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आज शिक्षा पर ज्यादा खर्च करने और जनता की अधिक भागीदारी की आवश्यकता है। इस क्षेत्र को निजी क्षेत्र के रहमो-करम पर नहीं छोड़ा जा सकता
डॉ. गौतम सेन
कह सकते हैं कि शिक्षा पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को यह प्रस्ताव पहले क्यों नहीं आया? किसी भी देश की शिक्षा प्रणाली भ्रष्ट और अंतरराष्ट्रीय वित्त पोषित व्यवस्था की बंधक नहीं होनी चाहिए। उच्च शिक्षा में घातक विचलनों से निबटने के लिए संघ के प्रस्ताव को जल्द से जल्द लागू किया जाना चाहिए।
भारत के कुछ प्रमुख शिक्षा संस्थानों, जिन्हें आम जनता के चुकाए करों के बूते भारी कोष मिलता है, की कोई बड़ी बौद्घिक उपलब्धि नहीं है, उलटे वहां काम करने वाले कई लोग और छात्र भारत के प्रतिद्वंद्वियों के हाथों की कठपुतली बन रहे हैं। बोलने की आजादी के नाम पर ये लोग जो विचार रखते हैं, देशहित में उनको और उसके नतीजों को गहराई से समझने की जरूरत है। अंतरराष्ट्रीय मिशनरी साजिश से मिलीभगत वाले जिहादी आतंक के इन प्रवक्ताओं को कदापि बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। इनका पर्दाफाश करना और इन्हें बाहर करना जरूरी है।
सभी के लिए गुणवत्ता वाली सस्ती शिक्षा की जरूरत वाले आरएसएस के इस प्रस्ताव पर कोई विवाद नहीं हो सकता। इसे विस्तृत और विचारशील नीति प्रस्तावों से ही पूरा किया जा सकता है। दुर्भाग्य से भारतीय शिक्षा प्रणाली प्रत्येक स्तर पर पुराने विचारों की बेडि़यों में जकड़ी हुई है जबकि स्थिति की गंभीरता अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग है। उत्तर भारत के कई राज्यों की अपेक्षा दक्षिण भारत के सरकारी स्कूलों के परिणाम बेहतर आते हैं। वास्तविकता से आंखें मुंदे रखने की संस्कृति ऐसी हावी है कि जिन लोगों पर शिक्षा देने की जिम्मेदारी थी, उन्हीं लोगों ने ही इसे लूट का जरिया बना लिया। इस स्थिति को ठीक करना आसान नहीं है लेकिन हितधारकों को सशक्त बनाकर इसकी शुरुआत तो करनी ही होगी। सफलता सबके खाते में आएगी।
फिर भी स्कूली शिक्षा में उन्नति के लिए राज्य सरकारों का साथ आवश्यक है। जनसमर्थन के बिना इसकी कड़ी निगरानी और इसमें अभिभावकों का दखल मुश्किल है। इस काम के लिए कम पढ़े-लिखे माता पिता को भी प्रशिक्षित करना होगा। 2014 के चुनावों से पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शिक्षा पर जीडीपी का कम हिस्सा खर्च किए जाने और शिक्षा व्यवस्था पर हावी हो रही भ्रष्ट निजी व्यवस्था की जमकर आलोचना की थी। संघ ने यह बात एकदम सही पकड़ी है कि शिक्षा पर ज्यादा खर्च करने और जनता की अधिक भागीदारी की आवश्यकता है। इसे निजी हाथों के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता। ऐसे क्रांतिकारी सुधारों का मतलब यह है कि पाठ्यक्रम सामग्री, वेतन और प्रवेश में किसी भी प्रकार का राजनैतिक दखल न हो। हालांकि सरकार को वंचित समुदायों के लोगों को ऐसा सभी समर्थन देना चाहिए जिससे किसी भी शिक्षण संस्थान में उनकी राह न रुके। उच्च शिक्षा का विस्तार इस तरह से किया जाना चाहिए कि सभी योग्य आवेदकों को प्रवेश में दिक्कत न हो। इससे संसाधन बचेंगे। योग्य और बेहतर छात्रों को यहीं पर बेहतर शिक्षा मिलेगी और उन्हें विदेश नहीं जाना पड़ेगा।
6़8 लाख छात्रों का प्रतिवर्ष विदेश जाकर पढ़ने का खर्च 2015 तक करीब 50,000 करोड़ रुपये पहुंच गया, जबकि भारत के संस्थानों में बाहर के सैकड़ों शिक्षाविदों को आमंत्रित करना विशाल और जटिल शिक्षा नेटवर्क के लिए शायद ही एक बेहतर विकल्प होगा। कौशल विकास के एक महत्वपूर्ण अंग यानी व्यावसायिक प्रशिक्षण के क्षेत्र में सरकार ने अब गंभीर प्रयास शुरू कर दिए हैं। भारत में अपनाए जा सकने वाले विदेशों में मौजूद मॉडल, भले वे कितने ही सफल क्यों न हों पूरी तरह कारगर नहीं हो सकते। आमतौर पर इनकी रचना किसी भी देश की खास भौगोलिक परिस्थितियों, प्रशिक्षण के ऐतिहासिक क्रमिक विकास और पढ़ने-सीखने के तौर-तरीकों के मुताबिक विशिष्ट होती है। सावधानी से तैयार प्रशिक्षण पाठ्यक्रम केतहत पढ़ाई के साथ-साथ कार्यस्थल पर अनुभव दिलाने के लिए तय समय देने की व्यवस्था यदि संस्थागत स्तर पर ही हो सके तो पढ़ाई और हुनर का मेल ठीक बैठ सकता है। फीस में छूट दिए जाने वाले कोर्स में आंखें बंदकर दाखिला लेने की प्रवृत्ति किसी के लिए भी सही नहीं है। यह न अर्थव्यवस्था के लिए फायदे की बात है और न ही दाखिला लेने वालों के लिए। संघ का भारतीय शिक्षा में राष्ट्रवादी रुझान का आह्वान शिक्षा, मीडिया और राजनीति क्षेत्र के कई दिग्गजों को नहीं पच सकता है। ऐसे लोग जिनका काम ही आजादी के नाम पर भारत को विकास की पटरी से उतारने की कोशिश करते रहना है, परेशान हो सकते हैं। गरीबी और अज्ञानता से उपजी गहरी समस्याओं से बाहर आने की कोशिश करने वाले किसी भी समाज के लिए अनुशासित उद्देश्य बहुत जरूरी हैं। भारत के अनगिनत लोग जो सदियों से बेबसी भरा जीवन जी रहे हैं, उनके जीवन स्तर को ऊपर उठाने का महत्वपूर्ण कार्य करने पर जोर देना चाहिए।
(लेखक धार्मिक आइडियाज एण्ड पॉलिसी फाउंडेशन के सह-निदेशक हैं, पूर्व में लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स एंड पलिटिकल साइंस से संबद्घ रहे हैं)
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