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दुर्भाग्य से देश की 60 प्रतिशत ग्रामीण जनता आज भी स्वास्थ्य सेवाओं से वंचित है। चिकित्सा किफायती दरों पर उपलब्ध कराने पर ही महाशक्ति कहला सकते हैं
डॉ. देवी शेट्टी
भारतरत में प्रसव के दौरान जच्चा-बच्चे की मृत्यु दर दुनिया में सबसे अधिक है। इसकी तुलना केवल सहारा क्षेत्र स्थित अफ्रीकी देशों से की जा सकती है। बांग्लादेश और श्रीलंका तक इस मामले में भारत से बेहतर स्थिति में हैं। हम महाशक्ति तब तक नहीं बन सकते जब तक देश की 60 प्रतिशत ग्रामीण जनता को स्वास्थ्य सेवाएं नहीं मिलतीं। सरकार द्वारा राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (एनआरएचएम) पर भारी खर्च और मातृ तथा नवजात मृत्यु दर कम करने की कोशिशों के बाद भी देश में हर 10 मिनट में एक गर्भवती महिला प्रसव के दौरान दम तोड़ देती है, 3 लाख बच्चे जन्मते ही मौत के मुंह में चले जाते हैं और 12 लाख बच्चे अपना पहला जन्मदिन मनाने से पहले ही काल का ग्रास बन जाते हैं।
क्या है इस त्रासदी का कारण ?
देश की 60 प्रतिशत जनता के लिए बदतर स्वास्थ्य सेवाओं का सबसे बड़ा कारण ग्रामीण क्षेत्रों में योग्य चिकित्सा विशेषज्ञों की कमी है। भारत में जन्म के समय महिला मृत्यु दर पर नजर डालें। देश में हर वर्ष 26 करोड़ बच्चे जन्मते हैं। अनुमान है कि 20 प्रतिशत महिलाओं को ऑपरेशन से प्रसव की जरूरत पड़ती है। मतलब कि हर साल 52 लाख सिजेरियन ऑपरेशन। इसके लिए कम से कम 2 लाख महिला रोग विशेषज्ञ चाहिए जबकि देश में करीब 40,000 महिला रोग विशेषज्ञ ही हैं। 52 लाख सिजेरियन सेक्शनों के लिए 2 लाख एनेस्थीटिस्ट की भी जरूरत है जबकि इनकी संख्या केवल 40,000 के आसपास है ; 2़ 6 करोड़ नवजात शिशुओं के लिए 2 लाख शिशु रोग विशेषज्ञ चाहिए लेकिन इनकी संख्या 23,000 के आसपास ही है। गर्भवती महिलाओं को अल्ट्रासाउंड सुविधाएं देने के लिए 1़ 5 लाख रेडियोलॉजिस्ट चाहिए करीब 10,000। वह भी दिन थे जब बिना स्नातकोत्तर डिग्री के एमबीबीएस डॉक्टर ही रोगी को बेहोश कर, सिजेरियन कर देता था, वह अल्ट्रासाउंड भी कर लेता था। पर आज बिना स्नातकोत्तर डिग्री के इस पर पाबंदी है। इसके बाद भी कोई एमबीबीएस ऐसा करता है तो उसका मेडिकल लाइसेंस छिन सकता है।
मेडिकल विशेषज्ञों की इतनी कमी क्यों ?
अमेरिका में जहां मेडिकल कॉलेजों में करीब 21,000 अंडर ग्रेजुएट सीटें और 39,000 स्नातकोत्तर सीटें हैं, वहीं भारत के विभिन्न मेडिकल कॉलेजों में 52,715 अंडर ग्रेजुएट सीटें और महिला रोग, एनेस्थेसिया, रेडियोलॉजी और बाल रोग जैसे विषयों के लिए केवल 14,500 स्नातकोत्तर सीटें हैं। अंडर ग्रेजुएशन और पोस्ट ग्रेजुएशन सीटों में अंतर के कारण 2 लाख युवा डॉक्टर रोगियों का इलाज छोड़कर 2 से 5 वर्ष केरल या कोटा जैसी जगहों में स्नातकोत्तर प्रवेश परीक्षा की कोचिंग लेने में बिता देते हैं। जब तक हम देश में अंडर ग्रेजुएट और पोस्ट ग्रेजुएट सीटों के बीच तालमेल नहीं बैठाएंगे, तब तक मां-बच्चे की प्रसव के दौरान मृत्युदर को कम नहीं किया जा सकेगा।
दरअसल, स्वास्थ्य सेवाओं को किफायती दरों पर उपलब्ध करा कर भारत विश्व में अपनी तरह का पहला उदाहरण रख सकता है और ऐसी पहल के साथ हम यह भी साबित कर सकते हैं कि किसी देश की संपदा का उसके नागरिकों को मिलने वाली बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं से कोई संबंध नहीं होता। जिस तरह देश भर में फैले हजारों इंजीनियरिंग कॉलेजों में शिक्षा प्राप्त करने वाले सॉफ्टवेयर पेशेवरों के दम पर भारतीय अर्थव्यवस्था में आमूल परिवर्तन आया, उसी तरह आज मेडिकल शिक्षा में कुछ सुधार कर के हम दुनिया के स्वास्थ्य प्रदाता के रूप में अपनी पहचान बना सकते हैं।
वैश्विक स्वास्थ्य और कल्याण सेवा 7़ 2 खरब डॉलर का उद्योग है जो सॉफ्टवेयर उद्योग से चार गुना बड़ा है। इसलिए डॉक्टरों, नसार्ें एवं मेडिकल तकनीकी विशेषज्ञों के लिए लाखों नौकरियों का इंतजाम कर के हम इस क्षेत्र में अग्रणी होने के साथ-साथ देश की अर्थव्यवस्था में भी असीम परिवर्तन ला सकते हैं। 20वीं सदी की अर्थव्यवस्था मशीनों पर निर्भर थी जिसके लिए मानव श्रम की जरूरत थी।
इसके विपरीत, 21वीं सदी की अर्थव्यवस्था स्वास्थ्य उद्योग पर आधारित हो सकती है। आज हमारे सामने स्वास्थ्य सेवा प्रदाता के रूप में विश्व में अग्रणी बनने का सुनहरा मौका है। पश्चिमी जगत में भारतीय डॉक्टर अपनी प्रतिभा पहले ही साबित कर चुके हैं। किसी भी अमेरिकी या ब्रिटिश व्यक्ति को एक भारतीय को याद करते हुए ऐसे हमदर्द और हुनरमंद डॉक्टर की याद आती है, जिसके हाथों में जादू है। अब हमें अपनी अर्थव्यवस्था में सकारात्मक परिवर्तन के लिए इसी ब्रांड का इस्तेमाल करने की जरूरत है।
(लेखक जाने-माने हृदय रोग विशेषज्ञ और बंगलुरू स्थित नारायण हृदयालय के
संस्थापक अध्यक्ष हैं)
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