अपनी बात : समरस, समर्थ भारत का सपना
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अपनी बात : समरस, समर्थ भारत का सपना

by
Mar 21, 2016, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 21 Mar 2016 10:49:21

जिस समय राजस्थान के नागौर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा की बैठक चल रही थी ठीक उसी समय देश में कुछ और टोलियां आगे की योजनाएं बना रही थीं।
नागौर के आंबेडकर मंडप में जब समाज हित पर मंत्रणाओं और सहमति के स्वर उठ रहे थे, उस समय केरल-मैसूर में वामपंथी हत्यारे, संघ कार्यकर्ताओं को निशाना बनाने के षड्यंत्र रच रहे थे।
समाज को शिक्षित, स्वस्थ और संगठित बनाने के विराट आह्वान जिस समय आकार ले रहे थे, उस समय दिल्ली में कुछ लोग चुप्पियों के घोषणापत्रों पर हस्ताक्षर कर रहे थे।
भारत में यह बदलाव का दौर है।
एक ऐसे समय जब देशहित के संकल्प ने स्वार्थी, घातक लामबंदियों को हाशिए पर धकेल दिया है— एक ओर नई शक्ति का अनुभव करता भारत खड़ा हो रहा है, दूसरी तरफ धराशायी विचारधाराएं और राजनैतिक दल भारी बौखलाहट से भरे बैठे हैं।
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र द्वारा भारत के अभारतीय विचार को खारिज कर दिए जाने से पैदा हुई यह सिहरन इतनी तेज है जिसने धुर विरोधियों को भी चिपक कर बैठने को मजबूर कर दिया है।
हजारों पार्टी कार्यकर्ताओं की हत्या में सीधे आरोपी वामपंथियों के साथ प़ बंगाल में हाथ मिलाने वाली कांग्रेस दिल्ली में चुप है। 'बोल कि लब आजाद हैं तेरे' की तान छेड़ने वाले हांेठ इस 'मतलबी गठजोड़' पर केरल में सिले हुए हैं।
वामपंथी हत्यारों द्वारा मैसूर, कन्नूर में संघ-भाजपा कार्यकर्ताओं की लगातार हत्या और हमलों पर सबको जगाने का दावा करने वाले मीडिया से लेकर 'अतिसंवेदनशील' सेकुलर टोलियों तक, सब खामोश हैं। इस खामोशी के कई पहलू हैं। व्यक्तिगत या दलीय हितों का मारा जाना इनमें सबसे छोटी और आसानी से पकड़ में आने वाली बात है। बड़ी बात है अटूट, शक्तिशाली सबल भारत के सपने से उपजा डर। कुछ दल और विचारधाराओं की जड़ ही इस दौर में उखड़ गई है।
ये वे लोग हैं जो भारत को सिर्फ राजनैतिक गुणा-गणित  का मैदान समझते रहे और अब देश की सामाजिक समझ की गहराई बढ़ने से        बौखला गए हैं।
जाट आंदोलन के नाम पर अदृश्य नेतृत्व लाख फूंकें मारता रहा लेेकिन शुरुआती चोट से ही सतर्क हुए समाज ने समरसता यज्ञाहुतियों में षड्यंत्र को भस्म कर डाला। जेएनयू में वामपंथियों के देश विरोधी नारों के विरुद्घ पूरा देश ही उठ खड़ा हुआ।
कुछ लोगों के लिए यह सांसें उखाड़ने वाला दौर है।
इस दौर में सिर्फ सरकारें नहीं बदलीं, परिभाषाएं भी बदल रही हैं। समाज और संस्कृति की साधना में लगे संगठन तो नई गति से बढ़ ही रहे हैं, राजकाज का आधार भी परिवार से खिसककर समाज पर केंद्रित हो रहा है।
जनता देश को विकासपथ पर दौड़ाने की क्षमता रखने वाला इंजन है। इस विशाल राष्ट्रीय संसाधन की शिक्षा और स्वास्थ्य रक्षा से देश को अनूठी ताकत मिल सकती है। इस संकल्प में दोष वे ही लोग निकाल सकते हैं जिनके लिए या तो विकासमान भारत के कोई मायने नहीं है या फिर जिनके लिए जनता सिर्फ वोट बैंक है।
अपने आचरण से समाज का भेदभाव मिटाने का संकल्प लेेने वालों के प्रण पर वे लोग ही उंगली उठा सकते हैं जिनके लिए बाबासाहेब के सपने का कोई मतलब नहीं और जिनके लिए वंचित वर्ग सिर्फ सियासत की गोटी है। किसानों की आमदनी की सुरक्षा का खाका तैयार होने पर वे ही कुनमुना सकते हैं जिन्होंने लाखों किसानों की आत्महत्या के बावजूद करीब सात दशक के शासन में कभी इस तरह सोचा ही नहीं।
यह नई राजनीति का, संवेदनशील समाज नीति का, विश्व के सबसे युवा देश के लिए नई ऊर्जा का और भविष्य के भारत के सूत्रों के जुड़ने का दौर है।
लेकिन सावधान, हाशिए पर पड़ी हताश, गुमसुम टोलियां आखिरी हमले के लिए घात में हैं। समाज की टूटन और कमजोरी जिनके लिए अस्तित्व की जमीन रही, समाज ने उनसे यह जमीन छीन ली। यह जमीन चाहे बित्ताभर ही सही, अपने पांव जमाए रखने के लिए उन्हें किसी भी कीमत पर चाहिए। घड़ी परीक्षा की है और परीक्षा में सूत्र ही काम आते हैं। सूत्र हैं—
आपस में लड़े बिना बढ़ते रहो, जब तक कि विष और वैमनस्य का आखिरी बीज भी खत्म न हो जाए।
सबल, स्वस्थ, शिक्षित, समरस, समर्थ भारत का सपना आपकी, हमारी, हम सबकी आंखों में है। इस सपने को साकार करने के लिए 'आंखें खुली' रखनी होंगी।
    भारत माता की जय

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