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हल्ला बहुत है। पर्यावरण की रक्षा से लेकर जनता के अधिकारों की ढपली तक, दिल्ली अजब शोर में डूबी है। इस शोर में शोकाकुल, बुरी तरह चिंतातुर कई चेहरे हैं। ठीक। देश की राजधानी संवेदनशील, सतर्क, चिंतित नहीं दिखेगी तो कैसे चलेगा? लेकिन माफ कीजिए। दिल्ली से उठे चिंताओं के इन बगूलों में चिंता कम सिर्फ अपनी बात रखने की तेजी और मुद्दे बदलने का घुमाव ज्यादा है।
कुछ लोग यमुना तीरे होने जा रहे विशाल वैश्विक आयोजन पर तमतमाए हैं। तो अपने 'बहुवचन' होने का भ्रम पाले कुछ 'एकवचन' ऐसे हैं जो समझते हैं कि उनकी चिंताओं ने सरकार को हिला दिया है। कुछ चेहरे ऐसे भी हैं जो जेएनयू की आजादी दबाए जाने पर 'लाल' हैं।
पहले बात यमुना के फिक्रमंदों की। नदी किनारे विशाल आयोजन ने 'पर्यावरण रक्षा' में जुटे कई संवेदनशील लोगों को झकझोरा। उनके कहे से ही तो सब जागे हैं! लेकिन एक चीज खटकती है। पर्यावरण ऐसा विषय है जिसे देश और राज्य की राजनैतिक सीमाओं में नहीं बांटा जा सकता। फिर सिर्फ यमुना और केवल इस आयोजन पर हल्ला क्यों? अभी फरवरी में केरल में पम्पा नदी के खादर में एशिया का सबसे बड़ा ईसाई सम्मेलन हुआ। देश-विदेश के अतिथियों के जमावड़े वाला वह आयोजन इस आयोजन के मुकाबले दोगुना लंबा (पूरा एक सप्ताह) चला। लेकिन पम्पा के पानी के लिए यमुना सी त्यौरियां नहीं चढ़ीं। तब आंदोलनकारी और फटकार ब्रिगेड कहां थी? क्या हवा-पानी जैसे मुद्दों पर संवेदनशीलता भी खास सीमित सरोकारों के खूंटे से बंधी है? दूसरी बात, राष्ट्रीय हरित अधिकरण ने दिल्ली में आयोजकों को कहा कि वे दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण कमेटी की अनुमति के बिना नदी में वह एन्जाइम न डालें जिससे पानी की दुर्गंध मिट रही है और जल स्वच्छता का दावा किया जा रहा है। सवाल राज्य की प्रदूषण नियंत्रण कमेटी से है। क्या दिल्ली में अपने हिस्से में पड़ने वाली थोड़ी सी यमुना को सबसे बुरी तरह प्रदूषित करने वालों को भी उसने कोई 'मंजूरी' दी है?
अब बात बाबा की। मान भी लीजिए कि उन्हें इस देश की सबसे ज्यादा चिंता है। ईपीएफ ब्याज के मुद्दे पर सरकार उनके कहे से ही तो झुकी है? वरना जाने क्या कर बैठते? उन्हें इस बात पर गर्व है कि भारत के 50 प्रशित से अधिक मतदाताओं को चुनाव लड़ने से वंचित करने के भाजपा के प्रयास (उम्मीवारों के लिए शिक्षा की अनिवार्यता) के खिलाफ विपक्ष एकजुट हो गया है। अब इसका क्या कीजै कि युवराज सिर्फ गर्व करना जानते हैं। उन्हें इस बात पर शर्म नहीं आती कि यह उनके परिवार का ही शासन है जिसने करीब सात दशक के प्रत्यक्ष-परोक्ष राज में दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की आधी से ज्यादा आबादी को अनपढ़ बनाए रखा। उन्हें लगता है कि भाजपा और संघ, गरीब-वंचित और वनवासियों के अधिकार छीन रहे हैं। ठीक। लेकिन, क्या अनपढ़ बने रहना गरीब, दलित और आदिवासियों का अधिकार है? क्या कांग्रेस ने अशिक्षा का कलंक कुछ खास वगार्ें के अधिकार के तौर पर आवंटित किया है?
अंत में बात उनकी जो बंगाल को चौथाई सदी बंधक बनाए रखने के बाद अब अपने राजनीतिक अंत की इस घड़ी में बेतरह चिंतित हैं। देशद्रोही नारों के मामले में जमानत पर छूटे कन्हैया में वामदलों को अपना नया 'लाल' नजर आ रहा है। येचुरी-करात की जीवन भर की बौद्धिकता कन्हैया के छटांक भाषण पर बलिहारी।
अभिव्यक्ति की और व्यक्ति की जो स्वतंत्रता संविधान से मिलती है वह व्यक्तियों, संविधान और देश से बड़ी होती है इतनी महत्पूर्ण बात कामरेड सबको समझाना चाह रहे हैं लेकिन लोग हैं कि मानने को ही तैयार नहीं हैं। बंगाल के चुनाव के लिए कश्मीर में तैनात सेना के जवानों की बदनामी से लेकर 'घोर शत्रु' कांग्रेस से हाथ मिलाने तक सब कुछ तो वह कर रहे हैं!
दिल्ली के इन चेहरों की चिंताएं देश को रुलाने पर आमादा हैं। लेकिन लोग रो नहीं रहे। गंभीर हैं। शांत हैं। मुस्करा रहे हैं। यह देश पत्थरदिल हो गया या चेहरों पर चढ़े मुखौटे पहचानने लगा!!
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