशा के लिए नहीं। अद्वैता कालाकैसे? मैंने खुद को कभी इतना बंटा हुआ नहीं समझा था? मैं पत्रकार नहीं, केवल एक कहानीकार थी। और केवल एक ही पक्ष की कहानी बताती आ रही थी। लेकिन अगर लोगों को किसी बहस का हिस्सा बनाना हो तो यह भी जरूरी होता है-यानी 'हम बनाम वो', फिर बात और अंत में उसका समाधान। यह जरूरी था। इससे जानें बच सकती थीं और मुद्दे सुलझ सकते थे।

तीसरे दिन हमने वृत्तचित्र फिल्माना शुरू किया। अपनी छोटी सी बचत के आधार पर मुझे दो सहयोगी मिल पाए थे। एक जुबैर, जिसके पिता की किताबों की दुकान पर मेरा पंद्रह बरस से आना-जाना है। मुझे उसकी सुरक्षा की चिंता थी। वह कुछ यात्राओं पर मेरे साथ रहा था, लेकिन इस बार हिंसा का खतरा था। इसके अलावा मुझे चिंता थी कि बतौर मुस्लिम वह संघ कार्यकर्ताओं के बीच असहज हो सकता था। उसने यकीन दिलाया कि ऐसा नहीं था, हालांकि संघ के प्रति उसके संदेह हैं, लेकिन यह काम था।

मैंने उसके आश्वासन पर यकीन किया। पहले दिन जुबैर और मंजीत (दूसरा सहयोगी) सदानंदन मास्टर से मिले जो हमारी फिल्म के सूत्रधार थे। वे अपने कैमरे लेकर उनकी ओर लपके जब वे अपनी कार से उतर रहे थे। उस दौरान सदानंदन के सहयोगी उन्हें सीढि़यां चढ़ने में मदद कर रहे थे। शुरुआती बातचीत हुई और नाम पूछे गए, हम संघ कार्यालय में थे, जब जुबैर ने अपना पूरा नाम बताया-दिमाग पर सवार सुरक्षा भाव से मैंने मौजूद लोगों के चेहरों को देखा और वहां केवल मुस्कराते चेहरे ही दिखे। अपनी शंका पर शर्मिंदगी हुई, क्योंकि संघ को मैं इससे भी बेहतर तौर पर जानती रही हूं।

हमने दोपहर कार्यालय में बिताई, वहां केले के पत्तों पर परोसा गया घर का बना खाना खाया। मैं एक बैठक के लिए तलास्सेरी गई जबकि जुबैर और मंजीत सदानंद मास्टर की दिनचर्या फिल्माने के लिए रुक गए। सदानंद जी ने उस दौरान लोगों से मिलना था। उनके साथ बिताए तीन घंटों के दौरान कुछ ऐसा जरूर हुआ कि जब वह दोनों हमारे गाइड/ड्राइवर रिथिन के साथ लौटे तो लगता था जैसे उनके बीच गहरी दोस्ती हो चुकी थी। जुबैर मेरे पास आया और हैरानी से बोला, 'मैडम, क्या आप जानती हैं कि रिथिन के ज्यादातर दोस्त मुस्लिम हैं?' रिथिन ज्यादातर मलयालम में बोलता था, लेकिन अंग्रेजी के कुछ जरूरी शब्द भी जानता था। उसने सिर हिलाकर एक घर की ओर इशारा किया, 'फ्रेंड, अशरफ'। हमने उस ओर देखा। उस इमारत पर मध्य-पूर्व के स्थापत्य की छाप दिखी। मैंने पूछा, 'गल्फ?' उसने 'हां' में सिर हिलाया। कन्नूर के कई युवा मध्य-पूर्व जा चुके हैं और वहां से अपने घरों के निर्माण के लिए पैसा भेजते हैं। इस तथाकथित 'अंतिम गढ़' में अब अवसर सीमित हो गए हैं और माहौल राजनीतिक हिंसा के कारण दूषित हो गया है। उसके बाद के दिनों में, भाषा की सीमा के बावजूद, हमारा समय खूब हंसी-मजाक में बीता।

रिथिन हमें संघ ग्राम ले गया, ये सागर से घिरे छोटे-छोटे द्वीप थे। असल में वे उस उग्र लाल सागर के बीच विरोध रूपी बिंब प्रदर्शित कर रहे थे। कन्नूर में संघ की मौजूदगी प्रतिरोधक रूप में थी और संघ कार्यकर्ता सिर्फ इतना चाहते हैं कि वे शाखाएं शुरू कर सकें। यह उनकी एकमात्र मांग है। यही मांग हिंसा के मूल में है। वे ऐसी शाखाएं शुरू करना चाहते हैं जहां तमाम राजनीतिक और धार्मिक पृष्ठभूमियों वाले लोग आ सकें। शाखा की तरह वह ग्राम भी सबके लिए खुला है। ऐसी छूट किसी भी 'पार्टी ग्राम' में नहीं दी जा रही है। रास्ते में हम कांग्रेस के एक चुनावी जत्थे के पास से गुजरे। हमने उनकी ओर हाथ हिलाया तो उन्होंने भी हाथ हिलाकर अभिवादन किया। मेरे सामने वहां राजनीतिक मैत्री दिखाता यही एक दृश्य था।

चुनावी पंडितों के अनुसार इस बार यूडीएफ हारेगी, लेकिन लोकप्रिय मुख्यमंत्री के साथ उनके कैडर का उत्साह जोरों पर है। कन्नूर से मेरी वापसी उन लोगों की यादों के साथ हुई जिनसे मैं मिली, जिनके साथ हंसी और रोयी।

मुझे उम्मीद थी कि वहां मुझे डर महसूस होगा, लेकिन इसके विपरीत वापस लौटकर डर महसूस हो रहा है। यह डर उनके लिए है जिनसे मैं नहीं मिल सकी और जो हिंसा की छाया तले जी रहे हैं। हमारी गाड़ी के दिल्ली पहुंचने पर जुबैर मेरे पास आया और बोला, 'मैडम, हम ड्रॉइंग रूम की दुनिया में लौट आए हैं, लेकिन यहां के लोग मास्टर जी, दाढ़ी वाले जी और रिथिन जैसे लोगों को कभी जान नहीं पाएंगे। वह केवल संघ से नफरत ही करते रहेंगे।' बेशक उसका कहना अभी के लिए ठीक है, लेकिन हमेशा के लिए नहीं।

 

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