|
प्रभावी स्वास्थ्य रक्षा और सस्ती, सुलभ चिकित्सा की आवश्यकता पर अ.भा. प्रतिनिधि सभा का प्रस्ताव सामयिक
भारत में स्वास्थ्य को फलते-फूलते क्षेत्रों में से एक के तौर पर देखा जाता है। खासकर कमाई अथवा रोजगार के लिहाज से। स्वास्थ्य क्षेत्र में अस्पताल, चिकित्सा उपकरण, क्लिनिकल ट्रायल्स, आउटसोर्सिंग, टेलीमेडिसिन, मेडिकल टूरिज्म, स्वास्थ्य बीमा और चिकित्सा यंत्र सभी समाहित हैं। भारत अपनी जीडीपी के 4.2 प्रतिशत निजी व्यय के लिहाज से दुनिया के 20 सर्वोच्च देशों में है। विश्व बैंक के आकलन के अनुसार, चिकित्सा क्षेत्र 2017 में बढ़कर 158.2 अरब डालर का होने वाला है। जैसे ही अपनी नजर आर्थिक आयामों से हटाकर सामाजिक आयामों पर डालते हैं तो परिस्थिति वाकई गंभीर दिखती है। अगर हम इसमें गुणवत्ता के मापदंड मिला कर दें तो अंतर बहुत ज्यादा दिखता है।
31 मार्च 2015 को हमारे यहां 15,3655 स्वास्थ्य उप केंद्र, 25,308 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और 5,396 सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र काम करे रहे थे, जबकि 35,500 से ज्यादा अस्पताल हैं। ये संख्या बड़ी लग सकती है लेकिन इस आंकड़े में शहरी-ग्रामीण फर्क छुपा हुआ है। कुल निजी अस्पतालों में से 33 प्रतिशत महानगरों में हैं। जैसा कि कर्नाटक होम्योपैथी बोर्ड के अध्यक्ष डॉ. बी. टी. रुद्रेश बताते हैं कि बड़े शहरों चिकित्सा सुविधाएं तो हैं लेकिन सुदूर और ग्रामीण इलाकों में इनकी कमी है। अपर्याप्त चिकित्सा सुविधाओं और चिकित्सा क्षेत्र में कर्मियों की कमी से बड़ी संख्या में लोग चिकित्सा सुविधा से वंचित हैं।
पहले सरकार ने सन् 2000 तक सभी को स्वास्थ्य लाभ देने की बात कही थी, जिसे अब 2020 तक टाल दिया गया है। आज की चिकित्सा सुविधा को देखें तो अस्पताल कोई सेवाभावी उद्यम न होकर पैसा कमाने के उद्योग बन चुके हैं। आज ध्यान तकनीकी सेटअप की तरफ है। मगर आप आंकड़ा देखें तो इतना बड़ा निवेश सिर्फ 15 प्रतिशत मरीजों को ही सेवा दे पा रहा है। इसलिए, असली जरूरत बाकी की 85 प्रतिशत आबादी को सस्ती चिकित्सा सुविधा देने की है। निजी अस्पतालों के फैलाव से भले ही इलाज की सुविधाएं दूर-दराज तक पहुंची हो, लेकिन स्वास्थ्य क्षेत्र के बढ़ते व्यापारीकरण से गरीबों और निम्न मध्यम वर्ग का इलाज पर खर्च बेतहाशा बढ़ गया है।
इस पृष्ठभूमि में संघ की प्रतिनिधि सभा ने 'प्रभावी स्वास्थ्य रक्षा एवं सस्ती व सुलभ चिकित्सा की आवश्यकता' पर एक प्रस्ताव पारित किया। प्रस्ताव में आयुर्वेदिक, यूनानी और अन्य प्रकार की दवाओं के परीक्षण के तरीकों के विकास और मानकीकरण की बात कही गई है।
संघ ने सस्ती स्वास्थ्य सेवा की कमी से पैदा हो रहे कर्ज के जाल की सही तौर पर पहचान की है। जैसा कि प्रसिद्ध नेत्र विशेषज्ञ डॉ. के. भुजंग शेट्टी बताते हैं, इलाज का खर्च न उठा पाने के कारण हर साल करीब 2 करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे आ जाते हैं। इलाज पर बड़ा खर्च होने से गुजारा करने के लिए उन्हें घर या जमीन बेचनी पड़ती है। इसलिए रास्ता एक ही है, आम आदमी के लिए स्वास्थ्य बीमा योजना लाना, अभी सिर्फ 15 प्रतिशत आबादी को स्वास्थ्य बीमा का लाभ मिलता है। सरकार को चाहिए कि वह इस योजना को लोकप्रिय बनाए और उसे अधिक समर्थन दे। प्रतिनिधि सभा ने हाल के बजट में केंद्र सरकार द्वारा चंद राज्यों में दवाओं के मुफ्त वितरण की शुरुआत और 3,000 जेनेरिक दवा केंद्र खोलने की योजनाओं के प्रस्ताव का स्वागत किया। प्रस्ताव में स्वयंसेवकों सहित सभी नागरिकों से स्वस्थ आहार और अध्यात्म, योग, दैनिक व्यायाम, साफ-सफाई के साथ और शुचितापूर्ण स्वस्थ जीवन शैली अपनाने के लिए व्यापक जन जागरूकता जगाने का आग्रह किया गया है।
संघ के प्रस्ताव में सुझाई गई नीतिगत अनिवार्यताओं का समर्थन करते हुए वसावी अस्पताल के प्रसिद्ध बेरिआट्रिक सर्जन डॉ. रमेश माकम कहते हैं कि चिकित्सा सेवा में लोगों की जरूरतों को शामिल किया जाना चाहिए। मेक इन इंडिया योजना काफी बदलाव ला सकती है और खर्च कम कर सकती है। प्रस्ताव चिकित्सा शिक्षा में सुधार, रेगुलेटरी तंत्र के क्रियान्वयन, स्वास्थ्य क्षेत्र में बजट प्रावधान में बढ़ोतरी और चिकित्सा सेवा क्षेत्र में लोक-समुदाय सहयोग का आह्वान करता है। इन उपचारात्मक कदमों में चिकित्सा क्षेत्र को सही मायनों में व्यावसायिक क्षेत्र से सेवा उद्योग बनाने की ताकत है।
ल्ल आर्गेनाइजर ब्यूरो
टिप्पणियाँ