अमृत पान को तैयार हुई महाकाल की नगरी
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अमृत पान को तैयार हुई महाकाल की नगरी

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Apr 18, 2016, 12:00 am IST
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दिंनाक: 18 Apr 2016 11:05:38

उज्जैन में सिंहस्थ कुंभ शुरू होने वाला है। माहौल में आध्यात्मिकता की महक है। सरकार ने तमाम तैयारियां समय रहते पूरी कर ली हैं। संतों के आगमन के साथ शुरू हो गयी है उन तैयारियों की परीक्षा

महेश शर्मा, उज्जैन से
बारह वर्ष के अंतराल के बाद एक बार फिर उज्जैन एक माह तक चलने वाले सिंहस्थ महाकुंभ के लिए तैयार है। पवित्र क्षिप्रा नदी में पुण्य स्नान की शुरुआत चैत्र मास की पूर्णिमा से होती है और यह महीने भर वैशाख पूर्णिमा के मुख्य स्नान तक चलता है। वर्ष 2016 में यह संयोग 22 अप्रैल से 21 मई तक रहेगा। इस दौरान उज्जैन में करीब 5 करोड़ श्रद्धालुओं के आने का अनुमान है। शाही स्नान पर शहर में एक साथ एक करोड़ लोगों की मौजूदगी रहेगी।
2011 में जब मध्यप्रदेश शासन ने उज्जैन में अप्रैल-मई 2016 में होने वाले सिंहस्थ की तैयारियां शुरू की थीं तब सभी ने कहा कि 2004 में हुए सिंहस्थ से सबक सीखा गया है। तब दिग्विजय सिंह के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने सिंहस्थ की घोर उपेक्षा की थी और नवंबर 2003 में बनी भाजपा सरकार को जल्दी में सिंहस्थ के लिए जरूरी निर्माण कराने पड़े थे। इसलिए इस बार चार वर्ष पूर्व ही तैयारियां शुरू करने को स्वागतयोग्य कदम माना गया और उम्मीद की गई कि सभी कार्य समय रहते पूरे हो जाएंगे। अनेक आशंकाओं के बीच आज विश्लेषण करने पर यह उम्मीद पूरी होती दिखाई दे रही है। पिछले तीन वर्ष में कई निर्माण कार्य अनेक व्यावहारिक रुकावटों के चलते देर से शुरू हुए। कई में अदालती कार्यवाही से रोड़ा अटकाया गया लेकिन अंतत: वे पूरे हो गए हंै। सिंहस्थ मेला प्राधिकरण के अध्यक्ष दिवाकर नातू कहते हैं, ''हम पहले से निश्िंचत थे। आप ही देखिए, सभी कार्य पूरे हो गए। इसमें महत्वपूर्ण बात यह है कि करीब 3,000 करोड़ रु. के ये स्थायी कार्य गुणवत्ता के साथ हुए।''
 उज्जैन में पहली बार एक साथ 10 पुलों का निर्माण किया गया जिनमें 4 रेल लाइन पर और 6 क्षिप्रा नदी पर बने हैं। कुल 186 करोड़ रु . की लागत वाले इन पुलों के अलावा 94़3 करोड़ रु. की लागत का 14़.29 कि.मी. लंबा बाईपास बनाया गया जिस पर दो फ्लाई ओवर, एक पुल नदी पर और एक रेल लाइन पर बनाया गया। यही नहीं, तीन भुजाओं वाले हरिफाटक पुल की चौथी भुजा भी 10.81 करोड़ रु. की लागत से बनाई गई, जो न सिर्फ मेला क्षेत्र के लिए बल्कि महाकाल पहुंच मार्ग के लिए भी महत्वपूर्ण है। फ्रीगंज में पुराने पुल के समानांतर एक पुल की स्वीकृति दी गई थी, लेकिन अदालत दांवपेच में से निकलने में विलम्ब हो गया। जब उच्चतम न्यायालय ने इसके निर्माण की रुकावट दूर की तो समयाभाव के चलते इसे पूरा किया जाना मुश्किल लगा था इसलिए काम आरंभ नहीं किया गया। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने आश्वस्त किया है कि सिंहस्थ के बाद इसे जरूर बनाया जाएगा, क्योंकि यह शहरवासियों के लिए बहुत सुविधाजनक रहेगा। वैसे जो पुल तैयार हुए हैं वे इंजीनियरिंग की दृष्टि से उन्नत और समयानुकूल तकनीक से बने हैं। लोक निर्माण विभाग सेतु संभाग की कार्यपालन मंत्री सुश्री शोभा खन्ना कहती हैं, '' मेला क्षेत्र में बड़नगर बाईपास पर रेलवे क्रॉसिंग पर बनने वाला पुल अत्यन्त महत्वपूर्ण है। यह तीन भुजाओं वाला बहुत बड़ा पुल है, जिसका जंक्शन का विस्तार ही इतना बड़ा है कि एक छोटा पुल बनाने में उतनी ही मेहनत और संसाधन लगते हैं।''
सिंहस्थ में सड़क निर्माण में 378 करोड़ रु. का व्यय किया गया है और छोटी-बड़ी कुल 100 सड़कों सहित चार 'फोरलेन' मार्ग भी बनाए गए। इन पर 'सेंट्रल लाइटिंग' की गई है तथा 'डिवाइडर' में पौधे रोपे गए हैं। मार्ग में 'डिवाइडर' पर रखे गए गमले यहां सेे गुजरने के अनुभव को यादगार बना देते हैं। इंदौर रोड से नागदा-उन्हेल रोड के लिए जो बाईपास बनाया गया है, वह बेहद उपयोगी है। इसके निर्माण से मेला क्षेत्र का भी विस्तार संभव हो पाया है और बड़नगर रोड पर दबाव कम हुआ है, क्योंकि इसके माध्यम से बड़नगर रोड भी जल्दी पहुंचा जा सकता है और मेला क्षेत्र  में पहुंचने का भी नया मार्ग उपलब्ध हुआ है। 90 कि.मी. लम्बे पंचकोशी मार्ग को भी 63 करोड़ रु. खर्च कर बेहतर बना दिया गया है।
प्रशासन ने सिंहस्थ के दौरान महाकालेश्वर मंदिर में आने वाले श्रद्धालुओं की भारी भीड़ का अनुमान लगाते हुए 2.5 करोड़ रु़ से अधिक राशि खर्च कर नन्दी हॉल का विस्तार किया और उसकी क्षमता पहले की तुलना में लगभग तीन गुना कर दी। यही नहीं, 84 महादेव सहित नगर के सभी प्रमुख मन्दिरों का जीणार्ेद्धार किया गया।
स्नान के लिए आने वाले श्रद्धालुओं की अनुमानित विशाल संख्या को देखते हुए क्षिप्रा तट पर करीब 3.5 कि.मी. लम्बे नए घाटों का निर्माण किया जा चुका है और 4.5 कि.मी. से ज्यादा लम्बे पुराने घाटों की मरम्मत भी कर दी गई है ताकि स्नान सुचारु रूप से संपन्न हो सके। रोशनी और रंगाई-पुताई के बाद ये घाट क्षिप्रा का सौंदर्य चार गुना बढ़ा रहे हैं। प्रभारी मंत्री भूपेन्द्र सिंंह कहते हैं, ''सरकार ने गुणवत्ता पर पैनी नजर रखी है, इसके बावजूद कि काम समय सीमा में पूरा कराना पहली प्राथमिकता थी। नतीजा दिख ही रहा है कि उज्जैन देश के सबसे सुन्दर शहरों में से एक हो गया।'' पहली बार शासन ने प्रत्येक अखाड़े में डेढ़ से दो करोड़ रुपए के स्थायी निर्माण कार्य कराए। सभी प्रमुख अखाड़े सरकार के इस कदम से प्रसन्न और संतुष्ट हैं, हालांकि दबी जुबान से साधु निर्माण कार्य को देखते हुए लागत पर आश्चर्य व्यक्त करते हैं और ये बात सरकार में उच्च स्तर पर पहुंचने से सिंहस्थ बाद अधिकारियों पर गाज गिरने की संभावनाएं बनी हुई हैं।

वैसे स्थायी प्रकृति के जो निर्माण यहां हुए हैं उनसे शहर की तस्वीर ही बदल गई है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार इस आयोजन को लेकर शुरू से अत्यंत गम्भीर दिखाई पड़ रही है। बढ़ते-बढ़ते सिंहस्थ कार्यों का बजट पहले 2,342 करोड़ रु.़, फिर 2,591 करोड़ रु. तक जा पहुंचा। सिंहस्थ समाप्ति तक अस्थायी प्रकृति के कार्यों को मिलाकर पूरा आयोजन 5,000 करोड़ रु. का रहेगा। यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि सिंहस्थ 2004 के लिए 262 करोड़ रु. ही स्वीकृत किए गए थे। 93 करोड़ रु. तो नए सात मंजिला अस्पताल को बनाने के लिए ही स्वीकृत किए गए जो 450 बिस्तरों का अत्याधुनिक ऑपरेशन थिएटर वाला अस्पताल है। दुर्भाग्य से निर्माण पूरा होने और मुख्यमंत्री द्वारा पिछले दिनों किए गए लोकार्पण के बाद भी इसका उपयोग सिंहस्थ में नहीं हो पा रहा है और इसे बाहर से आए चिकित्सकों के ठहरने के काम में लिया जा रहा है।
प्रशासन के लिए सबसे बड़ी चुनौती क्षिप्रा नदी में स्वच्छ, आचमन योग्य पानी उपलब्ध कराने की थी। इसके लिए इन्दौर से आने वाली प्रदूषित खान नदी को क्षिप्रा में मिलने से रोकने के लिए 85 करोड़ 62 लाख रु. की लागत से 'खान डायवर्जन' योजना बनाई गई जिसमें 19़5 कि.मी. पाइप लाइन पीपल्याराघो से कालियादेह पैलेस तक जमीन से 12 मीटर अन्दर डाली गई है। चूंकि क्षिप्रा बारहमासी नदी नहीं है इसलिए स्वच्छता की चुनौती तो है। इसके लिए 432 करोड़ रु. की लागत वाली नर्मदा-क्षिप्रा लिंक योेजना महत्वपूर्ण रही जिसमें 4 स्तरों पर पंपिंग के द्वारा पानी को 348 मीटर ऊंचाई तक लाया गया और 49 कि.मी. पाइपलाइन के माध्यम से नर्मदा का पानी क्षिप्रा में छोड़ दिया गया जिससे क्षिप्रा स्वच्छ, निर्मल और प्रवाहमयी हो गई है। इसके कारण पेयजल के लिए शहर की इस अहम नदी पर निर्भरता कम हुई है, क्योंकि क्षिप्रा का पानी भी पेयजल के लिए लिया सकेगा। शासन ने 12 करोड़ रु. की लागत से दो जलशोधन संयंत्र भी तैयार कराए हैं जिनकी क्षमता  7़ 75 मिलियन गैलन की है।
करीब 3,000 हैक्टेयर में फैला सिंहस्थ क्षेत्र आधुनिक नगर की तरह दिखाई दे रहा है जहां रोशनी की तो भरपूर व्यवस्था है, लेकिन पानी और सीवरेज की व्यवस्था तमाम दावों के बावजूद अव्यवस्था और आशंका को जन्म दे रही है।
सिंहस्थ निर्विघ्न संपन्न हो सके इसके लिए मजबूत सुरक्षा व्यवस्था की गई है। करीब 650 कैमरों द्वारा निगरानी रखी जाएगी और मेला क्षेत्र में 51 अस्थायी थाने भी बनाए जा रहे हैं। इसके लिए पुलिस विभाग को 297 करोड़ रु. का बजट स्वीकृत किया गया है। प्रदेशभर से करीब 25,000 पुलिसकर्मी सिंहस्थ में अपनी सेवा देने आएंगे। इसके अतिरिक्त केंद्रीय अर्द्धसैनिक बल भी मोर्चा संभालेंगे।
सरकार अपने कामों और इंतजामों से संतुष्ट और आत्मविश्वास से भरी है इसलिए पहली बार प्रदेश के जनसम्पर्क विभाग ने विदेश में भी इसका व्यापक प्रचार-प्रसार किया है। इसके लिए 58 करोड़ रु. का बजट रखा गया। देश के अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डों पर होर्डिंग, हवाईजहाजों में सीटों के पीछे स्टीकर और टिकटों पर सिंहस्थ के प्रतीक चिन्ह
लगाए गए।
उड़ान के दौरान मिलने वाली पत्रिकाओं में, पर्यटन पत्रिकाओं और विदेशी अखबारों में भी विज्ञापन दिए गए हैंं। मध्य प्रदेश पर्यटन विकास निगम भी जोर-शोर से इसके प्रचार में लगा रहा। इसने विदेशों में ट्रेवल मार्ट में प्रदर्शनी लगाकर प्रचार किया। विदेशों में हवाई अड्डों पर पर्चे, बैनर और होर्डिंग के माध्यम से भी प्रचार किया गया है।
अब सभी को इंतजार है 22 अप्रैल का, जब पहला शाही स्नान होगा और आने वाले करीब एक करोड़ श्रद्धालु सरकार के कामों और इंतजामों को कसौटी पर कसकर अपना निर्णय सुनाएंगे।  

प्राचीनतम है नगरी उज्जयिनी
सिंहस्थ नगरी के रूप में पूरी दुनिया के आकर्षण का केन्द्र बनी उज्जयिनी विश्व की प्राचीनतम नगरी है। ज्ञात इतिहास के प्राचीनतम समय में यह अपने वैभव के लिए प्रसिद्ध रही है। संस्कृत, पाली और प्राकृत साहित्य में इसका व्यापक वर्णन मिलता है। सिंधु घाटी सभ्यता के समय लोथल जैसे पश्चिम बंदरगाह जाने के लिए मार्ग उज्जयिनी होकर ही गुजरता था। इसके बाद के वर्षांे में भी, चाहे मथुरा हो या पाटलिपुत्र, उत्तर से दक्षिण तथा पूर्व से पश्चिम जाने के लिए उज्जयिनी महत्वपूर्ण नगरी रही है।  
भूतभावन महाकालेश्वर, जो स्वयंभू समझे जाते हैं, और पुण्यसलिला क्षिप्रा, जो अतीत में महाकाल के पृष्ठ भाग से ही बहती थी, के कारण इस नगरी का धार्मिक महत्व हमेशा से रहा है, किन्तु शैक्षिक दृष्टि से भी इसका बहुत महत्व रहा है क्योंकि यहीं महर्षि सांदीपनि का गुरुकुल था जहां स्वयं श्रीकृष्ण अध्ययन के लिए आए थे।
विभिन्न राजवंशों के समय में इस नगरी को कलाकारों के संरक्षण के लिए भी जाना जाता रहा। अनेक प्रांतों के कलाकार इस नगरी में आयोजित विभिन्न उत्सवों में संगीत, नृत्य, वाद्य कला आदि का प्रदर्शन करते थे। यहां का इतिहास अनेक राजवंशों के उत्थान-पतन से भरा है। इस नगरी को प्राचीन नाग सभ्यता का केन्द्र बताया जाता है। हैहय वंश के शक्तिशाली राजाओं का केन्द्र भी यह नगरी रही। महाभारत काल में यहां के शासक विन्द और अनुविन्द थे। प्राचीन साहित्य में इस बात का वर्णन है कि चण्डप्रद्योत उज्जयिनी का योग्य प्रशासक था। यहीं से सम्राट अशोक के पुत्र महेन्द्र और पुत्री संघमित्रा ने श्रीलंका में बौद्ध धर्म के प्रचार हेतु प्रस्थान किया था। सम्राट अशोक यहां के राज्यपाल रहे हैं। इस नगरी में उन्होंने ज्योतिष का महाविद्यालय भी खोला था।
मालवा के गर्दभिल्लवंशीय विक्रमादित्य ने असीम पराक्रम और उत्साह से शकों को परास्त किया था। उनका वर्णन अनेक साहित्यिक ग्रंथों में मिलता है। उनके समय इस नगरी ने शैक्षणिक और साहित्यिक प्रगति की थी। विक्रमादित्य की सभा नवरत्न से सजी-धजी थी, जिनमें धन्वंतरी, क्षपणक, अमरसिंह, शंकु, वेताल भट्ट, घटकर्पर, कालिदास, वराहमिहिर और वररुचि सम्मिलित थे। शिक्षा की सभी विधाओं का पठन-पाठन और अन्वेषण यहां पर होता रहा है। भारतभर से विद्वानों का यहां आना-जाना चलता था और शास्त्रार्थ की परम्परा थी। इल्तुतमिश ने आक्रमण कर इस नगरी के भव्य वैभव को बहुत नुकसान पहुंचाया। परमारों के पश्चात् यहां पर तुकोंर्, अफगानों और मुगलों ने शासन किया। मराठाकाल के समय यह नगरी विदेशी शासकों की अधीनता से मुक्त हुई। पेशवाकाल में यहां का कुछ भाग जागीरी के रूप में राणोजी सिंधिया को दे दिया गया था। इसके बाद नगर के पुनर्निर्माण का कार्य उनके दीवान रामचंद्रराव शेणवी द्वारा किया गया। इसी काल में कई मन्दिरों का जीणार्ेद्धार हुआ। मराठाकाल में ही क्षिप्रा तट पर अनेक   घाटों, धर्मशालाओं और सदावर्तों का भी निर्माण हुआ।

कुंभ महापर्व और समुद्र मंथन  
सिंहस्थ महाकुंभ शुरू होने में चंद दिन ही बचे हैं और अखाडों की पेशवाई के साथ ही साधु-संन्यासियों का डेरा मेला क्षेत्र में आध्यात्मिकता की सुगंध फैलाने लगा है। कुंभ महापर्व की परम्परा समुद्र मंथन के प्रसंग से जुड़ी हुई है। कहते हैं, समुद्र मंथन से चौदह रत्नों में अमृत की भी प्राप्ति हुई थी। अमृत पाकर अमर बनने के लिये देवों और असुरों में संघर्ष हुआ और छीना-झपटी में अमृत देश के चार तीथोंर् में छलक गया, जिससे ये तीर्थ मोक्ष देने वाले हो गये। हरिद्वार, इलाहाबाद, नासिक व उज्जैन वे पुण्य क्षेत्र हैं, जहां अमृत छलका था इसलिए यहीं कुंभ महापर्व का आयोजन होता है। उज्जैन का कुंभ सिंह राशि के गुरु में होता है, अत: उज्जैन के कुंभ को सिंहस्थ महापर्व कहा जाता है। यूं तो नासिक कुंभ के समय भी गुरु सिंह राशि में होते हैं इसलिए नासिक कुंभ भी सिंहस्थ कहलाता है। लेकिन कई विद्वान उसे पूर्ण कुंभ नहीं मानते। संभवत: इसीलिए नासिक कुंभ में तुलनात्मक रूप से साधु-संतों की उपस्थिति कम होेती है। अनेक बड़े महात्मा तो अपना शिविर भी वहां नहीं लगाते हैं।
वैशाख शुक्ल पक्ष में आने वाली एकादशी मोहिनी एकादशी के नाम से प्रसिद्ध है। चूंकि उज्जैन में कुंभ महापर्व वैशाख मास में होता है इसलिए उज्जैन के अतिरिक्त किसी अन्य स्थान पर कुंभ पर्व के दौरान मोहिनी एकादशी नहीं आती है। इसलिए उज्जैन कुंभ का महत्व बढ़ जाता है। विद्वानों का मत है कि भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप धारण करके इस दिन देवताओं को अमृत-पान कराया था। इस प्रकार देवासुर संग्राम का समापन उज्जैन में ही हुआ था। स्कन्द पुराण में भी इस बात का जिक्र है।
देवासुर संग्राम के समाप्त होने के बाद महाकाल वन में रत्नों का वितरण हुआ था। भगवान विष्णु जब मोहिनी रूप धारण करके देवताओं को अमृत-पान करा रहे थे, इस दौरान एक असुर ने भी धोखे से अमृत-पान कर लिया था। यह पता चलते ही भगवान विष्णु ने सुदर्शन चक्र से उसकी गर्दन काट दी थी, किन्तु अमृत-पान करने से असुर का सिर व धड़ दोनों अमर हो गये थे, जो ग्रहों में राहु-केतु के नाम से जाने जाते हैं। ज्योतिषाचार्य डॉ. के़ एस़ व्यास कहते हैं, ''इससे यह स्पष्ट होता है कि राहु-केतु की उत्पत्ति का स्थान भी उज्जैन है।'' मंगल की उत्पत्ति का स्थान तो उज्जैन को माना ही जाता है। सुप्रसिद्घ मंगलनाथ मन्दिर भी उज्जैन में स्थापित है जहां श्रद्धालु मंगल ग्रह की शांति के लिए पूजन कराते हैं।
इस तरह उज्जैन कुंभ में आने वाले श्रद्धालु अमृतमयी क्षिप्रा में डुबकी लगाकर पुण्य तो प्राप्त करते ही हैं, मंगल ग्रह की उत्पत्ति के स्थान मंगलनाथ, भूतभावन भगवान महाकालेश्वर के दर्शन कर भी पुण्य लाभ पाते हैं। इसके साथ ही अमृत वितरण की तिथि पर स्नान से पुण्य में बढ़ोत्तरी ही होती है। यही कारण है कि समस्त अखाड़ों और उनसे जुड़े साधु-संन्यासियों में भी उज्जैन को लेकर अलग ही उत्साह रहता है। खेतों में सम्पूर्ण नगर बसाने में वे कोई कसर नहीं छोड़ते हैं। ऐसा ही चमकता-दमकता कुंभ नगर उज्जैन के बड़नगर रोड और अंंकपात क्षेत्र में देश-विदेश के लोगों की प्रतीक्षा में है।  

अखाड़ों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

उज्जैन में होने जा रहे सिंहस्थ महाकुंभ में अखाड़ों की पेशवाई शुरू होते ही साधु-संन्यासियों का उज्जैन आगमन शुरू हो गया है। विभन्नि अखाड़ों के शिविर तैयार किए जाने का काम भी जोर-शोर से चल रहा है। वद्विानों के अनुसार अखाड़ों का नर्मिाण राष्ट्र और हन्दिू संस्कृति के लिए, देश और काल के अनुसार एक अनुपम देन थी जिसका नर्विाह आज भी उसी गौरव के साथ किया जा रहा है। यह एक स्थापित मत है कि संन्यासी अखाड़ों का नर्मिाण शास्त्र और शस्त्र, धर्म और सेना, ब्रह्म तथा क्षत्रिय दोनों के समन्वित रूप से हुआ था।
शंकराचार्य ने वेद और वेदान्त के प्रचार एवं प्रसार के लिए समस्त संन्यासियों को संगठित किया था और उन्हें दस वगार्ें में विभाजित किया था, जन्हिें तीर्थ, आश्रम, वन, अरण्य, गिरि, पर्वत, सागर, सरस्वती, भारती और पुरी नामों से जाना जाता है। शंकराचार्य के काल में संन्यासियों का कार्य केवल धर्म प्रचार ही था। मुगलकाल में जब हन्दिुओं पर अत्याचार बढ़े तो संन्यासियों ने शास्त्र छोड़कर शस्त्रों का सहारा लिया। संन्यासियों की समुचित शक्ति का उपयोग करने के लिए देश के विभन्नि भागों में अखाड़ों की स्थापना की गई। मान्यता प्राप्त कुल 13 अखाड़े हैं जिनका संगठन अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद है। अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद के साथ सामंजस्य से ही प्रशासन कुंभ में शाही स्नान की तिथि घोषित करता है। इन अखाड़ों में 7 अखाड़े शैव अखाड़े हैं। इनमें निरंजनी, महानर्विाणी और जूना तीन मुख्य अखाड़े हैं जबकि अटल, आवाहन और आनन्द अखाड़े छोटे अखाड़े हैं। जूना अखाड़ा पुरुष और महिला संन्यासियों की संख्या के लिहाज से सबसे बड़ा अखाड़ा है। अटल अखाड़ा महानर्विाणी से, आवाहन अखाड़ा जूना से और आनन्द अखाड़ निरंजनी अखाड़े से सम्बद्घ हैं। सबसे छोटा अखाड़ा अग्नि है जो जूना से सम्बद्घ है। बड़ा उदासीन, नया उदासीन और नर्मिल अखाड़ा 3 उदासीन अखाड़े हैं। नर्मिल अखाड़े की स्थापना गुरु गोवन्दि सिंह के निकटतम सहयोगी वीरसिंह ने की थी। ये भस्म नहीं रमाते और गुरु नानकदेव के सद्धिान्तों के अनुसार चलते हैं।
दिगम्बर अणि, नर्विाणी अणि और निमार्ेही अणि तीन वैष्णव (बैरागी) अखाड़े कहे जाते हैं। वास्तव मंे अणि शब्द का अर्थ लघु सेना बताया जाता है। वैष्णव अखाड़ों की संख्या बढ़ती गई तो इन्हें अणियों में संगठित किया गया। वैष्णव अखाड़ों की संख्या 18 है, जिनमें राम की उपासना करने वाले 7 हैं जबकि 11 कृष्णोपासक हैं। दिगंबर अणि में दो ही अखाड़े हैं, एक रामोपासक और  दूसरा कृष्णोपासक, लेकिन निमार्ेही अणि मंे कुल 9 और नर्विाणी अणि में 7 अखाड़े हैं।  
इन अखाड़ों से जुड़े संत ही पेशवाई और गाजे-बाजे, जुलूस के साथ स्नान (जिसे शाही स्नान कहते हैं) के हकदार होते हैं। शाही स्नान के लिए मुख्य स्थल और समय इनके लिए ही आरक्षित होता है। सूयार्ेदय से इनके स्नान का सिलसिला शुरू होता है। आम लोग और अन्य साधु-संत, जो अखाड़ों से नहीं जुड़े, सूयार्ेदय के पूर्व और इन अखाड़ों के स्नान के बाद ही मुख्य स्थल पर स्नान कर सकते हैं।
अनेक संत ऐसे होते हैं जिनका अखाड़ों से कोई संबंध नहीं होता लेकिन अपनी वद्विता के कारण वे परमहंस की स्थिति में पहुंचकर सभी के लिए पूज्य होते हैं। परमहंस तेलंग स्वामी, स्वामी करपात्री जी महाराज और उनके द्वारा स्थापित अखिल भारतीय धर्म संघ के अध्यक्ष रहे स्वामी लक्ष्मण चैतन्य महाराज तथा उनके शष्यि स्वामी शंकरदेव चैतन्य ब्रह्मचारी ऐसे ही संन्यासी हैं। अखण्ड परमधाम के स्वामी परमानन्द जी महाराज भी अखाड़ों से पृथक एक पूज्य संन्यासी थे, लेकिन 2004 में अत्यन्त आग्रह के बाद वे एक अखाड़े में शामिल होने को तैयार हो गए जहां उन्हें महामण्डलेश्वर पद पर आसीन किया गया।
स्वामी सत्यमत्रिानन्द जी भी ऐसे पूजनीय संन्यासी हैं जन्हिोंने भानपुरा पीठ के शंकराचार्य पद को सुशोभित किया और रूढि़यों के विरुद्ध धर्मप्रचार और जनजातियों की सेवा के लिए उक्त पद छोड़ दिया। 1986 में उन्हें भी अखाड़े की प्रतष्ठिा में वृद्धि के लिए आग्रहपूर्वक महामण्डलेश्वर पद देकर अखाड़े में शामिल कर लिया गया।
अखाड़ों में अनेक महामण्डलेश्वर, मण्डलेश्वर, श्रीमहन्त, महन्त होते हैं जिनके बारे में बताया जाता है कि चुनाव प्रजातांत्रिक पद्धति से होता है। लेकिन हाल ही में एक बीयरबार संचालक को महामण्डलेश्वर पद पर विराजित किए जाने के विवाद के बाद चर्चा जोर पकड़ने लगी है। ऐसे आरोप हमेशा लगते रहे हैं कि महामण्डलेश्वर की पदवी के लिए लेनदेन होता है। कुम्भ के दौरान शाही स्नान के लिए अखाड़ों के साथ छत्र और चंवर के साथ पेशवाई में शामिल होने का लोभ ही इसके पीछे कारण समझा गया।  
 

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लखनऊ : अंतरिक्ष से लौटा लखनऊ का लाल, सीएम योगी ने जताया हर्ष

छत्रपति शिवाजी महाराज

रायगढ़ का किला, छत्रपति शिवाजी महाराज और हिंदवी स्वराज्य

शुभांशु की ऐतिहासिक यात्रा और भारत की अंतरिक्ष रणनीति का नया युग : ‘स्पेस लीडर’ बनने की दिशा में अग्रसर भारत

सीएम धामी का पर्यटन से रोजगार पर फोकस, कहा- ‘मुझे पर्यटन में रोजगार की बढ़ती संख्या चाहिए’

बांग्लादेश से घुसपैठ : धुबरी रहा घुसपैठियों की पसंद, कांग्रेस ने दिया राजनीतिक संरक्षण

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