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पंडित दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानवदर्शन को मूर्त रूप देने का कार्य नानाजी देशमुख ने किया। उन्होंने इसी दर्शन के आधार पर देश के विकास का मॉडल खड़ा करने का संकल्प लिया और सफल हुए
अतुल जैन
इस बरस हम देश के दो ऐसे महान सपूतों का जन्म शताब्दी वर्ष मनाने जा रहे हैं जिनमें से एक ने अपने देश के जीवन दर्शन को एक सूत्र में पिरोया और दूसरे ने उसे मूर्त रूप दिया। इस दर्शन का प्रतिपादन करने वाले थे पंडित दीनदयाल उपाध्याय और उसके शिल्पकार, नानाजी देशमुख। इस दर्शन को हमने जाना और पुकारा एकात्म मानवदर्शन के नाम से, इसके प्रतिपादन की अर्धशताब्दी भी हमने मनाई। पहले तो संक्षेप में स्मरण करें, एकात्म मानवदर्शन की परिकल्पना का। दरअसल, भारतीय संस्कृति के विभिन्न आयामों का कुल जोड़ है 'एकात्म मानवदर्शन' सरल शब्दों में, सनातन भारत का आईना। उसकी विशिष्टताओं का, उसके अध्यात्म का, उसकी कर्मशीलता का, प्रकृति से उसकी एकात्मता का, भारत के अर्थशास्त्र का, उसके समाजशास्त्र का, उसकी विविधता को एकरूपता में पिरोने वाला सूत्र है, एकात्म मानवदर्शन।
हुआ यूं कि आजादी के बाद देश के विकास की दिशा कैसी हो, इस विषय से हम भटक गए थे…इस भटकाव के कारण, मन में अपने ही कामकाज के प्रति तिरस्कार और पश्चिम की सोच, उसके परिवेश, उसके धंधों आदि के प्रति सम्मान का भाव पैदा हो गया था। पिछली दो-तीन शताब्दियों में विदेशी ताकतों ने हमें अज्ञानता के अंधकार में धकेल दिया था। एक छोटे, लेकिन तथाकथित संभ्रांत वर्ग ने हमारे पूरे तंत्र का ही मानो अपहरण कर लिया था। कुंठा के शिकार हो, हम समाजवाद, साम्यवाद, पूंजीवाद, जैसी विदेशी विचारधाराओं के मोहपाश में अनायास ही फंस गए थे। हमारा अपना दर्शन देश के मानस-पटल से लुप्त होने लगा था। देश के राजनैतिक नेतृत्व को भारत की सनातन परंपरा की विशालता और राष्ट्र की अपनी बौद्धिक शक्ति का भान नहीं हो पा रहा था। ऐसे शून्य में पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने देश को अपने दर्शन से बोध कराया। उसी में से अंकुरित हुआ एकात्म मानवदर्शन, जो आज वटवृक्ष बन गया है। दीनदयाल जी ने कहा, ''हमें संपूर्ण मानव के ज्ञान और उपलब्धियों का समग्र विचार करना चाहिए। इन तत्वों में जो हमारा है, उसे समय के अनुसार, और जो बाहर का, उसे देश की परिस्थितियों में ढाल कर, हमें आगे चलने का विचार करना चाहिए।''
1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात, एकात्म मानवदर्शन ही पूंजीवाद व साम्यावद के विकल्प के रूप में विकसित हुआ, लेकिन राजनैतिक कारणों से यह दर्शन वैश्विक पटल पर उभर नहीं पाया। अगर हम पूंजीवाद तथा एकात्म मानवदर्शन की तुलना करें तो स्पष्ट होता है कि पूंजीवाद में सिर्फ व्यक्ति के भौतिक पक्ष के विकास का स्थान है जबकि एकात्म मानवदर्शन इसके साथ-साथ परस्परावलंबन का भाव रखते हुए एक स्वस्थ प्रतियोगिता को भी मान्यता देता है। इसी तरह साम्यवाद सिर्फ राज्य पर व्यक्ति की निर्भरता को बढ़ाता है, जबकि एकात्म मानवदर्शन मनुष्य के सभी गुणों-श्रमताओं की उत्कृष्ता का हामी है। पाश्चात्य व साम्यवादी सोच के लोगों ने देश में एक ऐसा वातावरण बनाया कि यह दर्शन सिर्फ कल्पना की बात है। इसे व्यवहार में नहीं उतारा जा सकता। नानाजी देशमुख उन दिनों जनसंघ के पुरोधाओं में से थे। अपने राजनैतिक व वैचारिक सखा पंडित दीनदयाल उपाध्याय की हत्या ने उन्हें झकझोर कर रख दिया था। उन्हें धुन सवार हो गई थी कि उन्हें एकात्म मानवदर्शन के आधार पर ही देश के विकास का मॉडल खड़ा करना है।
जब वे अपने राजनैतिक जीवन के चरम पर थे, तभी उन्होंने राजनीति से संन्यास लेने की घोषणा कर दी और दीनदयाल जी के दिए दो सूत्रों – परस्परावलंबन और उत्कृष्टता को अपना जीवन मंत्र व उद्देश्य बना लिया। देश को एकात्म मानवदर्शन से प्रेरित विकास का मॉडल देने का संकल्प लिया। यह 1978 की बात है। उससे 10 वर्ष पूर्व 1968 में वे दीनदयाल शोध संस्थान की स्थापना कर चुके थे। अपने पहले दशक में संस्थान ने देश को अपनी एक वैचारिक धार देने का काम किया और फिर 1978 में नानाजी ने संस्थान को पूरी तरह एकात्म मानवदर्शन के अधिष्ठान पर गांवों के समग्र विकास के लिए समर्पित कर दिया। नानाजी ने दीनदयाल शोध संस्थान के लिए पांच दिशा सूत्र:- शून्य गरीबी, शून्य अशिक्षा, शून्य बेरोजगारी, शून्य बीमारी, शून्य विवाद तय किए। उनका मुख्य उद्देश्य था गांवों के समग्र विकास का ऐसा मॉडल खड़ा करना जो इन सभी सूत्रों को एक माला में पिरोता हो। वे उसे आस्था का विषय बनाना चाहते थे। नानाजी का मानना था कि सिर्फ कहने भर से, भाषण देने भर से हम इस दर्शन की आम लोगों में स्वीकार्यता नहीं बना पाएंगे। इसके लिए, दर्शन को एक आकार देना होगा।
एकात्म मानवदर्शन का एक अन्य विशेष सूत्र था अपने विकास-मॉडल का वर्तमान के साथ मेल। नानाजी ने इसका पूरा ध्यान रखा। उन्होंने आधुनिक विज्ञान से कभी परहेज नहीं किया। गोंडा के सफल प्रयोग के बाद उन्होंने महाराष्ट्र के बीड़ में यह मॉडल खड़ा किया और फिर वनवासी राम की कर्मभूमि चित्रकूट को अपनी प्रयोगभूमि बनाया। अपने दर्शन में उत्कृष्टता हासिल करने का जो मंत्र दिया गया है, नानाजी ने उसे व्यवहार में लाने के लिए एक वैज्ञानिक रीति अपनाई। उन्होंने एक प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय एजेंसी से ऐसे पैरामीटर तय करने को कहा जो संस्थान की कार्यपद्धति को आधुनिक बना कर समय के साथ कदमताल कर सकें।
संस्थान को स्थापित हुए लगभग 48 वर्ष हो गए हैं। श्रद्धेय नानाजी के दूरदर्शी व नवीन सोच वाले नेतृत्व व कुशल मार्गदर्शन में संस्थान ने पंडित दीनदयाल उपाध्याय द्वारा प्रतिपादित एकात्म मानवदर्शन को व्यावहारिक धरातल पर उतारने में बहुत से सोपान चढ़े, और मील के पत्थर पार किए। नानाजी ने विशुद्ध भारतीय चिंतन के आधार पर गांवों में ऐसी रचना खड़ी की जो बहुत से लोगों को चौंकाने वाली है।
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