|
दीपा करमाकर ने रियो 2016 ओलंपिक क्वालिफाई करके इतिहास रचा है। वह पहली भारतीय महिला जिमनास्ट हैं जिन्होंने ओलंपिक में क्वालिफाई किया है
मनोज चतुर्वेदी
भा रत में जिम्नास्टिक का क्रिकेट, हाकी और टेनिस जैसा महत्व नहीं है, इसलिए इसकी लोकप्रियता भी कोई खास नहीं है। लेकिन दीपा करमाकर के शानदार प्रदर्शन ने जिम्नास्टिक को सुर्खियों में ला दिया है। दीपा रियो ओलंपिक के लिए क्वालिफाई करने वाली भारत की पहली जिम्नास्ट बन गई हैं। यही नहीं उन्होंने क्वालिफाई करने का गौरव हासिल करने के अगले ही दिन ओलंपिक परीक्षण प्रतियोगिता में वाल्ट्स स्पर्धा का स्वर्ण पदक जीतकर अपना सिक्का जमा दिया। किसी अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिता में देश की किसी महिला जिम्नास्ट द्वारा जीता पहला स्वर्ण पदक है। दीपा ने 2008 के बीजिंग ओलंपिक की रजत पदक विजेता उज्बेकिस्तान की ओकसाना को हराकर यह सफलता प्राप्त की। अगरतला की इस जिम्नास्ट ने फाइनल में 52़ 698 अंक बनाकर रियो ओलंपिक की आर्टिस्टिक जिम्नास्टिक के लिए क्वालिफाई किया है। दीपा ने वाल्ट में 15066 अंक बनाए और यह 14 प्रतियोगियों में सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन था। लेकिन अनईबन बार में खराब प्रदर्शन करने के बाद बीम और फ्लोर एक्सरसाइज में अच्छा प्रदर्शन करके रियो का टिकट हाथ से नहीं जाने दिया। दीपा के लिए पिछली नवंबर में ग्लास्गो विश्व चैंपियनशिप में भी ओलंपिक का टिकट कटाने का मौका था। लेकिन वह वहां चूक गई थीं।
प्रोडूनोवा वाल्ट ने कराया क्वालिफाई
दीपा करमाकर ने रियो में बेहद मुश्किल प्रोडूनोवा वाल्ट लगाकर ओलंपिक की राह बनाई। इसमें जिम्नास्ट को एक नहीं तीन बार समरसाल्ट लगाना पड़ता है। इसमें एक स्टेप गलत पड़ने से जिम्नास्ट में चोट के कारण कॅरियर खत्म तक होने का खतरा बना रहता है। इसके खतरनाक होने की वजह से ही इस पर बैन लगाने तक की मांग होती रही है। प्रोडूनोवा वाल्ट लगाने में दुनिया की चार-पांच जिम्नास्टों को ही महारत हासिल है। इस वाल्ट से ही दीपा ने सर्वाधिक अंक बनाए और बाद में अनईबन बार में खराब प्रदर्शन भी उन्हें ओलंपिक टिकट की दौड़ से बाहर नहीं करा सका। रूसी जिम्नास्ट येलेना प्रोडूनोवा के नाम पर ही इसका नाम पड़ा है। इस रूसी जिम्नास्ट ने 1999 में एक अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिता में यह वाल्ट लगाई थी, बाद में इसे उनका ही नाम दे दिया गया।
बचपन का दौर
दीपा करमाकर जब सात साल की थीं, तब उनके पिता दुलाल करमाकर दीपा का बंगाली माध्यम वाले स्कूल में दाखिला कराने के बाद कई रात सो नहीं सके। इसकी वजह उन्हें यह चिंता खाए जा रही थी कि बड़ी बेटी पूजा को अंग्रेजी माध्यम स्कूल में पढ़ाने के बाद दीपा को बंगाली माध्यम स्कूल में पढ़ाना कहीं गलत तो नहीं है। पर दीपा बचपन से ही साफ सोच रखने वाली रही हैं। पिता के बार-बार पूछने पर दीपा ने कहा कि अंग्रेजी माध्यम स्कूल में पढ़ने का मतलब जिम्नास्टिक से जुदा होना। बंगाली माध्यम में पढ़ने पर एक तो हाजिरी की समस्या नहीं रहेगी और मैं जिम्नास्टिक अभ्यास पर पूरा फोकस कर सकूंगी।
कैसे आई जिम्नास्टिक में
दीपा के पिता दुलाल करमाकर भी भारतीय खेल प्राधिकरण के कोच थे। वह चाहते थे कि दीपा जिम्नास्ट बने। इसलिए वह जिम्नास्टिक कोच विश्वेश्वर नंदी के पास ले गए। नंदी ने दीपा के तलवे सपाट देखकर पहले थोड़ी आना-कानी की, लेकिन बाद में जबर्दस्त मेहनत करके इस कमी की भरपाई कर दी। असल में पैर का तलवा सपाट होने पर जिम्नास्ट के छलांग लगाने पर वह स्प्रिंग का काम नहीं करता है। विश्वेश्वर नंदी आज भी दीपा के साथ जुड़े हुए हैं और रियो में इतिहास रचने के दौरान साथ में थे।
पिता दुलाल और बड़ी बहन पूजा दोनों का मानना है कि वह लगन की पक्की और जिद्दी स्वभाव की है। पूजा बताती हैं, ''वह जब नौ साल की थी, तब उसने अपनी वर्षगांठ पर ठान लिया कि वह शाम का अभ्यास करने के बाद ही केक काटेगी और उसने यही किया।'' वहीं दीपा के पिता दुलाल कहते हैं, ''दीपा एक बार लक्ष्य तय करने के बाद उसे पाने तक चैन से नहीं बैठती है। उसका सपना ओलंपिक पदक जीतना है, उसने ओलंपिक के लिए क्वालिफाई करके आधा सपना पूरा कर लिया है और आधा सपना पदक जीतकर पूरा करेगी।''
आशीष से मिली प्रेरणा
भारत में 2010 के कॉमनवेल्थ गेम्स का आयोजन हुआ था और इसमें भाग लेने वाली टीम में दीपा करमाकर भी शामिल थीं। इन खेलों में आशीष कुमार पदक जीतने वाले पहले भारतीय जिम्नास्ट बने थे। उस समय दीपा ने आशीष को जीतते देखकर कहा था कि वह भी इसी तरह प्रदर्शन करेगी। दीपा चार साल बाद ग्लास्गो कॉमनवेल्थ गेम्स और फिर एशियाई खेलों में कांस्य पदक जीतने में सफल हो गईं।
अब तक का सफर
जब दीपा बच्ची थीं तो उनके तलवे सपाट थे, इसके बाद भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और मुकाम तक पहुंची।
दीपा ने 3 वर्ष की ही उम्र में जिमनास्ट सीखना शुरू किया था।
4 वर्ष की आयु में जलपाईगुड़ी में हुई जूनियर नेशनल चैपिंनशिप में जीत हासिल की।
2007 तक राज्य व राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिताओं में 77 पदक जीते जिसमें 67 स्वर्ण पदक थे।
2014 में हुए राष्ट्रमंडल खेलों में दीपा ने कांस्य पदक जीता था। यह पदक जीतने वाली वह पहली भारतीय जिमनास्ट थीं।
ग्लास्गो में हुई जिमनास्ट की विश्व चैपिंयनशिप प्रतियोगता में भाग लेने वाली वह पहली भारतीय महिला जिमनास्ट हैं।
अभी तक के सफर मंे उनके केवल एक ही अनुभवी कोच विश्वेश्वर नंदी हैं।
''राज्यों में सुविधाएं बढ़ें तो निकलें
बेहतर परिणाम''
दीपा करमाकर के ओलंपिक का टिकट कटाने पर उनके साथ आईजी स्टेडियम स्थित साई जिम्नास्टिक केंद्र में कोच के तौर पर जुड़े रहे डॉक्टर गुरदयाल सिंह बाबा से बातचीत के मुख्य अंश:-
दीपा की इस सफलता के बारे में क्या कहना है ?
दीपा ओलंपिक के लिए क्वालिफाई करने वाली पहली जिम्नास्ट हैं इसलिए उनकी प्रतिभा की तारीफ की जानी चाहिए। हां, इतना जरूर है कि दीपा ओलंपिक में भाग लेने वाली पहली भारतीय जिम्नास्ट नहीं हैं। इससे पहले 1952, 1956 और 1964 के ओलंपिकों में 11 भारतीय जिम्नास्ट भाग ले चुके हैं, लेकिन उस समय क्वालिफायर नहीं होता था। क्वालिफायर की शुरुआत 1976 के ओलंपिक से हुई है और उसके बाद से ओलंपिक का टिकट कटाने वाली वह पहली भारतीय जिम्नास्ट हैं।
अंतरराष्ट्रीय स्तर के अच्छे जिम्नास्ट क्यों नहीं निकल पाते ?
देश में एक तो जिम्नास्टिक का अन्य खेलों जैसा महत्व नहीं है। इसलिए अन्य खेलों जैसी सुविधाएं भी नहीं हैं। इस वजह से ही जिम्नास्टों के लिए नौकरियां भी नहीं हैं और उन्हें प्रायोजक भी नहीं मिल पाते। अगर खिलाडि़यों के लिए नौकरी की व्यवस्था हो तो और बेहतर परिणाम पाए जा सकते हैं।
ल्ल अच्छे परिणाम न आने की वजह क्या विदेशी कोच की कमी है?
मेरे हिसाब से विदेशी कोच की जरूरत ही नहीं है। दीपा करमाकर की इस सफलता में किसी विदेशी कोच का कोई हाथ नहीं है। वह 2013 से यहां प्रशिक्षण शिविर में भाग ले रही है। शिविर के बीच में प्रतियोगिताओं में भाग लेना और दौरों पर जाने का सिलसिला भी चलता रहा है, लेकिन उसे तैयार करने में पूरी भूमिका भारतीय कोचों की है।
भारत में क्या जिम्नास्टिक की सुविधाओं की कमी है?
आईजी स्टेडियम स्थित केंद्र में आधुनिक सुविधाएं हैं। इसलिए भारतीय जिम्नास्टों को तैयार करने में कोई दिक्कत नहीं है। हमारे यहां की सबसे बड़ी दिक्कत राज्यों में अच्छी सुविधाओं का नहीं होना है। इस कारण प्रतिभाएं एक जगह सिमटकर रह जाती हैं। यदि राज्यों में भी अच्छी सुविधाएं हो जाएं तो बहुत बेहतर परिणाम आ सकते हैं। इसके अलावा देश में टूर्नामेंटों की कमी हो गई है, जिस तरफ ध्यान दिए जाने की जरूरत है। साथ ही अच्छे प्रायोजक मिले तो जिम्नास्टों को ज्यादा अंतरराष्ट्रीय टूर्नामेंटों में भेजकर अनुभव दिलाया जा सकता है। इस अनुभव का फायदा होना लाजिमी है।
'खुद को साबित करो तो मानेगी दुनिया'
त्रिपुरा की निवासी वाली 22 वर्षीया दीपा करमाकर ने रियो ओलंपिक में जगह पक्की करके भारतीय जिम्नास्टिक में नई जान फूंकी है। वे पहली महिला जिमनास्ट हैं, जो 52 साल बाद जिमनास्टिक की प्रतियोगिता में हिस्सा लेंगी। स्वभाव से जिद्दी दीपा कहती हैं कि जब वे किसी काम को करने की ठान लेती हैं तो उसे पूरा करके ही दम लेती हैं। रियो द जनेरियो से लौटने के तुरंत बाद दीपा करमाकर से विस्तार से बात की अश्वनी मिश्र ने। प्रस्तुत हैं बातचीत के प्रमुख अंश:-
ओलंपिक में क्वालीफाई करने पर आपको बधाई। आप पहली भारतीय महिला जिमनास्ट हैं, जिन्होंने ओलंपिक में क्वालीफाई किया है इसलिए आपसे देश को बहुत उम्मीदें हैं। आप किस तरह से आगे की तैयारी के लिए प्रशिक्षण लेंगी?
आपका बहुत-बहुत धन्यवाद। मैं पहले तो उन सभी देशवासियों का आभार व्यक्त करती हूं, जिनकी शुभकामनाओं के कारण मैं ऐसा कर पाई हूं, क्योंकि जब भी आप कुछ अच्छा करते हैं तो हमेशा कहीं न कहीं अपने लोगों का सहयोग और उनकी दुआएं आपके साथ होती हैं, तभी आप कुछ अच्छा कर पाते हैं। रही बात आगे की तैयारी की, तो आगे की राह कठिन है, इसके लिए कड़ा प्रशिक्षण भी लेना होगा। कोच जैसा तय करेंगे, मैं वैसा करती जाऊंगी।
बचपन में आपके पैर सपाट थे, जो किसी जिमनास्ट के लिए अच्छा नहीं होता लेकिन इसके बाद भी आप जिमनास्ट बनीं। अपने इस संघर्ष के बारे में बताएं?
हां मेरे पैर सपाट थे, लेकिन मुझे इसके बारे में कुछ भी पता नहीं था। मुझे तो बस एक ही रट थी कि कैसे भी हो, जिमनास्ट बनना है। जब मेरे पिता जी मुझे कोच के पास ले गए तो पहले तो उन्होंने सपाट पैर देखकर एक बार जिमनास्ट न बनने की सलाह दी। लेकिन ज्यादा कहने पर उन्होंने भी इसे एक चुनौती के रूप में ले लिया। वे जानते थे कि सपाट पैर वाले व्यक्ति को जिमनास्ट में भागने, दौड़ने और उछलने में काफी दिक्कत होती है। मैंने कोच के कहे अनुसार रात-दिन कड़ी मेहनत की, क्योंकि पैरों में घुमाव लाना आसान नहीं था। आज उसी कड़ी मेहनत का परिणाम सबके सामने है।
आप जिमनास्टिक में किससे प्रभावित होकर आईं?
मेरे पिता जी वेट लिफ्टिंग कोच हैं। वे मुझे देखकर हर वक्त कहते थे कि तुम जिमनास्ट बन सकती हो। उनके कहे ये शब्द धीरे-धीरे मुझे प्रेरित करने लगे। अंतत: मैंने भी एक दिन तय किया कि मैं जिमनास्ट बनूंगी और अपने पिता के सपने को पूरा करूंगी। साथ ही मेरे कोच जो आज भी मुझे प्रशिक्षण देते हैं, ने मेरा मनोबल सदैव बढ़ाया। उनके दिए कठिन प्रशिक्षण का ही परिणाम है कि आज मैं जिमनास्ट हूं। मैंने अपने पिता जी और कोच की भावनाओं से प्रेरित होकर एक ध्येय बनाया कि जिमनास्ट बनकर ही दिखाऊंगी।
आपके अब तक के इस सफर में आपके कोच विश्वेश्वर नंदी का क्या योगदान है?
उनके बारे में मैं बस इतना ही कहना चाहूंगी कि आज मैं जहां भी हूं, जो भी हूं उनकी ही बदौलत हूं। उनके बिना मैं इस दुनिया में कुछ भी नहीं हूं।
क्रिकेट या कुछ अन्य खेलों की तरह जिमनास्टिक भारत में लोकप्रिय नहीं है। इसको लोकप्रिय बनाने के लिए सरकार को क्या करना चाहिए?
मैं पहले अपने देश के लोगों से एक बात कहना चाहूंगी कि आप अपने कठिन परिश्रम से कुछ ऐसा करके दिखाएं, जिससे उस क्षेत्र के प्रति लोगों का ध्यान खुद ब खुद आकर्षित हो। पहले स्वयं को साबित तो करके दिखाइए, जिस दिन ऐसा करने लगेंगे सरकारें भी उन क्षेत्रों की ओर ध्यान देना शुरू कर देंगी। हां, जिमनास्टिक के लिए सरकार को राज्यों को प्रोत्साहन देना चाहिए। राज्य खेल संघों को इसके लिए अलग से बजट निर्धारित करना चाहिए। साथ ही हम जैसे लोग जो बिना किसी विशेष सुविधा के अपने जुनून के दम पर अपने लक्ष्य को पाकर खुद को साबित करते हैं, अगर हम जैसे लोगों को भी अन्य खेलों जैसी सुविधाएं मिलने लगं तो इस क्षेत्र में भी प्रतिभाओं की कमी नहीं रहेगी। इस बार अगर एक जिमनास्ट ओलंपिक में भाग ले रही है, तो 2020 में होने वाले ओलंपिक में तीन जिमनास्ट भाग लेंगी।
जिमनास्टिक के अलावा आप को और क्या-क्या अच्छा लगता है?
मुझे बस एक ही चीज अच्छी लगती है वह है जिमनास्टिक, जिमनास्टिक और जिमनास्टिक।
टिप्पणियाँ