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लोकराज्य सही मायनों में तब सफलतापूर्वक प्रभावी होता जब देश के मतदाता जागरूक होकर मतदान करते हैं। राजनीति को सही राह पर चलाए रखना भी तभी सुनिश्चित होता है
दीनदयाल उपाध्याय
राज्य पुनर्गठन के प्रश्न पर जब देश में विभिन्न मांगों को लेकर लोगों की भावनाएं बड़ी उग्र होती जा रही थीं, प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू से एक शिष्टमंडल मिला। शिष्टमंडल के एक सदस्य ने पंडित जी से निवेदन किया कि दिल्ली में विधानसभा को समाप्त करने के उनके निर्णय से जनता बहुत प्रसन्न है, अत: उसमें किसी भी प्रकार का परिवर्तन न करें। नेहरू जी ने मुस्कराते हुए उत्तर दिया—''जो लोग विधानसभा को बनाए रखने की मांग लेकर आते हैं, वे भी जनता के नाम पर ही बातें करते हैं। जनता की इच्छा कौन-सी समझी जाए?'' पंडितजी ने जो प्रश्न उपस्थित किया वह लोकराज्य के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण है, कारण लोकतंत्र में राज्य जनता की इच्छाओं के अनुसार चलता है। किंतु किन्हीं भी दो व्यक्तियों की इच्छाएं एक-सी नहीं हो सकतीं। फिर जहां करोड़ों मानवों का प्रश्न हो वहां राष्ट्र के सभी जन एक ही इच्छा करंेगे, यह सामान्यतया संभव नहीं। हां, युद्ध आदि के समय अवश्य सबकी इच्छाएं-शत्रु पर विजय प्राप्त करने की, समान हो जाती हैं, किंतु वहां भी नीति के प्रश्न को लेकर अनेक मतभेद हो सकते हैं।
समान लोकेच्छा वास्तव में एक आवश्यक कल्पना मात्र है। सच तो यह है कि जनतंत्र मंे किसी की भी इच्छा नहीं चलती, प्रत्येक को एक सामान्य इच्छा के अनुसार अपनी इच्छाओं को ढालना होता है। यदि ऐसा न हो तथा प्रत्येक व्यक्ति अपनी इच्छाओं, मान्यताओं और विश्वासों को ही सवार्ेपरि मानकर अड़ा रहे तो लोकतंत्र नहीं चल सकेगा। अराजकता, विघटन और अंत मंे एकतंत्रीय निरंकुश शासन इस स्थिति के अवश्यंभावी परिणाम होंगे।
अपनी इच्छाओं के दमन का अर्थ है—दूसरे की बात को मानने की तैयारी। लोकतंत्र की एक व्याख्या यह की गई है कि वह वाद-विवाद के द्वारा चलनेवाला राज्य है। 'वादे-वादे जायते तत्त्वबोध:' यह हमारे यहां की पुरानी उक्ति है। किंतु तत्त्वबोध तो तभी हो सकेगा जब हम दूसरे की बात को ध्यानपूर्वक सुनेंगे और उसमें जो सत्यांश होगा, उसको ग्रहण करने की इच्छा रखेंगे। यदि दूसरे का दृष्टिकोण समझने का प्रयत्न न करते हुए हम अपने ही दृष्टिकोण का आग्रह करते जाएं तो 'वादे-वादे जायते कण्ठशोष:' की उक्ति ही चरितार्थ होगी। वाल्टेयर ने जब यह कहा कि ''मैं तुम्हारी बात सत्य नहीं मानता किंतु अपनी बात को कहने के तुम्हारे अधिकार के लिए मैं संपूर्ण शक्ति से लडूंगा'' तो उसने मनुष्य के केवल कंठशोष के अधिकार को स्वीकार किया। भारतीय संस्कृति इससे आगे बढ़कर वाद-विवाद को 'तत्त्वबोध' के साधन के रूप में देखती है। हमारी मान्यता है कि सत्य एकांगी नहीं होता, विविध कोणों से एक ही सत्य को देखा, परखा और अनुभव किया जा सकता है। इसलिए इन विविधताओं के सामंजस्य के द्वारा जो संपूर्ण का आकलन करने की शक्ति रखता है, वही तत्त्वदर्शी है। वही ज्ञाता है।
दृष्टिकोण मंे इस सामंजस्यपूर्ण परिवर्तन के लिए जीवन में संयम की नितांत आवश्यकता है। जो असंयमी है, वह अपनी इच्छाओं पर कभी काबू नहीं पा सकता। उनकी पूर्ति के लिए वह बाकी लोगों की कुछ भी चिंता न करता हुआ सब प्रकार से प्रयत्न करेगा। यदि सफल हो गया तो वह अपने क्षेत्र में एकाधिपत्य प्रतिष्ठापित कर लोकतंत्र की हत्या कर देगा। यदि असफल हुआ तो उसके लिए लोकतंत्र रसहीन एवं दु:खदायी हो जाएगा। यदि बहुजन समाज लोकराज्य में अपने सुख की अनुभूति न कर सके तो यही कहना होगा कि वहां लोकतंत्र का बेजान ढांचा मात्र खड़ा है, आत्मा नहीं।
दूसरे की बात सुनना या उसके मत का आदर करना एक बात है और दूसरे के सामने झुकना बिल्कुल भिन्न बात। दूसरे की इच्छा के सामने झुकने की तैयारी में एक खतरा सदैव बना रहता है। जो लोग-सज्जन एवं धर्म-भीरू होते हैं वे तो सदैव अपनी बात का आग्रह छोड़कर दूसरों की बात मान लेते हैं, किंतु जो दुर्जन एवं दुराग्रही हैं वे अपनी बात मनवाकर समाज के अगुआ बन जाते हैं और धीरे-धीरे लोकतंत्र विकृत रूप में उपस्थित होकर समाज के लिए कष्टदायक हो जाता है। संभवत: इसी संकट का सामना करने के लिए हमारे यहां के शास्त्रकारों ने लोकमत-परिष्कार की व्यवस्था की। जिस समाज में यह परिष्कार का काम चलता रहेगा, वहां सहिष्णु एवं संयमशील व्यक्तियों का मंडल निरंतर बढ़ता चला जाएगा, यहां तक कि ऐसे वायुमंडल में इन गुणों से वंचित व्यक्ति कदाचित् ही उपलब्ध हो सकें। यदि एकाध अपवाद रहा भी तो वह अपना वर्चस्व नहीं जमा सकेगा।
किंतु यह लोकमत-परिष्कार का काम कौन करे? रूस एवं अन्य साम्यवादी देशों में यह काम राज्य के द्वारा किया जाता है। मार्क्स के सिद्धांत के अनुसार, मजदूरों की क्रांति के पश्चात् प्रति-क्रांति की संभावना है, उसे रोकने के लिए कठोर उपायों के अवलंबन की आवश्यकता है। साथ ही अभी तक जीवन के जो मूल्य स्थापित हुए हैं, वे पूंजीवादी अर्थव्यवस्था पर आधारित हैं। उन्हें हटाकर नए प्रगतिवादी मूल्यों की प्रतिष्ठापना करनी होगी। यह कार्य लेनिन ने राज्य को, जो कि उसके अनुसार सर्वहारा के प्रतिनिधियों एवं क्रांतिदर्शी महानुभावों के द्वारा चलाया जाता है, सौंपा। किंतु उसका परिणाम यह हुआ कि वहां लोकमत परिष्कार के नाम पर व्यक्ति की सभी स्वतंत्रताएं समाप्त हो गईं तथा कुछ व्यक्तियांे की तानाशाही ही संपूर्ण जनता की इच्छा के नाम पर चलने लगी। जो दवा की गई उससे मर्ज तो ठीक नहीं हुआ, हां मरीज अवश्य चल बसे। अर्थात् समस्याएं दोनों ओर हैं—एक ओर अपरिष्कृत लोकमत, जिसकी दशा कभी सोच-विचार कर निश्चित नहीं होती। शेक्सपियर ने अपने नाटक जुलियस सीजर में उसका बड़ी स्पष्टता के साथ चित्रण किया है।
जो जनता ब्रूटस के साथ होकर जूलियस सीजर के वध पर हर्ष मना रही थी, वही थोड़ी देर में एंटोनियो के भाषण के उपरांत ब्रूटस का वध करने को उद्यत हो गई। मॉबोक्रेसी और ऑटोक्रेसी के दोनों पाटों के बीच से डेमोक्रेसी को जीवित रखना एक कठिन समस्या है।
इसलिए लोकमत-परिष्कार का कार्य वही कर सकता है, जो लोकेषणाओं से ऊपर उठ चुका हो। भारत ने इसका समाधान खोज निकाला। भारत ने इस समस्या का समाधान राज्य के हाथ से लोकमत-निर्माण के साधन छीनकर किया है। लोकमत-परिष्कार का कार्य है वीतरागी द्वंद्वातीत संन्यासियों का। लोकमत के अनुसार चलने का काम है राज्य का। संन्यासी सदैव धर्म के तत्त्वों के अनुसार, जनता के ऐहिक एवं आध्यात्मिक समुत्कर्ष की कामना लेकर अपने वचनांे एवं निरीह आचरण से जन-जीवन के ऊपर संस्कार डालते रहते हंै। उन्हें धर्म की मर्यादाआंे का ज्ञान कराते रहते हैं। कोई मोह और लोभ न होने के कारण वे सत्य का उच्चारण सहज कर सकते हैं। लोक-शिक्षा और लोक-संस्कार के वही केंद्र हैं। शिक्षा और संस्कार से ही समाज के जीवन-मूल्य बनते और सुदृढ़ होते हैं। इन मूल्यों को बांधे रखने के बाद लोकेच्छा की नदी कभी अपने तटों का अतिक्रमण कर संकट का कारण नहीं बनेगी।
मर्यादाओं के अंतर्गत होने वाली क्रिया का नाम ही संयम है। भूखा मरना संयम नहीं, अपितु शरीर की आवश्यकता के अनुसार गुण और मात्रा में भोजन करना संयम है। बिल्कुल न बोलना, यहां तक कि अत्याचारी के विरुद्ध आवाज भी न लगाना अथवा किसी को सत्परामर्श भी न देना संयम नहीं। वाचाल और गूंगे के बीच संयमी पुरुष आता है, आवश्यकता पड़ने पर बोलता है और अवश्य बोलता है। अपने व्यवहार का यह नियमन व्यक्ति द्वारा तब हो सकता है, जब व्यक्ति को अपने आदर्श की लगन हो तथा अपनी जिम्मेदारी का बराबर बोध हो। असंयम और गैर-जिम्मेदारी साथ-साथ चलते हैं।
लोकराज्य तभी सफल हो सकता है जब एक-एक नागरिक अपनी जिम्मेदारी को समझेगा और उसका निर्वाह करने के लिए क्रियाशील रहेगा। समाज जितना यह समझता जाएगा कि राज्य को चलाने की जिम्मेदारी उसकी है, उतना ही वह संयमशील बनता जाएगा। जिस दल को लगता है कि आज नहीं, कल हमारे कंधों पर राज्य-संचालन का भार आ सकता है, वह कभी अपने वादों में और व्यवहार में गैर-जिम्मेदारी एवं असंयत नहीं होगा। फिर जनता के ऊपर तो राज्य चलाने की जिम्मेदार सदैव ही रहती है। समय-समय पर वह अपने प्रतिनिधि के रूप में भिन्न दलों को चुन लेती है। वह यदि जिम्मेदार रही तो दल भी संयमशून्य नहीं होंगे।
अत: सबसे अधिक महत्त्व है जनता को सुसंस्कृत करने का, लोकमत परिष्कार का। जब तक इस काम को करनेवाले राज्य के मोह से दूर, भय से मुक्त, महापुरुष एवं संघटक, रहेंगे, लोकमत अपनी सही दिशा में ही चलता जाएगा। —राष्ट्र जीवन की दिशा (पुस्तक), 1971
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