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पं. दीनदयाल उपाध्याय भारत की उन महान विभूतियों में से एक हैं जिन्होंने राष्ट्र को सर्वोपरि रखते हुए इसकी अखडंता को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए प्राणपण से संघर्ष किया था
भारतीय ऋषि परंपरा की अधुनातन कड़ी हैं पं़ दीनदयाल उपाध्याय। अंग्रेजों के खिलाफ आजादी के आंदोलन के अंतिम दशक (1937-1947) को द्वि-राष्ट्रवाद के आन्दोलन ने आक्रांत कर लिया था। भारतमाता की भक्ति और वन्देमातरम् की भावना के साथ चलने वाले स्वराज्य प्राप्ति के आंदोलन को 'रोज-भोग' लालसा के बंदरबांट आन्दोलन ने आवृत्त कर लिया था। मजहब के आधार पर भारत-विभाजन की दुरभिसंधि का दुष्काल था यह दशक।
यही वह दशक है, जब युवा एवं प्रतिभा-संपन्न दीनदयाल सार्वजनिक जीवन में आते हैं। भारत की अखंड एवं एकात्म राष्ट्रीयता के एहसास के साथ वे इस विभाजनकारी दुश्चक्र के प्रतिकार की महत्वाकांक्षा लेकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक बन जाते हैं, अपने को पूर्णत: समर्पित कर प्रचारक बन जाते हैं। आजादी के नाम पर चलने वाले आंदोलन में नीतिमत्ता, वीरव्रत एवं क्षात्र-धर्म का अभाव देखते हैं तथा आने वाली पीढ़ी के लिये एक उपन्यास लिखते हैं- 'चन्द्रगुप्त मौर्य'। वे आश्चर्यचकित थे कि पाश्चात्य जीवनमूल्यों की आकांक्षा लेकर भारत की स्वतंत्रता के सपनों को पालने का प्रयत्न किया जा रहा है, उन्होंने दूसरा उपन्यास लिखा 'जगद्गुरु शंकराचार्य'। राष्ट्रीय अखंडता एवं राष्ट्रीय एकात्मता के वे प्रखर प्रवक्ता बन गये। तब वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में उत्तर प्रदेश के सह-प्रांत प्रचारक थे। उन्होंने 'स्वदेश' दैनिक, 'पाञ्चजन्य' साप्ताहिक तथा 'राष्ट्रधर्म' मासिक का प्रकाशन प्रारंभ किया।
हिंसाचारी मजहबी पृथकतावाद से भयाक्रांत एवं समझौतावादी तथाकथित राष्ट्रवाद पर वे निरंतर प्रहार करते रहे। मुख्यधारा का आंदोलन विपथगामी हो चुका था, अत: उस दुर्भाग्य को टाला नहीं जा सका, जिसने विश्व के प्राचीनतम एवं महान राष्ट्र के दो टुकड़े कर दिये, राष्ट्र की अखंडता भंजित हुई, द्वि-राष्ट्रवाद जीत गया। दीनदयाल उपायाय ने द्वि-राष्ट्रवाद की इस जीत को कभी स्वीकार नहीं किया, वे 'अखंड भारत' की मशाल लेकर आगे बढ़े। आजाद भारत में उनकी पहली पुस्तक आई 'अखंड भारत क्यों?' उन्होंने इस सपने तथा विचार को कभी अविषय नहीं बनने दिया, अखंड भारत का निरंतर आग्रह रखा। हमारे लिये अखंड भारत कोई राजनीतिक नारा नहीं है, बल्कि हमारे संपूर्ण जीवनदर्शन का मूलाधार है। 1951 में ही दीनदयालजी राजनैतिक क्षेत्र में आये, वे भारतीय जनसंघ के महामंत्री बने। जब तक वे जीवित थे, 1952 से '67 तक सभी चुनावी घोषणा पत्रों में उन्होंने अखंड भारत को जनसंघ का लक्ष्य घोषित किया। वे कहते हैं, ''वास्तव में भारत को अखंड रखने का मार्ग युद्ध नहीं है। युद्ध से भौगोलिक एकता हो सकती है, राष्ट्रीय एकता नहीं। देश का विभाजन दो-राष्ट्रों के सिद्धांत तथा उसके साथ समझौते की प्रवृत्ति से हुआ। अखंड भारत, एक-राष्ट्र के सिद्धान्त पर मन-वचन एवं कर्म से डटे रहने पर सिद्ध होगा। जो मुसलमान आज राष्ट्रीय दृष्टि से पिछड़े हुए हैं, वे भी आपके सहयोगी बन सकेंगे, यदि हम राष्ट्रीयता के साथ समझौते की वृत्ति त्याग दें। आज की परिस्थिति में जो असंभव लगता है वह कालांतर में सम्भव हो सकता है, किन्तु आवश्यकता है कि आदर्श हमारे सम्मुख सदा ही जीवित रहे।'' जब डॉ़ राम मनोहर लोहिया जैसे लोग उनके तर्क से सहमत हुए तब डॉ़ लोहिया व दीनदयालजी का संयुक्त वक्तव्य आया कि 'भारत-पाकिस्तान महासंघ' बनाने की प्रक्रिया को आगे बढ़ाया जाना चाहिये।
इसी अखंडता की साधना में दीनदयाल जी ने कश्मीर के भारत विलय में उत्पन्न की गई बाधाओं के खिलाफ देश भर में सत्याग्रह आयोजित किया। राष्ट्रीयता के साथ समझौते की प्रवृत्ति ने पुन: कश्मीर में आत्मनिर्णय का बेसुरा राग अलापा। दीनदयालजी बोले, ''पाकिस्तान के निर्माता इस्लाम को राष्ट्रीयता का आधार मानकर चले हैं। इसी आधार पर वे मुस्लिम बहुल कश्मीर पर अपना स्वाभाविक अधिकार मानते हैं। जिस दिन वे अपना अधिकार छोड़ देंगे, उनकी नींव खिसक जायेगी।़.़.़ किन्तु भारत द्वि-राष्ट्रवाद के सिद्धांत को न तो आज मानता है, न पहले कभी माना था। भारत का विभाजन यदि द्वि-राष्ट्रवाद के आधार पर होता तो फिर यहां एक भी मुसलमान नहीं रह पाता।़.़. यदि आज कश्मीर पर केवल इस कारण पाकिस्तान का अधिकार स्वीकार कर ले कि वहां मुसलमानों का बहुमत है, तो हम अपनी एक-राष्ट्रीयता की नींव पर कुठाराघात करेंगे।''़.़ हमारे द्वारा जनता की राय जानने की घोषणा करना सैद्धांतिक दृष्टि से गलत था। दुर्भाग्यवश पाकिस्तान आज उसी को पकड़े बैठा है। पाकिस्तान के नाम से विभक्त भूमि तथा जन को वे अपना मानते थे तथा द्वि-राष्ट्रवादी अस्तित्व पाकिस्तान को अपना प्राकृत शत्रु मानते थे।
एकात्मता के इसी बोध के कारण जब संविधान बन रहा था, उन्होंने मांग की कि भारत एक देश है, भारत का एक ही राज्य होना चाहिये। राजनैतिक भारत का अस्तित्व किन्हीं कृत्रिम राज्यों का संघ नहीं वरन् उसे एकात्म-राज्य होना चाहिये। संविधान में स्वीकार की गई संघात्मकता को वे 'भारत की राजनीति की मौलिक भूल' मानते थे। वे परंपरागत भारत की जनपदीय एवं पंचायत इकाइयों तक एकात्म-राज्य की सत्ता का विकेन्द्रीकरण चाहते थे। दुर्भाग्य से हमने पाश्चात्यों की नकल कर कृत्रिम रूप से भारत को राज्यों का संघ बनाया। हमने अपने राजनैतिक जीवन में एक 'उप-राष्ट्रवाद' की दुर्गंध घोल दी। भाषावार राज्य रचना मंें बेहद हिंसा एवं पृथकतावाद का पोषण हुआ। भारतीय जनसंघ के अलावा एक भी दल नहीं था जो एक आवाज में बोल रहा था।
हिंसा एवं भूख हड़ताल में हुई मौत के कारण पहला राज्य आंध्र प्रदेश बना तथा वैसी ही हिंसा के बाद नवीनतम राज्य तेलंगाना का निर्माण हुआ है। नदियों एवं क्षेत्रों के शाश्वत झगड़े हमने खड़े कर लिये हैं। भारतीय जनसंघ के प्रत्येक घोषणा पत्र में दीनदयालजी एकात्म राज्य की स्थापना को अपना लक्ष्य घोषित करते थे। कालीकट का उनका ऐतिहासिक अध्यक्षीय उद्बोधन भी 'एकात्म-राज्य' की मांग को रेखांकित करता है।
साम्राज्यवादी शिक्षा ने हमें पढ़ाया था-भारत कोई देश या राष्ट्र नहीं है, वरन् उपमहाद्वीप है। परिणामत: पाश्चात्य प्रभावित राजनेताओं के मन में महान एवं प्राचीन भारत की कल्पना नहीं थी। वे 'ब्रिटिश इंडिया' को ही भारत मानते थे। अत: भारत के उन हिस्सों जो अंग्रेजों के नियंत्रण में नहीं थे, को वे भारत नहीं मानते थे। पुर्तगाल नियंत्रित गोवा-दमण-दीव तथा फ्रांस नियंत्रित पांडिचेरी भी आजाद होने चाहिये, न केवल उन्होंने इसका प्रयत्न नहीं किया वरन् इनकी आजादी की मांग करने वालों को साम्राज्यवादी करार दिया। पं. दीनदयाल उपायाय ने इस चुनौती को स्वीकार किया और गोवा मुक्ति संग्राम छेड़ा। देशभर के विविध क्षेत्रों से गठित कर सौ लोगों का सत्याग्रही जत्था श्री जगन्नाथ राव जोशी के नेतृत्व में गोवा भेजा। जनसमर्थन जुटाया। डॉ़ लोहिया के समाजवादी दल ने भी इस आंदोलन में भाग लिया तथा भारत की अधूरी आजादी को कुछ पूरा करने में सफलता प्राप्त हुई।
यह देश की अर्थव्यवस्था को निर्णायक आकार देने का समय था। साम्राज्यवादी अंग्रेजों ने अपनी औद्योगिक क्रांति को सफल करने के लिये भारत के उत्पादन तंत्र को तोड़ दिया। अपने शासन एवं प्रशासन को चलाने के लिये उन्होंने भारत की भावी पीढ़ी को सृजनात्मक एवं उत्पादक अर्थरचना से विलग कर नौकरी-लोभी बनाया। भारतीय बाजार एवं प्राकृतिक संसाधनों का भयानक शोषण हुआ। 'सोने की चिडि़या' कहलाने वाला भारत कंगाल एवं दरिद्र बन गया। अर्थव्यवस्था के नये नियामक पाश्चात्यों के ही दूसरे ध्रुव समाजवादी रुझान वाले बन गये, सोवियत रूस का अनुगमन करते हुये। पंचवर्षीय योजनाओं का निरूपण हुआ। सहकारी खेती एवं उद्योगों के सरकारीकरण का यह दौर बहुत चुनौतीपूर्ण था।
पं. दीनदयाल उपाध्याय ने इस चुनौती को स्वीकार किया। शासन व समाज को चेताया। उनकी दो पुस्तकें आईं, पहली अंग्रेजी में 'टू प्लान्स : प्रॉमिसेज, परफॉर्मेन्स, प्रोस्पेक्ट्स' (दो योजनायें : वायदे, अनुपालन, आसार) तथा दूसरी हिंदी में 'भारतीय अर्थनीति : विकास की एक दिशा'। इन पुस्तकों में उन्होंने भारतीय 'अर्थायाम' का विश्लेषण किया। 'आर्थिक लोकतंत्र' की अवधारणा प्रस्तुत की। उन्होंने कहा कि जैसे 'राजनीतिक लोकतंत्र का निकष है प्रत्येक वयस्क को मताधिकार, उसी तरह प्रत्येक वयस्क को कार्यावसर (रोजगार), यह आर्थिक लोकतंत्र का निकष है। उन्होंने परंपरागत 'स्वरोजगार कार्यक्षेत्र को सबल बनाने की सलाह दी। निजी एवं सरकारी क्षेत्र के कृत्रिम विभाजन को नकारने की सलाह दी। औद्योगिक क्रांति एवं उपनिवेशवाद के गर्भ से जन्मी केन्द्रीकरणवादी अर्थव्यवस्था का निषेध करते हुये 'विकेन्द्रित अर्थव्यवस्था को अपना आदर्श बताया। अंत्योदय का प्रतिपादन करते हुये उन्होंने आगाह किया कि हमारी समस्या केवल अर्थ का अभाव (गरीबी) ही नहीं है। उन्होंने उत्पादन में वृद्धि, वितरण में समता तथा उपभोग में संयम का त्रि-सूत्री समीकरण प्रस्तुत किया। एक पुस्तक तथा 'योजना बदलो' शीर्षक से उन्होंने पांच धारावाहिक आलेख लिखे। वे पाश्चात्य 'वाद' परंपरा के ढांचे से बंधकर सोचने की बजाए भारतीय परंपरा एवं परिस्थिति को समझकर व्यावहारिक आयोजन के पक्ष में थे। उन्होंने कहा, ''भारतीय अर्थव्यवस्था की समस्याओं के लिये दो शब्दों का निदान पर्याप्त है, पहला है 'स्वदेशी' तथा दूसरा है विकेंद्रीकरण।''
'स्वदेशी' की उनकी अवधारणा केवल आर्थिकी तक सीमित नहीं थी। वे व्यापक रूप से संपूर्ण व्यवस्थाओं एवं वातावरण का 'भारतीयकरण' चाहते थे।
भारतीयता एवं भारत की अखंडता की उपासना करते हुए, वे भारतीय जनसंघ को गढ़ रहे थे। भारतीय जनसंघ का विस्तार व विकास लोगों को आश्चर्यचकित करने वाला था। कांग्रेस के बाद जनसंघ एकमात्र दल था जो अखिल भारतीय दल के रूप में विकसित हुआ। प्रत्येक चुनाव में यह दल आगे बढ़ा, 1952 से 1967 तक हुये चुनाव इस बात के साक्षी हैं। सोशलिस्ट, कम्युनिस्ट तथा स्वतंत्र पार्टी सभी को पीछे छोड़ते हुये 1967 में यह दल कांग्रेस के बाद नंबर दो का दल बन गया। शेष दलों के पास बड़े नामवर नेता थे, ये सभी दल किसी न किसी वर्गीय हित की बात करते थे अत: इनके पास कोई न कोई वोट बैंक भी था। जनसंघ के पास न ऐसा नेता था, न कोई वोट बैंक, फिर यह दल आगे बढ़ कैसे रहा है, लोगों को यह समझ में नहीं आता था। वस्तुत: इसका रहस्य पं़ दीनदयाल उपाध्याय के व्यक्तित्व में था। वे व्यक्तिपूजक राजनीति के विरोधी थे। उन्होंने निष्ठावान कार्यकर्ताओं की फौज निर्मित की। अभ्यासवगार्ें एवं स्वाध्याय मंडलों की शृंखला खड़ी की। स्वयं के जीवन का आदर्श खड़ा किया, स्वयं के जीवन में यह साकार करके दिखाया :-
नहीं चाहिए पद यश गरिमा, सभी चढ़े मां के चरणों में।
भारत माता की जय केवल, शब्द पड़े जग के करणों में॥
परिणामत: जनसंघ का अप्रतिम अधिवेशन, कच्छ करार के खिलाफ भारत की राजनीति का प्रथम विराट प्रदर्शन इतिहास में रेखांकित हो पाया एवं राजनैतिक दल होते हुए भी उन्होंने उसे सांस्कृतिक आंदोलन की तरह चलाया। भारतीय जनसंघ एक अलग प्रकार का दल था। दीनदयाल जी ने स्वयं कहा कि वे राजनीति में संस्कृति के राजदूत हैं। यही वह रहस्य था जिससे जनसंघ सभी दलों को पीछे छोड़ते हुये आगे बढ़ा।
'राष्ट्र राज्य' की राजनैतिक अवधारणा जो पश्चिम से आयी थी, दीनदयाल जी ने इसमें निगडि़त अमानवीयता को उजागर किया तथा 'भू-सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' की अलख जगाई। उन्होंने भारतीय समाजशास्त्र के राष्ट्रवाची तकनीकी शब्द-पदांे को खोजा। 'चिति' और 'विराट' संकल्पनाओं की युगानुकूल व्याख्या की और भौतिकतावादी क्षेत्रीय राष्ट्र-राज्यवाद के समक्ष चुनौती प्रस्तुत कर दी। परिणामत: 'भारत माता की जय' और 'वंदे मातरम्' भारतीय राष्ट्रवाद की मुख्यधारा के उद्घोष बन गए।
भारतीयता एवं राष्ट्रवाद के इसी चिन्तन ने दीनदयालजी को 'एकात्म मानववाद' तक पहुंचाया। भारतीय मनीषा मानव को न केवल व्यक्ति मानती है, न केवल समाज। व्यक्ति और समाज को परस्पर विरोधी एवं पृथक इकाई भी भारतीय विचार नहीं मानता, जैसा कि पाश्चात्य 'व्यक्तिवाद' एवं 'समाजवाद' की विचारधारायें मानती हैं। दीनदयाल जी ने इनका प्रखरता एवं तार्किकता के साथ खंडन किया तथा कहा, ''व्यष्टि व समष्टि पृथक व परस्पर विरोधी नहीं वरन् 'एकात्म' इकाई है। मानव इस एकात्मता की उपज है।''
दीनदयाल जी ने इन 'एकात्मता' की संज्ञाओं को विस्तार दिया। मानव केवल व्यक्ति व समाज ही नहीं, वह प्रकृति का भी हिस्सा है, मानव केवल भौतिक इकाई नहीं है, उसमें आध्यात्मिकता निगडि़त है। अत: उन्होंने कहा, ''व्यष्टि, समष्टि, सृष्टि एवं परमेष्टि की एकात्मता मानव में निगडि़त है।'' एकात्म मानव का एक सांगोपांग विचार दर्शन उनकी युग को एक अनुपम एवं अद्भुत देन है। भारतीय जनसंघ के सभी कार्यकर्ताओं को विमर्श में सहभागी बनाते हुए उन्होंने 1964 में ग्वालियर के अभ्यासवर्ग में इस विचार को अंतिम रूप से लेखबद्ध किया। 'सिद्धान्त एवं नीति' नामक प्रलेख तैयार हुआ। इस प्रलेख की प्रस्तावना में दीनदयाल जी लिखते हैं :—
''आज भारत के इतिहास में क्रांति लाने वाले दो पुरुषों की याद आती है। एक वह, कि जब जगद्गुरु शंकराचार्य सनातन बौद्धिक धर्म का संदेश लेकर देश में व्याप्त अनाचार को समाप्त करने चले थे; और दूसरा वह, कि जब 'अर्थशास्त्र' की धारणा का उत्तरदायित्व लेकर संघ राज्यों में बिखरी राष्ट्रीय शक्ति को संगठित कर साम्राज्य की स्थापना करने चाणक्य चले थे। आज इस प्रारूप को प्रस्तुत करते समय वैसा ही तीसरा महत्वपूर्ण प्रसंग आया है, जबकि विदेशी धारणाओं के प्रतिबिंब पर आधारित मानव संबंधी अधूरे व अपुष्ट विचारों के मुकाबले विशुद्ध भारतीय विचारों पर आधारित मानव कल्याण का संपूर्ण विचार 'एकात्म मानववाद' के रूप में उसी सुपुष्ट भारतीय दृष्टिकोण को नये सिरे से सूत्रबद्ध करने का काम हम प्रारम्भ कर रहे हैं।''
दीनदयाल उपाध्याय भारतीय विचार परंपरा में शंकर वेदान्त, कौटिल्य अर्थशास्त्र व स्वयं द्वारा निरूपित 'एकात्म मानववाद' की एक नई प्रस्थानत्रयी की स्थापना करते हैं।
दीनदयाल जी सैद्धांतिक व आदर्शवादी नेता थे, लेकिन वे नितांत व्यावहारिक भी थे तभी तो उन्होंने इतना बड़ा राजनैतिक दल खड़ा कर दिया। देव दुर्लभ कार्यकर्ताओं की एक अद्भुत शृंखला का निर्माण कर दिया। वे दलों की सीमाओं को जानते थे। अत: उनका ध्यान मतदाताओं पर अभिकेन्द्रित था। वे मानते थे, स्वस्थ लोकतंत्र की पूर्व शर्त है 'लोकमत परिष्कार'। उनका एक कालजयी वाक्य है 'सिद्धान्तहीन मतदान सिद्धान्तहीन राजनीति का जनक है।' तृतीय महानिर्वाचन के पूर्व उन्हांेने 'आपका मत' शीर्षक से नौ आलेख लिखे। ये आलेख ही 'लोकमत परिष्कार' को व्याख्यायित करने वाली पाठ्य सामग्री है। वे मानते हैं, 'लोकतंत्र का नियामक नेता संसद, दल या सरकार नहीं वरन् 'मतदाता' है। उनका आग्रह था— 'मतदाता को मतवान बनाओ।'
अपने काल की सब समस्याओं को उन्होंने दूरदृष्टि के साथ देखा। तात्कालिकता की मजबूरियां उन्हें कभी डिगा न सकीं। आने वाली पीढि़यों तक यदि उनका विवेचन पहुंच सकेगा, तो निश्चय ही वे पीढि़यां दीनदयालजी की सार्थकता एवं प्रासंगिकता को समझेंगी।
सन् 1967-68 में पं. दीनदयाल उपाध्याय को भारतीय जनसंघ का अध्यक्ष बना दिया गया। परदे के पीछे से काम करने वाला व्यक्ति अब व्यासपीठ पर आ गया। बस नजर लग गई, वे केवल 44 दिन जनसंघ के अध्यक्ष रहे, साजिशों के क्रूर हाथों ने उन्हें हमसे छीन लिया। अध्यक्ष के नाते उन्होंने ऐतिहासिक संबोधन के समापन में कहा था :—
''हम अतीत के गौरव से अनुप्राणित हैं, परन्तु उसको भारत के राष्ट्रजीवन का सवार्ेच्च बिंदु नहीं मानते। हम वर्तमान के प्रति यथार्थवादी हैं, किन्तु उससे बंधे नहीं। हमारी आंखों में भविष्य के स्वर्णिम सपने हैं, किन्तु हम निद्रालु नहीं, बल्कि उन सपनों को साकार करने वाले कर्मयोगी हैं। अनादि अतीत, अस्थित वर्तमान तथा चिरंतन भविष्य की कालजयी सनातन संस्कृति के हम पुजारी हैं।़.़.़ विजय का विश्वास है, तपस्या का निश्चय लेकर चलें।''
डॉ़ महेश चन्द्र शर्मा
(लेखक इस विशेषांक के अतिथि संपादक हैं। वे राजस्थान भाजपा के पूर्व अध्यक्ष एवं सांसद (राज्यसभा) रहे हैं )
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