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भारतीय जीवन प्रकृति में रचा-बसा है। हम मनुष्य और प्रकृति की एकात्मकता में यकीन रखते हैं। पं. दीनदयाल उपाध्याय इस भारतीय जीवन रेखा जो मनुष्य और प्रकृति की एकात्मकता पर आधारित है, के बड़े पैरोकार रहे हैं। वे इसे एकात्म दर्शन अथवा एकात्म मानववाद के दर्शन के रूप में संबोधित करते थे। अभूतपूर्व दुनिया जो परमात्मा की अभिव्यक्ति है वह 'माया' के अंदर है, और लोग ब्रह्मांड, समय और माया के रूप में इसका अनुभव करते हैं। इस स्तर पर माया को प्रकृति कहते हैं, जो जगत के सभी पदार्थों का मूल है और जिसे देवी मां भी कहते हैं। हिंदू दर्शन में प्रकृति हजारों प्रकार के जीव-जंतुओं में समाहित है। हिंदू दर्शन अनेकता में एकता पर विश्वास करता है। यह प्रकृति का होने के साथ सभी को एक मानता है। यह कहा जा सकता है कि लौकिक स्तर पर सर्वव्यापी एकता है जो परिलक्षित होती है और व्यक्ति के स्तर पर बाहरी विविधता है जो दिखाई पड़ती है। इस स्तर पर स्थान और समय की सीमाएं माया के कारण होती हैं और यह विभिन्न नामों और कई जीवनरूपों से दिखता है। प्रकृति जो संपूर्ण संसार है, ब्रह्म का बाहरी स्वरूप है, जो स्थान, समय द्वारा सीमित है, पंचभूत का बना है। ये ब्रह्मांड (जिसे प्रपंच भी कहते हैं) के प्राथमिक घटक हैं जिसका हिस्सा प्रकृति है। इसीलिए प्रपंचम को ब्रह्मांडीय और प्रकृति को पर्यावरण और पारिस्थितिक माना जाता है जो हमारे अस्तित्व के लिए आवश्यक है। यह समग्र, एकीकृत और परस्पर दृष्टिकोण भारतीय दर्शन में निहित आधुनिक सतत विकास का केंद्रीय विषय है। प्राचीन भारत में जीवन का उद्देश्य इस आध्यात्मिक ज्ञान को पहचानना ही था। सादा जीवन और उच्च विचार इस जीवनशैली की विशेषता थे। इसीलिए सरल उत्पादन और सरल खपत भारत के पारंपरिक ज्ञान का हिस्सा थी, बजाए कि अत्यधिक शोषण के, जो कि आधुनिक सतत विकास के लिए आवश्यक तत्व है।
पंचभूतों का ब्रह्मांड : भारत में प्रकृति का विज्ञान – प्राचीन भारत में शब्द प्रपंच का अर्थ ब्रह्मांड है। प्रकृति और पर्यावरण पांच तत्वों (आकाश, वायु, अग्नि, जल एवं भूमि) और उनकी विशेषताओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। इसी से इस शब्द प्रपंच की उत्पत्ति हुई है। यह स्थापित तथ्य है कि ब्रह्मांड पांच मूल तत्वों से बना है।
सूक्ष्मता के आधार पर इन पांच तत्वों का वर्गीकरण किया गया है। ब्रह्मांड इन्हीं पांच तत्वों के बीच एक परस्पर क्रिया है। इसी क्रिया से सभी आकार, अंतरिक्ष और पदार्थ प्रकट हुए हैं। पंचीकरणम की प्रक्रिया के बाद ये सभी पंचभूत भौतिक हो जाते हैं। अर्थात् 5 मूल तत्वों की 5 प्रक्रियाओं की तीन गुना यानी 5 क्रियाओं (पंचीकरणम) और प्रपंच का निर्माण ही ब्रह्मांड की उत्पत्ति है।
सबसे पहले आकाश अथवा अंतरिक्ष आया। हम आकाश से केवल ध्वनि सुनते हैं। हम आकाश को न छू सकते हैं, न देख सकते हैं, न उसका स्वाद ले सकते हैं न ही उसे सूंघ सकते हैं। उसके बाद हवा (वायु) की उत्पत्ति हुई। जब तेज हवा बहती है तब हम उसे सुन पाते हैं और उसे महसूस कर सकते हैं जब वह हमारे शरीर को स्पर्श करती है। लेकिन हम न उसे देख सकते हैं, न उसे सूंघ सकते हैं, न ही उसका स्वाद ले सकते हैं। लेकिन अगली अवस्था में तेजस/ अग्नि/ आग उत्पन्न होती है हम उसे सुन सकते हैं, उसका स्पर्श कर सकते हैं और उसे देख सकते हैं। इसके बाद जब जल उत्पन्न होता है, तो हम उसके बहाव को सुन सकते हैं, उसे स्पर्श कर सकते हैं, देख सकते हैं और उसका स्वाद ले सकते हैं। सबसे आखिर में धरती / पृथ्वी की उत्पत्ति हुई जिसका अर्थ है विस्तार करने वाला और भारी। यहां हम उसकी आवाज सुन सकते हैं, मिट्टी का स्पर्श कर सकते हैं, उसे देख सकते हैं, उसका स्वाद ले सकते हैं और उसे सूंघ भी सकते हैं। धरती की उत्पत्ति के साथ ही सभी पांच चेतनाएं और उनकी इंद्रियां विकसित हैं और समय के साथ उनका उपयोग हो रहा है। आकाश का विस्तार ही ब्रह्मांड के निर्माण का कारण है।
इन पांच तत्वों के संतुलन और उनकी पवित्रता से ही पृथ्वी पर जीवन तय हुआ है। हमारा शरीर भी इन्हीं 5 तत्वों से बना है। इन 5 तत्वों की पवित्रता से ही शरीर की सेहत और संतुलन निर्धारित होता है।
पंच माता अवधारणा- जन्म देने वाली देहमाता, गो-माता, मातृभूमि, धरती माता और प्रपंच माता (सर्वोच्च माता) विभिन्न स्तरों पर प्रकृति के प्यार और सम्मान को बढ़ावा देने के लिए मातृत्व की ये पांच अवधारणाएं हैं। ये लोगों को प्रकृति (मां) के शोषण से दूर रखती हैं। इसके साथ ही एक स्थायी जीवन शैली को इससे बढ़ावा मिलता है।
पुरुषार्थ – एक हिंदू के जीवन का लक्ष्य धर्म और मोक्ष को प्राप्त करना है। धर्म आचार संहिता है जो सांस्कृतिक और आध्यात्मिक विकास के माध्यम से मनुष्य और प्रकृति में भौतिक संतुलन बनाए रखता है। धर्म के मुताबिक संपत्ति की इच्छा की जा सकती है और उसे प्राप्त किया जा सकता है लेकिन उससे केवल मनुष्य की इच्छाओं की पूर्ति हो सकती है। व्यस्त जीवन के बाद मुक्ति के लिए सेवानिवृत्ति आवश्यक है। मोक्ष फिर एक ऐसी अवस्था है जो सादगी और कठोर जीवन में है। ये सभी सिद्धांत और आदतें एक टिकाऊ जीवन शैली की ओर ले जाती हैं।
चार आश्रम (अवस्थाएं) – हिंदुत्व में एक व्यक्ति के जीवन की ये चार अवस्थाएं हैं, ब्रह्मचर्य (विद्यार्थी जीवन), गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास। इन चार में से तीन ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और संन्यास सादे जीवन की अवस्थाएं हैं जो संतुलित जीवनशैली की ओर ले जाती हैं।
देवी, देवता और उनके वाहन – हिंदूधर्म के असंख्य देवी और देवताओं के कारण बड़ी संख्या में जीव और पेड़-पौधे संरक्षित हैं जिनकी वजह से जैव विविधता का नुक्सान होने से बचा है। राशि के आधार पर भी उनसे जुड़े हुए पौधे, पेड़, पक्षी और जानवरों की समाज ने रक्षा की है। यह जैव विविधता को बचाए रखने का आसान
तरीका है।
पवित्र उपवन और स्थिरता
भारत के विभिन्न हिस्सों में पवित्र उपवनों की अनूठी परंपरा है इससे भी विविधता संरक्षण में मदद मिली है। वे जल संरक्षण, जैव विविधता संरक्षण और वायु शोधन के रूप में पारिस्थितिक सेवा करते हैं। 'ईशावास्यमिदं सर्वम् यत्किंचित जगत्यांजगत', उपनिषद के इस श्लोक में भगवान सर्वव्यापी हैं, यह बताया गया है। समय-स्थान के मुताबिक सभी की अपनी प्रासंगिकता और महत्व है। यह सर्व समग्रता ही भारत के विकास की खासियत है। भारतीय समावेशी विकास में हाशिये के लोगों के साथ हाशिये के जानवर और पौधे भी हिस्सा थे। इसीलिए पर्यावरण की गुणवत्ता बनाए रखते हुए विकास को हासिल करने में भारत 21 वीं सदी में अगुआ हो सकता है। विकास नीतियां बनाने और पर्यावरण कार्यक्रम लागू करने से पहले भारत के पारंपरिक ज्ञान को देखा जाना आवश्यक है।
डॉ. टी.वी. मुरलीवल्लभन (लेखक एनएसएस कॉलेज के पूर्व प्रिंसिपल और
श्री रामकृष्ण मठ पाला, केरल में अकादमिक कोऑर्डिनेटर हैं।)
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