मुद्दा- तिरंगे का सम्मान
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मुद्दा- तिरंगे का सम्मान

by
Mar 7, 2016, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 07 Mar 2016 14:22:56

पिछले दिनों जब देश के सभी विश्वविद्यालयों में तिरंगा फहराने का आदेश आया तो पता नहीं किसके निर्देश पर  कांग्रेस कार्यकर्ता देश में स्थान-स्थान पर संघ कार्यालयों पर तिरंगा फहराने चल दिए। सब जानते हैं कि 26 जनरी 1992 को भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष डॉ. मुरली मनोहर जोशी के नेतृत्व में भारत एकात्मता यात्रा के अंतर्गत भाजपा के अनेक कार्यकर्ताओं ने लाल चौक, श्रीनगर पर तिरंगा फहराया था। उस वक्त किसी कांग्रेसी की हिम्मत नहीं हुई थी कि श्रीनगर जाकर तिरंगा फहराता। लेकिन आज वे ही कांग्रेसी तब ठगे से देखते रहे जब संघ कार्यकर्ताओं ने संघ कार्यालयों पर किसी रणनीति के तहत पहंुचे उन कांग्रेसियों के साथ न केवल तिरंगा फहराया बल्कि सबकी प्रेम से आवभगत भी की। संघ कार्यकर्ताओं ने तिरंगा फहराने
के बाद  जोर से 'वंदेमातरम' का जयकारा भी लगाया।  
इस संदर्भ में यह देख लेना समीचीन होगा कि तथाकथित सेक्युलरों का यह तिरंगा प्रेम कितना खरा है। इस पर सोशल मीडिया में खूब चर्चा हुई। साथ ही संघ कार्यकर्ताओं के आपदा राहत कार्यों और1963 में संघ गणवेश में गणतंत्र दिवस समारोह का हिस्सा बनने की तस्वीर भी वायरल हुई। ऐतिहासिक सत्य है कि समय-समय पर संघ के स्वयंसेवक तिरंगे की खातिर अपने प्राण भी न्योछावर करते आये हैं। 14 अगस्त 1947 को पाकिस्तान का जन्म हुआ तो कश्मीर के श्रीनगर में कुछ पाकिस्तान समर्थक तत्वों ने श्रीनगर की अनेक इमारतों पर पाकिस्तानी झंडे लगा दिए। तब संघ के स्वयंसेवकों ने कुछ ही घंटों के अंदर 3,000 तिरंगे तैयार करवाकर पूरे श्रीनगर में फहराए थे। अक्तूबर1947 में कश्मीर पर हुए पाकिस्तानी आक्रमण के समय भारतीय सेना के पहुंचने तक संघ के स्वयंसेवकों ने मोर्चा सम्भाला और बलिदान दिए थे। इतना ही नहीं, जम्मू  में भारतीय सेना के विमान उतर सकें इसके लिए 500 संघ कार्यकर्ताओं ने रात-दिन मेहनत कर सात दिनों में ही हवाई पट्टी को चौड़ा कर दिखाया था। इसी दौरान दूसरे स्वयंसेवक सेना के वाहनों के आने-जाने के लिए सड़कें बनाने और टूटी-फूटी सड़कों की मरम्मत के काम में जुटे थे। सामरिक महत्व के स्थान कोटली के आक्रमणकारी पाकिस्तानियों के हाथ में चले जाने का खतरा पैदा हो गया तो स्वयंसेवकों ने अदम्य साहस जुटाकर वहां मोर्चा बांधा और छह हफ्तों तक  डटे रहे। कोटली में ही, जब हमारी वायुसेना द्वारा गिराई गयीं गोला-बारूद की 20 पेटियां उस खड़ी ढलान पर जा गिरीं जो पाकिस्तानी तोपखाने की मार में आता था, तब स्थानीय स्वयंसेवक कृष्णलाल तथा 20 अन्य स्वयंसेवक सिर पर कफन बांधकर पेटियां सुरक्षित निकाल लाए और सेना को सौंप दीं। यह अभूतपूर्व वीरता दिखाते हुए कृष्णलाल सहित छह स्वयंसेवकों को अपने प्राणों की आहुति भी देनी पड़ी।
कश्मीर की सुरक्षा के लिए लड़े जा रहे उस युद्ध के अंतिम दौर में नगर कार्यवाह प्रकाश भी शत्रु का सामना करते हुए शहीद हुए। 22 नवम्बर 1952 को रियासत के तत्कालीन युवराज कर्णसिंह के जम्मू आगमन पर नेहरू जी के अभिन्न मित्र शेख अब्दुल्ला की नेशनल कॉन्फ्रेंस ने अपनी पार्टी के झंडे फहराने की चाल चली (बाद में इन्हीं शेख अब्दुल्ला को पाकिस्तान से साठगांठ और देशद्रोह के आरोप में जेल भेजा गया था) तब स्वयंसेवकों ने जम्मू क्षेत्र के सभी प्रमुख स्थानों पर तिरंगा फहराए जाने की मांग करते हुए
सत्याग्रह किया। शेख अब्दुल्ला के इशारे पर पुलिस ने गोली चलाई, जिसमे 15 स्वयंसेवक शहीद हो गए।
 2 अगस्त 1954 को स्वयंसेवकों ने पुणे के संघचालक श्री विनायक आप्टे के नेतृत्व में दादरा और नगर हवेली की बस्तियों पर धावा बोलकर 175  पुर्तगाली सैनिकों को हथियार डालने पर विवश किया और वहां तिरंगा फहराकर वह प्रदेश केंद्र सरकार के हवालेे कर दिया। 1979 में सिलवासा में इस घटना की रजत जयंती मनाई गई तो नागरिकों ने इन स्वयंसेवकों का स्वतंत्रता सेनानी होने के नाते सम्मान किया। इसी प्रकार जब गोवा पर पुर्तगाली शासन स्वतंत्र भारत की देह का नासूर बना हुआ था और नेहरू जी अंतरराष्ट्रीय मत-मतान्तर और अपनी गुटनिरपेक्ष छवि के बीच उलझकर इस ओर से उदासीन बने हुए थे तब 1955 के गोवा मुक्ति संघर्ष में स्वयंसेवकों ने प्रमुख भूमिका निभायी थी। देश के विभिन्न स्थानों से गोवा आ रहे सत्याग्रहियों के खाने-पीने ठहरने की व्यवस्था संघ कार्यकर्ताओं ने की। संघ और जनसंघ के प्रमुख कार्यकर्ताओं ने सत्याग्रही जत्थों का नेतृत्व किया। इसी सत्याग्रह में तिरंगा लहराते हुए सीने पर पुर्तगालियों की गोली खाकर पहला बलिदान देने वाले उज्जैन के स्वयंसेवक राजाभाऊ महांकाल थे। जब महांकाल की एक आंख को चीरते हुए गोली निकल गयी तब वह यह चिल्लाते हुए गिर पड़े कि ''ध्वज की रक्षा करो़.़.घायल सत्याग्रहियों का ध्यान रखो।'' आज उनके नाम पर उज्जैन में बस स्टैंड     बना हुआ है।     
लेेकिन इन बलिदानों की सरकार ने किस कदर उपेक्षा की, इसका प्रमाण है एक स्वयंसेवक (और शिक्षक) मोहन रानाडे,  जिन्होंने1955 में पणजी सचिवालय पर तिरंगा फहराया, इस 'अपराध' में उन्हें अगले 17 साल लिस्बन जेल में काटने पड़े थे जबकि गोवा 1961 में पुर्तगाल के कब्जे से मुक्त हो गया था। 1962 , 1965 और 1971 के युद्धों  में भी स्वयंसेवकों ने सीमा पर और अंदरूनी मोर्चे पर देशभक्ति का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत किया। रसद आपूर्ति, घायल सैनिकों के लिए रक्तदान और दूसरे अनेक राहत कार्य युद्ध स्तर पर चलाये। '65 की लड़ाई में जब सीमावर्ती फाजिल्का नगर पर पाकिस्तानी बमबारी का खतरा खड़ा हो गया तो लोगों ने पलायन करना शुरू कर दिया। लेकिन सभी स्वयंसेवक और उनके परिवार (कुल मिलाकर 5,000 लोग) वहीं डटे  रहे क्योंकि उन्होंने तय किया था कि अपनी भूमि दुश्मन के हवाले करके नहीं जाएंगे। 7 दिसंबर 1971 को राजस्थान के बाड़मेर में पेट्रोल ले जाती एक मालगाड़ी पाकिस्तानी बमों की जद में आ गई तो स्वयंसेवकों ने बरसते बमों की परवाह न करते हुए पेट्रोल के पीपों को सुरक्षित स्थान पर पहुंचाया। '71 के युद्ध में ही बंगाल के दिनाजपुर के चक्रम गांव में पाकिस्तानी गोलाबारी के बीच से भारतीय सेना के लिए (पीछे छूटा) गोलाबारूद ढोता किशोर स्वयंसेवक चुरका मुरमू शहीद हो गया।
संघ के स्थापना काल से ही भगवा ध्वज को हिन्दू संस्कृति का प्रतीक होने के कारण  गुरु के रूप में स्वीकार किया गया जिसके सामने स्वयंसेवक प्रतिदिन जमा होकर व्यायाम-चिंतन आदि करते हैं। 1927 में संघ में भगवा ध्वज को गुरु की मान्यता दी गयी।  इसके बीस वर्ष बाद 1947 में तिरंगा राष्ट्र ध्वज बना। तब संघ मुख्यालय पर भी तिरंगा फहराया गया। राष्ट्रध्वज होने के नाते तिरंगे का सम्मान हर कोई करता है। संघ कार्यालयों पर तो तिरंगा फहराने आए कांग्रेस कार्यकर्ताओं का हार्दिक स्वागत हुआ। लेकिन ये 'राष्ट्रभक्त' अब क्या देश में उन स्थानों पर तिरंगा फहराने जाएंगे जहां राजनैतिक स्वाथोंर् के चलते तिरंगा नहीं फहराया जाता?     – प्रशांत बाजपेई

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