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आखिर बेसिर-पैर की ऐसी खबरें कहां से पैदा होती हैं और कैसे चैनल झूठा प्रचार-प्रसार करते है
लोगों की नजर में मीडिया और पत्रकारों की विश्वसनीयता कम क्यों हो रही है, यह चिंता करने की जिम्मेदारी किसी और की नहीं, बल्कि खुद मीडिया की है। लोग पहले से ज्यादा शिक्षित और जागरूक हैं। उनके पास सूचना के दूसरे तमाम स्रोत हैं। ऐसे में जब कुछ संपादक या पत्रकार खबरों के नाम पर एजेंडा चलाने की कोशिश करते हैं तो फौरन पकड़े जाते हैं। कुछ ऐसा ही हुआ एनडीटीवी के साथ। कश्मीर में नई सरकार बनने के बाद से ही माहौल बिगाड़ने की कोशिश हो रही है। हंदवाड़ा में एक लड़की से छेड़खानी के मामले में एनडीटीवी का रवैया ऐसा रहा जैसे कि वह मानकर चल रहा है कि सेना ही दोषी है। छेड़खानी से लेकर हिंसक भीड़ पर गोलीबारी तक, एनडीटीवी और उसके संवाददाता नई-नई थ्योरी रचते रहे और वह बहादुर लड़की उनकी हर कहानी पर पानी फेरती रही। आखिरकार सच सबके सामने आ ही गया। सवाल उठता है कि बेहद मुश्किल परिस्थितियों में काम कर रही सेना पर ऐसे झूठे लांछन लगाकर मीडिया का यह तबका किसका भला कर रहा है?
उत्तर प्रदेश समेत पांच राज्यों में भाजपा के अध्यक्षों का चुनाव हुआ तो इसमें भी मीडिया को 'जाति कार्ड' नजर आया। यह अजीब बात है कि निजी संपत्ति की तरह चल रहे राजनीतिक दलों के दौर में जब भाजपा समाज के हर वर्ग को नेतृत्व का हिस्सा बना रही है तो इस पर भी मीडिया की तरफ से नकारात्मक टीका-टिप्पणी होती है। इतना ही नहीं, नए अध्यक्ष के स्वागत में वाराणसी में कुछ कार्यकर्ताओं के निजी स्तर पर लगाए गए पोस्टरों को भी आजतक चैनल ने 'राष्ट्रीय खबर' बनाने की कोशिश की।
महाराष्ट्र सरकार के मंत्री एकनाथ खडसे की लातूर यात्रा को भी कुछ इसी तरह विवादों में लपेटने की कोशिश की गई। कुछ चैनलों ने खबर चलाई कि खडसे के हेलिकॉप्टर का हेलीपैड बनाने में 10,000 लीटर पानी बहा दिया गया। किसी चैनल या अखबार के पास इस बात का कोई सबूत नहीं हैं। एक स्थानीय विपक्षी नेता ने आरोप लगा दिया और चैनलों ने इस तरह दिखाया जैसे उन्होंने पानी बर्बाद होते खुद देखा हो। क्या यह जांच नहीं होनी चाहिए कि बेसिर-पैर की ऐसी खबरें कहां से पैदा होती हैं और कैसे चैनलों की पहली हेडलाइन बन जाती हैं।
उधर आतंकवादी इशरत जहां मुठभेड़ का मामला भी सुर्खियों में है। यह सचाई सामने आ रही है कि कैसे सोनिया गांधी की कठपुतली सरकार ने एक आतंकवादी को निदार्ेष साबित करने की कोशिश की थी। टाइम्स नाऊ चैनल ने इस मामले की परतें खोलीं। लेकिन वे सारे चैनल और अखबार चुप्पी साध कर बैठ गए जिन्होंने इशरत को 'शहीद' करार देने के इस घिनौने खेल में खुलकर हाथ बंटाया था। मीडिया का यह तबका आज भी इस मामले में फंसाए गए पुलिस अधिकारियों से माफी मांगने की बजाए उन पर फब्तियां कसने में जुटा हुआ है। कुछ इसी तरह 'भगवा आतंकी' कहकर फंसाए गए लेफ्टिनेंट कर्नल प्रसाद पुरोहित का मामला भी रहा। आठ साल से बिना जमानत, बिना चार्जशीट जेल में बंद कर्नल पुरोहित निदार्ेष साबित हुए। क्या अब मीडिया संस्थान और उसके पत्रकार झूठी और मनगढ़ंत साबित हो चुकी अपनी पुरानी खबरों के लिए माफी मांगेंगे?
दिल्ली में बीते कुछ सालों की तरह इस साल भी कई इलाकों में पानी का भयानक संकट है। लेकिन यह खबर मुख्यधारा मीडिया से गायब है। कुछ ऐसा ही गाडि़यों के लिए सम-विषम नियम को लेकर भी हुआ। छुट्टी के बावजूद पहले ही दिन इसे सफल बताने की होड़ लग गई। लेकिन जब सड़कों पर जनता की परेशानी की कहानियां सोशल मीडिया पर छाने लगीं तो चैनलों और अखबारों को दिल्ली सरकार से कुछ मुश्किल सवाल पूछने पड़े। जाहिर है, अरविंद केजरीवाल को मीडिया की यह 'हिमाकत' पसंद नहीं आई और उन्होंने कई रिपोर्टरों का बहिष्कार करना शुरू कर दिया। कभी अरविंद केजरीवाल के रणनीतिकार की भूमिका निभा चुके तमाम संपादकों और वरिष्ठ पत्रकारों को सोचना चाहिए कि कल तक उन्होंने जिसे नेता बनाया, वह अब उन्हें ही कैसे आंखें दिखा रहा है। सोशल मीडिया किस तरह मुख्यधारा मीडिया को असली मुद्दों पर खींच सकता है इसका एक उदाहरण बीते दिनों देखने को मिला। पहली बार न्यूज चैनलों ने खरीदारों के साथ ठगी करने वाले बिल्डरों के खिलाफ खबरें चलानी शुरू कीं। इससे पहले ऐसी खबरें आती भी थीं तो बिल्डर का नाम गायब होता था।
सोशल मीडिया पर चले एक अभियान के बाद एबीपी न्यूज चैनल ने आम्रपाली बिल्डर की वादाखिलाफी की खबर दिखाई। धीरे-धीरे बाकी चैनलों पर भी यह खबर दिखने लगी। यह एक अच्छी शुरुआत है। उम्मीद की जानी चाहिए कि एक दिन ऐसा आएगा जब मुख्यधारा मीडिया विज्ञापन के दबाव, संपादकीय पूर्वाग्रहों और निरंकुश नेताओं की धौंस-पट्टी से ऊपर उठकर काम करना सीखेगा। फिलहाल मुख्यधारा मीडिया के मठाधीशों के रवैये को देखते हुए ऐसा होता संभव नहीं लगता।
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