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'दु:स्वप्ने आतंके, रक्षा करिले अंके, स्नेहमयी तुमि माता' भारत को स्नेहमयी मां कहने वाली ये पंक्तियां गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर की रचना 'जन -गण-मन' की हैं जिसके प्रथम छंद को भारत के राष्ट्रगान के रूप में स्वीकार किया गया है। अर्थात् 'जन-गण-मन' की पृष्ठभूमि में भी राष्ट्र का मातृरूप समाहित है। जिस मातृरूप को सामने रखकर स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ी गई, और वंदेमातरम् भारत का राष्ट्र मंत्र बन गया। पर भारत में तथाकथित 'सेकुलर', लिबरल और वामपंथी बुद्धिजीवियों का एक ऐसा वर्ग है जिन्हंे 'भारत की बरबादी' के नारे तो विचलित नहीं करते लेकिन 'भारत माता की जय' या 'वंदेमातरम्' का उद्घोष बेचैन कर देता है। उन्हीं की ताल पर असदुद्दीन ओवैसी जैसे लोग मजहबी उन्माद का आलाप देते हैं। इन लोगों का तर्क है कि मुसलमान देश के नागरिक मात्र बनकर रहें लेकिन जन्मभूमि का बेटा होने का गौरव न करें।
बुद्धिजीवी कहलाने वाले इसे 'मर्जी' का मामला' बताते हैं तो कट्टरपंथी इसे मजहब का मामला कहते हैं और इससे सवाल उठता है कि क्या मां को मां कहने से ईश्वर नाराज हो सकता है? क्या मां को नकारकर अपनी पहचान बचाई जा सकती है? जिन प्रश्नों का उत्तर कोई बच्चा भी दे सकता है, कई बार वे प्रश्न राजनीति के खिलाडि़यों को बड़े कठिन लगते हैं। नागरिकता तो कानूनी मान्यता है लेकिन अपनी धरती का बेटा होना भावनात्मक संबंध है। इस भावनात्मक संबंध के बिना राष्ट्र खड़े नहीं होते। भावों के जागरण के लिए मां-बेटे से ज्यादा शक्तिशाली कौन-सा प्रतीक हो सकता है? नकार की इस शृंखला में नया पैंतरा यह है कि बंकिमचन्द्र चटर्जी के उपन्यास 'आनंदमठ' (प्रकाशन 1882) से पहले भारत माता की परिकल्पना थी ही नहीं। तर्क के ऐसे धनी लोगों को हजारों वर्ष पहले रचित वाल्मीकि रामायण पढ़नी चाहिए जिसमें श्रीराम जन्मभूमि की तुलना जन्म देने वाली माता से करते हुए कहते हैं, 'जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी', प्राचीन काल से ही भारत माता को ज्ञानदायिनी, जीवनदायिनी और रक्षा करने वाली के रूप में देखा गया। वेदों ने ही इस देश को भारत कहा है। अब 'सेकुलर' टोली भारत नाम को भी सांप्रदायिक घोषित कर सकती है।
जब बंकिमचन्द्र 'वंदेमातरम् ' गाते हैं और 'जन -गण-मन' की (अगली) पंक्तियों में जब रवीन्द्रनाथ कहते हैं कि—
'तव करुणारुण-रागे, निद्रित भारत जागे, तव चरणे नत माथा' तो क्या वे उसी भाव को नहीं जगाते जो कहता है कि 'मां के कदमों के तले जन्नत है।' फिर भारत माता संबोधन का विरोध क्यों?
मुस्लिम बहुल बांग्लादेश के राष्ट्रगीत में बार-बार 'मां' संबोधन आता है। देखिये इन पंक्तियों को- 'मां, तोर मुखेर बानी, आमार काने लागे सुधामृतो।' अर्थ है कि मां तुम्हारी वाणी मेरे कानों को अमृत समान लगती है। आगे की पंक्तियां कहती हैं- 'मां तोर बदन खानी मलिन होले, आमी नयन ओ मां आमी नयन जोले भाषी। सोनार बंगला, आमी तोमाय भालो बाशी।' अर्थ हुआ- 'मां यदि तुम्हारा मुख दु:ख से मलिन होता है, तो हमारी आंखों में अश्रु भर जाते हैं। ओ स्वर्णमय बंगाल, मैं तुमसे प्यार करता हूं।' 87 प्रतिशत मुस्लिम आबादी वाले इंडोनेशिया के राष्ट्र गीत की पंक्तियां कहती हैं- 'मेरे देश इंडोनेशिया, वह धरती जिसके लिए मैं अपना खून बहाता हूं, मैं यहां हूं अपनी मातृभूमि का सेवक बनने के लिए।' मुस्लिम बहुल तुर्क मेनिस्तान के मुस्लिम अपने राष्ट्रगीत में गाते हैं- 'पर्वत, नदियां और मैदानों की शोभा, प्रेम और भाग्य, प्रकटन है मेरा। ओ मेरे पुरखों और मेरी संतानों की मातृभूमि।' 98 प्रतिशत मुस्लिम आबादी वाले अजरबैजान के आड़े इस्लाम नहीं आता जब वे गाते हैं- 'गौरवशाली मातृभूमि! गौरवशाली मातृभूमि! अजरबैजान! अजरबैजान!' मिस्रवासी मिस्र को सभी देशों की माता निरूपित करते हैं। मिस्र का राष्ट्रगान कहता है- 'मिस्र! ओ मिस्र, हे सभी देशों की माता, तुम मेरी आशा और मेरी महत्वाकांक्षा हो। तुम्हारी नील (नदी) में असीम गौरव है।' मिस्र में मुस्लिम आबादी कुल जनसंख्या का 90 प्रतिशत है। तजाकिस्तानवासी अपने देश के लिए गाते हैं- 'तुम हम सबकी माता हो, तुम्हारा भविष्य हमारा भविष्य है। हमारी देह और आत्मा का अर्थ तुमसे है।' तजाकिस्तान में मुस्लिम कुल आबादी का 99 फीसदी हैं। एक अन्य मुस्लिम देश उज्बेकिस्तान (मुस्लिम जनसंख्या 96.5 प्रतिशत) का राष्ट्रगान कहता है- 'स्वातंत्र्य की प्रकाश स्तम्भ, शान्ति की संरक्षक, सत्यप्रेमी मातृभूमि! सदा फलो फूलो।' अब यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि जब बांग्लादेश, इंडोनेशिया, कजाकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, अजरबैजान, मिस्र, तजाकिस्तान और उज्बेकिस्तान जैसे मुस्लिम देशों को अपनी भूमि को मातृभूमि कहने में गौरव का भान होता है तो फिर भारत में 'भारत माता की जय' बोलने में इस्लाम पर खतरा कैसे आ सकता है? इस धोखेबाजी के बारे में सभी देशवासी और विशेष रूप से मुसलमानों को बताना जरूरी है। वास्तव में ऐसे लोगों का उद्देश्य भारत के मुसलमानों को भारत की जड़ों से जुड़ने से रोकना और उनका अरबीकरण करना है। इसी सोच के चलते कट्टरपंथियों द्वारा मुसलमानों से शेष देशवासियों से अलग दिखने, अलग वेशभूषा धारण करने का आग्रह किया जाता है। इसी राग में एक नया कुतर्क जोड़ा गया है कि 'मैं भारत माता की जय नहीं कहूंगा क्योंकि ऐसा संविधान में नहीं लिखा है।' इसी कुतर्क और मुसलमानों के अरबीकरण के छिपे एजेंडे पर चोट करते हुए गीतकार और लेखक जावेद अख्तर ने राज्यसभा में कहा कि ''शेरवानी और टोपी क्यों पहनते हो? ऐसा करने के लिए भी तो संविधान में नहीं लिखा है।''
आजकल जब कभी ऐसे मुद्दों पर चर्चा होती है तो सेक्युलर वीरों को अटल जी की याद सताने लगती है। जब जेएनयू में लगे राष्ट्रविरोधी नारों के संबंध में गृह मंत्रालय ने हस्तक्षेप किया तो ऐसे लोगों द्वारा कहा जाने लगा कि सरकार गलत लड़ाई का चुनाव कर रही है और अटल जी होते तो कहते कि 'छोकरे हैं, जाने दो।' ऐसे लोगों को 29 मार्च, 1973 को (बांग्लादेश निर्माण के सवा साल बाद) लोकसभा में दिए गए उनके भाषण को पढ़ना चाहिए। अटल जी ने कहा था ''हम आशा करते थे कि पाकिस्तान का विभाजन हो गया, मजहब के आधार पर पाकिस्तान एक नहीं रह सका। स्वाधीन बांग्लादेश का आविर्भाव हुआ। अब भारत का भी वातावरण बदलेगा और मजहब के आधार पर संघर्ष या विशेषाधिकारों की मांग नहीं होगी। लेकिन ऐसा लगता है कि पाकिस्तान के विभाजन और बांग्लादेश की मुक्ति से हमने कोई पाठ नहीं सीखा। आज मुसलमानों में एक वर्ग ऐसा क्यों निकल रहा है जो मुंबई में खड़े हो कर कहता है कि हम 'वंदेमातरम्' कहने के लिए तैयार नहीं हैं। 'वंदेमातरम्' इस्लाम विरोधी नहीं है। क्या इस्लाम को मानने वाले जब नमाज पढ़ते हैं तो इस देश की धरती पर, इस देश की पाक जमीन पर सिर नहीं टेकते हैं? ऐसे मुद्दे पर किसी को भी असहमत होने की इजाजत नहीं दी जा सकती। कल यह कहेंगे कि 'तिरंगा झंडा है, मगर हम तिरंगे के आगे झुकेंगे नहीं, क्योंकि हम अल्लाह के आगे झुकते हैं। हिंदुस्थान में रहने वाले हर आदमी को तिरंगे के सामने झुकना पड़ेगा।'' यहां पूर्व केंद्रीय मंत्री आरिफ मुहम्मद खान को उद्धृत करना समीचीन होगा कि ''भारत सरकार ने एक परिपत्र के जरिये जब से राज्य सरकारों से राष्ट्रीय गीत गाने के लिए कहा है, तब से एक अनावश्यक विवाद शुरू हो गया है। सबसे पहले परिपत्र का विरोध मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने किया। उनके प्रवक्ता ने मुस्लिम अभिभावकों को हिदायत जारी की कि वे अपने बच्चों को 7 सितंबर को स्कूल न भेजें। 'फरमान' जारी करने से पहले पर्सनल लॉ बोर्ड के पास न तो गीत का प्रामाणिक अनुवाद था, और न ही उस भाषा की जानकारी जिसमें यह गीत लिखा है। आज तक उन्होंने यह भी स्पष्ट नहीं किया है कि क्या वे सिर्फ स्कूलों में राष्ट्रीय गीत गाए जाने के विरोधी हैं या फिर संसद जहां हर सत्र का समापन वंदेमातरम् से होता है और राजनैतिक दल, जिनके हर अधिवेशन में वंदेमातरम् गाया जाता है, उसके मुसलमान सदस्यों पर भी वह यही हुक्म जारी करेंगे? …. कोई व्यक्ति अगर गाना नहीं चाहता, तो हम कानून बना लें, तो भी उसे मजबूर नहीं कर पाएंगे, लेकिन क्या हम यह अधिकार किसी व्यक्ति या पर्सनल लॉ बोर्ड को दे सकते हैं कि वह राष्ट्रीय गीत का विरोध करे, गाने से परहेज करे? दूसरों को विरोध के लिए भड़काना और उकसाना केवल राष्ट्रीय प्रतीक का अपमान और संविधान के प्रावधानों का उल्लंघन है।''
सप्ताह का साक्षात्कार – 'देश- विरोधी बातें सुनकर कोई चुप कैसे रह सकता है?'
प्रसिद्ध अभिनेता अनुपम खेर इन दिनों देश से जुड़े मुद्दों पर अपनी बेबाक राय के लिए चर्चा में हैं। पिछले वर्ष कथित असहिष्णुता के शोर ने जब जोर पकड़ा था तब उसके खिलाफ कमान संभालते हुए उन्होंने असहिष्णुता की माला जपने वाले सेकुलर बुद्धिजीवियों और उनके समर्थक वोट बैंक के लालची नेताओं को खरी-खरी सुनाई थी। इसके बाद उन्होंने एक वीडियो के जरिए विस्थापित कश्मीरी पंडितों का दर्द दुनिया के सामने रखा। पिछले दिनों कोलकाता में आनंद बाजार पत्रिका के एक कार्यक्रम में उन्होंने जेएनयू में देश विरोधी नारे लगाने वालों के पक्ष में बोलने वालों की बोलती अपने तर्कोंे से बंद कर दी थी। कुछ लोग उन पर आरोप लगाते हैं कि वे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की तारीफ इसलिए करते हैं कि उनकी सांसद पत्नी किरण ख्ेार को केन्द्रीय मंत्रिमंडल में जगह मिल जाए, लेकिन वे इन आरोपों को सिरे से नकारते हैं। उनका कहना है कि मेरी देशहित की बातों में यदि लोगों को 'मोदी-भक्ति' दिख रही हो तो उससे उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ेगा, उनका अभियान चलता रहेगा। यहां प्रस्तुत हैं पाञ्चजन्य के अरुण कुमार सिंह द्वारा सामयिक मुद्दों पर उनसे की गई बातचीत के मुख्य अंश-
*फिल्मी सितारे यूं तो चर्चा में रहते ही हैं, लेकिन आप तो आजकल कुछ ज्यादा ही चर्चा में हैं। क्या कहना चाहेंगे?
इसमें गलत क्या है? देश के लिए कुछ करना या बोलना चर्चा में आ जाता है तो आए, उसमें क्या गलत है? कुछ लोग देश के बारे में कुछ भी उलटा-सीधा बोलें और हम चुप रहें, यह नहीं हो सकता। जो भी देश से प्यार करता है वह देश-विरोधी बातों को सुनकर चुप कैसे रह सकता है?
हाल ही में आप जेएनयू गए। वहां अभी जो माहौल है, उसको देखते हुए कुछ लोगों का कहना है कि आपको वहां जाने की क्या जरूरत थी?
जेएनयू में मैं अपनी फिल्म के प्रमोशन के लिए गया था, जो काफी समय से बन रही थी। वहां मैंने हजारों छात्रों को संबोधित किया और उन लोगों ने बड़े ध्यान से मेरी बात भी सुनी। इसका मतलब है कि मैंने वहां जो कहा, उसे छात्रों ने स्वीकारा। फिर कोई कुछ भी कहे, उससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। जेएनयू का मामला बहुत गंभीर है। वहां लोग देश तोड़ने की बात कर रहे हैं जिसका कुछ लोग समर्थन कर रहे हैं। यह नहीं चलेगा।
कोलकाता में 'टेलीग्राफ' के कार्यक्रम में आपने किसी को भी नहीं बख्शा। क्या आप भाषण की तैयारी पहले से करके गए थे?
नहीं, ऐसे कार्यक्रमों के लिए पहले से भाषण की तैयारी हो भी नहीं सकती और मेरी यह आदत भी नहीं है। मैं कभी लिखित भाषण नहीं देता। वहां न्यायाधीश अशोक गांगुली, कांगेे्रेस के प्रवक्ता रणदीप सिंह सुरजेवाला वगैरह ने जो बातें कही थीं, उनसे मैं सहमत नहीं था। इसलिए मैंने उनकी बातों को तर्क के साथ काटने की कोशिश की। वहां मौजूद लोगों ने भी मेरा हौसला बढ़ाया। मेरे भाषण की जिस तरह चर्चा चली उससे लगता है कि देश के ज्यादातर लोग मेरे विचारों से सहमत हैं। न्यायाधीश गांगुली और सुरजेवाला जी के विचारों को लोेगों ने नकार दिया। कोई भी देशभक्त ऐसे किसी भी व्यक्ति को बर्दाश्त नहीं करेगा, जो देश को तोड़ने वालों के पक्ष में बोलेगा या उनके साथ खड़ा होगा। 'टेलीग्राफ' के कार्यक्रम से भी यही साबित होता है।
* जब भी केन्द्र सरकार और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर हमला होता है, आप उनके पक्ष में खड़े दिखते हैं। लोग कहते हैं कि आप 'मोदी-भक्त' हैं। इस पर आप क्या कहना चाहेंगे?
मैं इस देश का नागरिक हूं। एक जागरूक नागरिक होने के नाते मुझे देशहित में जो अच्छा लगता है वही करता हूं, उस पर बोलता हूं। मुझे अपनी बात रखने से कोई रोक नहीं सकता। यदि मेरी देशहित की बातों में लोगों को 'मोदी-भक्ति' दिख रही हो तो यह भक्ति निरन्तर चलती रहेगी। चाहे कोई कुछ भी बोले।
पिछले दिनों आपने कश्मीरी पंडितों पर एक वीडियो बनाया था। उस वीडियो ने वह कमाल कर दिखाया, जो बड़ी लागत से बनी और बड़े-बड़े सितारों से सजी फिल्में भी नहीं कर पाती? उस बारे में कैसा महसूस करते?
उस वीडियो के जरिए मैंने कश्मीरी पंडितों की आवाज को दुनिया भर में पहुंचाने की कोशिश की है। जितना अंदाजा था उससे भी कई गुना ज्यादा वह वीडियो वायरल हुआ। इससे पता चलता है कि देश का आम नागरिक कश्मीरी पंडितों के साथ हुए अन्याय के विरुद्ध है। दरअसल, लोगों को पता ही नहीं है कि कश्मीरी पंडित किन हालात में रह रहे हैं। ढाई दशक से भी ज्यादा
समय से वे विस्थापित जीवन जी रहे हैं। जिन तत्वों और लोगों के कारण कश्मीरी पंडित विस्थापित हुए, अब उनके चेहरों से नकाब उतरनी चाहिए।
आप कभी नेताओं पर कटाक्ष करते हैं, तो कभी फिल्म जगत के चलन से अलग खड़े दिखते हैं। वजह क्या है?
जो देशहित का काम हो, उसे करना और देशहित में बोलना यदि किसी को किसी पर कटाक्ष लगता है या फिर चलन से बाहर की बात लगती हो तो मैं इस पर कुछ भी नहीं बोल सकता। कोई बात कटाक्ष है या चलन से हटकर है, इसको तय करने का अधिकार जनता को है।
आप महेश भट्ट की फिल्म 'सारांश' के नायक थे। आज इस फिल्म के निर्माता और नायक सोच के दो अलग सिरों पर दिखते हैं। क्या कारण है?
देखिए, मुझे फिल्मों में काम देने वाले महेश भट्ट साहब ही हैं। मैं उनका बड़ा सम्मान करता हूं। वे मेरे गुरु हैं। सामान्य शिष्टाचार है कि किसी शिष्य को अपने गुरु के विरुद्ध नहीं बोलना चाहिए। मैं एक अनुशासित शिष्य हूं, इसलिए उनके विरुद्ध कुछ नहीं बोलूंगा। लेकिन यह भी सच है कि उनकी सोच और मेरी सोच में बहुत फर्क है। यह हर कोई जानता और महसूस करता है। इसके बावजूद उनके विरुद्ध मेरा कुछ बोलना शोभा नहीं देगा।
* बॉलीवुड में आप जैसे कई कलाकार और निर्माता हैं, जो देशहित की बातों पर तुरन्त सक्रिय हो जाते हैं। फिर भी लग रहा है आप लोगों की बातों को सेकुलरों की मान्यता नहीं मिल रही है। इसकी वजह क्या है?
सेकुलर और गैर-सेकुलर की बात छेड़ कर कुछ लोग उन लोगों को ज्यादा महत्व दे रहे हैं, जिनकी बातों पर देश के अधिकांश लोग गौर ही नहीं करते। मुझे इस बात की फिक्र नहीं है कि मेरी बातों को कौन किस रूप में लेता है। मंशा ठीक होनी चाहिए। इसके बाद तो सब कुछ अपने आप ही ठीक हो जाता है। मैं उम्मीद करता हूं कि मेरी बातों को इसी पैमाने पर कसा जाएगा।
* क्या बॉलीवुड में कोई ऐसी पालेबंदी है जिसे दर्शक या इस देश की जनता नहीं जानती?
(बॉलीवुड में) ऐसी किसी पालेबंदी की जानकारी मुझे नहीं है।
* पाकिस्तान से आपकी क्या नाराजगी है? पाकिस्तानी उच्चायुक्त अब्दुल बासित कराची साहित्य महोत्सव के लिए आपको वीसा तो दे रहे थे, फिर भी आप वहां नहीं गए।
इससे पहले क्या हुआ था, वह सबको पता है। मेरे साथ जो लोग जा रहे थे, उन्हें वीसा दे दिया गया और सिर्फ मेरा वीसा रोका गया। इसके पीछे की वजहों को देखते हुए मैंने वहां जाना ठीक नहीं समझा।
-प्रशान्त बाजपेई
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