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सन् 2004 के इशरत जहां मुठभेड़ मामले का वेताल फिर बाहर निकल आया है, लेकिन इस बार वह पिछली यूपीए सरकार में गृहमंत्री रहे पी. चिदंबरम की पीठ पर सवार है। यूपीए सरकार में उच्चतम प्रशासनिक पदों पर रहे कम-से-कम तीन अधिकारियों ने इशरत के लश्कर से संबंधों की पुष्टि करने वाले तथ्यों से भरा हलफनामा बदल दिए जाने के लिए सीधे चिदंबरम पर उंगली उठाई है। इससे इन आरोपों को बल मिला है कि इशरत मामले का इस्तेमाल गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को फंसाने के लिए किया गया। तत्कालीन गृहसचिव जी.के. पिल्लै के खुलासे के बाद कथित षड्यंत्र को यूपीए सरकार के प्रश्रय की कुछ और बातें समाने आई हैं। केंद्रीय गृह मंत्रालय में आंतरिक सुरक्षा विभाग के अवर सचिव रहे आरवीएस मणि ने तो यह उजागर करके कि हलफनामा बदलने के लिए एसआईटी ने उन्हें यातनाएं तक दीं, मोदी को फंसाने के षड्यंत्र के आरोपों की गंभीरता बढ़ा दी है।
पाञ्चजन्य ब्यूरो
नाजी जर्मनी के प्रचार मंत्री रहे पाल जोसेफ गोएबेल्स ने कहा था, ''एक झूठ हजार बार दोहराया जाए तो सच हो जाता है।'' स्वतंत्र, लोकतांत्रिक भारत में कांग्रेस पार्टी अपने सबसे मजबूत प्रतिद्वंद्वी, जो उस वक्त गुजरात के मुख्यमंत्री थे, को निशाना बनाने के लिए गोएबेल्स के उसी विचार पर चल रही थी। तब कांग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए सरकार जो बात छिपाना चाहती थी और जिसका सारा दोष मोदी और उनके खासमखास अमित शाह (वर्तमान भाजपा अध्यक्ष) पर डालना चाहती थी, वह सारी साजिश आज कांग्रेस को ही उलटी पड़ गई है। तत्कालीन राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एम.के. नारायणन, गृह सचिव जी.के. पिल्लै और गृह मंत्रालय के पूर्व अवर सचिव आरवीएस मणि, इसी मंत्रालय के पूर्व संयुक्त सचिव ए.के. जैन तथा आईबी के पूर्व विशेष निदेशक सुधीर कुमार और राजिंदर कुमार के खुलासों से कांग्रेस और उसके पूर्व गृह मंत्री पी चिदंबरम की करतूतों की कलई खुल गई है। यह वह कुख्यात और विवादास्पद मामला है जिसे आमतौर पर 'इशरत जहां फर्जी मुठभेड़' मामले के तौर पर जाना जाता है।
ताजा खुलासे
इशरत जहां मामले में ताजा खुलासों ने देश को सन्न कर दिया है। सबको पता चल गया है कि यूपीए सरकार ने किस तरह एक व्यक्ति—नरेंद्र मोदी—की प्रतिष्ठा को तार-तार करने के लिए हरसंभव अनैतिक, अवैध और नाजायज हथकंडा अपनाया। यह सब मोदी को कानूनी पचड़े में फंसाकर उनकी बढ़ती लोकप्रियता रोकने के लिए था ताकि उन्हें खासकर 2014 के आम चुनाव में उतरने से रोका जा सके।
नार्थ ब्लॉक, जहां गृह मंत्रालय स्थित है, षड्यंत्रों का केंद्र बन गया जिसकी अगुआई और कोई नहीं बल्कि खुद तत्कालीन गृह मंत्री पी. चिदंबरम कर रहे थे। इस दौरान सरकारी तंत्र ने जांच एजेंसियों के निष्ठावान अधिकारियों का आत्मबल कुचल दिया, कुछ अधिकारियों को झूठे आरोपों में जेल में डाल दिया गया। जनता और मीडिया में इसके बारे में ऐसी झूठी कहानियां फैलाई गईं जो सच लगती थीं और गृह मंत्रालय के प्रतिबद्ध अफसर, मणि ने जैसा बताया, उन्हें रुख बदलने और 'आकाओं' के इशारे पर नाचने के लिए शारीरिक यातना तक दी गई। पिल्लै ने इशरत जहां की कथित फर्जी मुठभेड़ के मामले में चिदंबरम की भूमिका पर सवाल उठाए। उन्होंने दावा किया कि गृह मंत्रालय ने इशरत के लश्कर से कथित संबंधों के संदर्भ इसलिए उड़ा दिए, क्योंकि चिदंबरम नहीं चाहते थे कि यह बात दस्तावेजों का हिस्सा बने। एक अंग्रेजी अखबार के अनुसार पिल्लै का कहना था, ''चिदंबरम ने संयुक्त सचिव से फाइल यह कहकर मंगवाई कि हलफनामे को ठीक करने की जरूरत है। इसके बाद हलफनामे को मंत्री के निर्देशानुसार बदलने के बाद ही मेरे पास भेजा गया।''
दोनों हलफनामों पर हस्ताक्षर करने वाले अधिकारी मणि ने एक और चौंकाने वाला खुलासा किया। उन्होंने समाचार चैनल से कहा कि इशरत मामले में दूसरे हलफनामे, जिसे मंत्रालय में उनसे ऊपर के दो अधिकारियों की जानकारी के बिना 'राजनैतिक स्तर पर' बदला गया, पर हस्ताक्षर करने के लिए उन्हें 'मजबूर' किया गया। उन्होंने आरोप लगाया कि एसआईटी प्रमुख सतीश वर्मा ने उन्हें जलती सिगरेट से दागा।
यह दूसरा हलफनामा वह था जिसमें इशरत जहां, प्राणेश पिल्लै उर्फ शेख, अमजद अली राणा और जीशान जौहर के लश्कर-ए-तैयबा के साथ संबधों के संदर्भ हटा दिए गए थे।
गहरी साजिश की पृष्ठभूमि
यह इशरत जहां मामला ही था जिसने विपक्षी दलों, आंदोलनकारियों, गैर सरकारी संगठनों, प्रवासियों, आम लोगों और भाजपा के भीतर भी कई लोगों को नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी पर दस साल तक हमला बोलने का मौका दिया। जनता, खासकर देश के मुसलमान यह मानने लगे कि ''इशरत जहां एक मासूम लड़की थी जिसे अपने तीन मित्रों (या परिचितों) के साथ गुजरात लौटते वक्त नरेंद्र मोदी के राज्य की पुलिस ने फर्जी मुठभेड़ में मार डाला।''
कांग्रेस ने कई वर्ष तक गोएबल्स की तर्ज पर यह झूठ फैलाकर उससे लाभ उठाया और मोदी को 'गुजरात का कसाई', 'हत्यारा' और न जाने क्या-क्या प्रचारित करते हुए लोगों को इस झूठ के सच होने के भ्रम में डाले रखा।
विशेष जांच दल और न्यायालय द्वारा 'क्लीन चिट' दिए जाने के बाद भी मोदी को इस घृणित अभियान से राहत नहीं मिली।
वह 15 जून, 2004 की एक सुबह थी जब इशरत जहां, प्राणेश पिल्लै उर्फ शेख, अमजद अली राणा और जीशान जौहर को अमदाबाद के बाहरी हिस्से में कोतारपुर वाटरवर्क्स की तरफ जाने वाली सड़क पर मुठभेड़ में ढेर किया गया था। पुलिस का दावा था कि चारों लश्कर-ए-तैयबा से जुड़े थे और 2002 के सांप्रदायिक दंगों का बदला लेने के इरादे से तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को निशाना बनाने के लिए गुजरात आए थे।
इशरत की मां ने अप्रैल 2012 में सीबीआइ को दिए बयान में कहा, ''मेरी बेटी निदार्ेष थी, उसे गुजरात पुलिस ने इतनी बेदर्दी से मार दिया। जावेद कभी हमारे घर नहीं आया। इशरत का मालिक और कर्मचारी के अलावा कोई रिश्ता नहीं था।'' इसके बाद जल्दी ही ये खबरें फैलने लगीं कि मुठभेड़ फर्जी थी। मामले में गैर-सरकारी संगठन कूद पड़े। फर्जी मुठभेड़ के हल्ले ने देश को हिला दिया। सच जानने के लिए सवार्ेच्च न्यायालय की देख-रेख में विशेष जांच दल का गठन कर दिया गया जिसे अगस्त 2010 में गुजरात उच्च न्यायालय ने जांच अपने हाथ में लेने को कहा। यूपीए सरकार यह तय करना चाहती थी कि ''एक मासूम युवा मुसलमान लड़की'' की हत्या के पीछे मोदी का हाथ साबित किया जाए।
बाद में उच्च न्यायालय ने एक नई एसआईटी का गठन किया जिसके पहले प्रमुख वरिष्ठ आईपीएस करनैल सिंह ने कुछ समय बाद पद छोड़ दिया। जुलाई 2011 में तैनात नए प्रमुख के नेतृत्व वाली एसआइटी ने 21 नवंबर, 2011 को अपनी रिपोर्ट में अदालत को बताया कि मुठभेड़ 'असली नहीं थी।' न्यायालय ने 'फर्जी मुठभेड़' में शामिल सभी 20 से ज्यादा लोगों, जिनमें वरिष्ठ आइपीएस अधिकारी भी थे, के विरुद्ध भारतीय दंड विधान की धारा 302 (हत्या) के तहत मामला दर्ज करने का आदेश दिया।
इस बीच 2013 में मध्य प्रदेश कैडर के आईपीएस आसिफ इब्राहिम को आईबी का मुखिया बनाया गया। वे यह पद संभालने वाले पहले मुसलमान थे। इस ईमानदार अधिकारी ने कांग्रेस और यूपीए के घृणित इरादों के सामने झुकने से इनकार कर दिया। जब केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) और राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) ने आईपीएस अधिकारी राजेन्द्र कुमार को इस फर्जी मुठभेड़ में आरोपित किया तो इब्राहीम ने तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे को कहा कि आइबी के पास इस बात के पुख्ता सुबूत हैं कि 19 साल की इशरत के पाकिस्तानी आतंकी संगठन लश्कर-ए-तैयबा से संबंध थे।
सीबीआई का खेल
इसके बाद कांग्रेस की अगुआई वाली केंद्र सरकार ने मोदी को 'फर्जी मुठभेड़' का सूत्रधार साबित करने के लिए सीबीआई का इस्तेमाल किया। एसआईटी की प्रतिकूल रिपोर्ट आते ही गुजरात उच्च न्यायालय ने मामला सीबीआई को सौंपा। एजेंसी ने इस मामले में गुजरात कैडर के तीन और आईबी के चार अधिकारियों के विरुद्ध आरोपपत्र दायर कर दिया। फिलहाल ये अधिकारी जमानत पर हैं।
जब सीबीआई ने गृह मंत्रालय से आइबी अधिकारियों से पूछताछ की अनुमति मांगी तो दोनों एजेंसियां इस बात पर आपस में भिड़ गईं। आइबी ने मुंबई हमलों में प्रमुख भूमिका निभाने वाले पाकिस्तानी-अमेरिकी आतंकी डेविड कोलमैन हेडली से एफबीआई की पूछताछ के दस्तावेज सवार्ेच्च न्यायालय में सीलबंद लिफाफे में पेश किए जिनमें इशरत की आतंकी भूमिका की पुष्टि होती थी।
गुजरात उच्च न्यायालय ने जब यह मामला सीबीआई को सौंपा तो यह स्पष्ट रूप से कहा था कि जांच इस बात पर आधारित होनी चाहिए कि मुठभेड़ असली थी या फर्जी। सूत्रों के अनुसार, ''सीबीआई जांच में इशरत और उसके साथ मारे गए उसके तीन अन्य साथियों के किसी पूर्व आपराधिक या आतंकी रिकार्ड का पता नहीं चला।'' लेकिन अंदर की जानकारी रखने वाले बताते हैं कि, ''सब कुछ तय ढंग से चल रहा था। सीबीआई ने 'फर्जी मुठभेड़' के योजनाकार के तौर पर नरेंद्र मोदी को फंदे में लेने का पूरा और पक्का इंतजाम कर लिया था।''
सीबीआई के दो आरोपपत्र
जुलाई 2013 में दाखिल पहला आरोपपत्र सात पुलिस अधिकारियों के खिलाफ था। इसमें तीन आईपीएस अधिकारी पी.पी. पांडे, डी.जी. वंजारा और जी.एल. सिंघल के नाम थे। आरोपपत्र में सीबीआई ने कहा कि मुठभेड़ 'झूठी थी' और इसे गुजरात पुलिस और आईबी ने मिलकर अंजाम दिया।
फरवरी 2014 में दायर अपने दूसरे आरोपपत्र में सीबीआइ ने आईबी के विशेष निदेशक राजेन्द्र कुमार पर हत्या, अपहरण, आपराधिक षड्यंत्र, हत्या के लिए अपहरण, गलत तरीके से रोकने और आर्म्स एक्ट के आरोप लगाए थे। राजेन्द्र कुमार की टीम के तीन अन्य आईबी अधिकारियों—पी. मित्तल, एम.के. सिन्हा और राजीव वानखेड़े को भी मामले में आरोपी बनाया गया।
साजिश (या चाल?), और खिलाड़ी
अब देखें तो यह प्रकरण हॉलीवुड की किसी राजनीतिक-अपराध फिल्म की कहानी सरीखा लगता है। परत-दर-परत साजिश की भूलभुलैया। हर कोशिश मामले में मोदी की भागीदारी न होने का सुबूत मिटाने के लिए थी। जो लोग मुठभेड़ के सही होने की बात साबित कर सकते थे, वे मुठभेड़ों में मर चुके थे।
इशरत जहां:- इशरत के मामले में उसके आतंकी या लश्कर-ए-तैयबा से जुड़े होने का संकेत देने वाले सबूत होने के बावजूद सीबीआई अपने राजनीतिक आकाओं के इशारे पर उसे मासूम-निदार्ेष दर्शाती रही।
हेडली ने एफबीआई जांचकर्ताओं को बताया था कि इशरत मुजम्मिल भट्ट और लश्कर की महिला शाखा के प्रमुख अबू ऐमान मजहर के निर्देशन में लश्कर के 'आत्मघाती बम' दस्ते की सदस्य थी। हेडली ने बताया कि उसे यह जानकारी हाफिज सईद, जकीउर रहमान लखवी और लश्कर के दूसरे क्रम के नेता अबू खलीफा से पाकिस्तान में लाहौर के करीब मुरीदके नामक स्थान पर मुलाकात के दौरान मिली थी। हेडली के दावे के बावजूद सीबीआई ने इशरत की भूमिका को फिर से जांचने की जहमत नहीं उठाई।
पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एम.के. नारायणन ने लिखा कि ''खुफिया एजेंसियों को मालूम था कि इशरत लश्कर का गुर्गा थी और उसके सावधानी से बनाए गए अभियान का अहम हिस्सा थी। इस अभियान की कडि़यां पाकिस्तान से दुबई, कोच्चि, कश्मीर औोर अंतत: अहमदाबाद तक पहुंचती हैं।'' पिल्लै, इब्राहिम और राजिंदर कुमार ने भी इसकी पुष्टि की। भरोसेमंद खुफिया सूत्र बताते हैं कि इशरत दो पाकिस्तानी आतंकियों—अमजद अली तथा जीशान जौहर और मुंबई के जावेद शेख उर्फ प्रणेश पिल्लै वाले लश्कर के उस चार सदस्यीय मॉड्यूल का हिस्सा थी जिसे गुजरात में वरिष्ठ राजनीतिक नेताओं—राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी और तत्कालीन उप-प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी का 'खात्मा करने' का काम सौंपा गया था। गुप्तचर संस्थाओं ने फरवरी और जून 2004 के बीच इस समूह की गतिविधियों पर इलेक्ट्रॉनिक जासूसी समेत दूसरी निगरानी के बाद सावधानीपूर्वक अपनी रणनीति बनाई थी। इन चारों आतंकियों के गुजरात में पहुंचने तक वे खुफिया एजेंसयिों की निगरानी में थे। अंतत: 15 जून, 2004 को अहमदाबाद के बाहरी इलाके में उनको चुनौती दी गई और मुठभेड़ में उनका खात्मा कर दिया गया। एक समाचार चैनल ने इस मुठभेड़ की फोरेंसिक जांच करने वाली दो प्रतिष्ठित संस्थाओं—अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एआईआईएमएस) और सेंट्रल फोरेसिंक साइंस लेबोरेटरी (सीएफएसएल) की घटनास्थल की जांच-पड़ताल के बाद तैयार हुई जो रिपोर्ट उजागर की उसमें एकमत से स्वीकार किया गया कि गुजरात पुलिस ने कोई 'फर्जी मुठभेड़' नहीं रची, बल्कि मुठभेड़ असली थी। लेकिन वर्मा के नेतृत्व वाली एसआईटी ने फोरेसिंक रिपोर्ट को कोई महत्व नहीं दिया। अब ताजा खुलासे दिखाते हैं कि यूपीए सरकार ने गलत उद्देश्यों के चलते इशरत को 'मासूम शिकार' के तौर पर प्रचारित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
राजेन्द्र कुमार:- आईबी के इस पूर्व विशेष निदेशक को इस कारण परेशानी झेलनी पड़ी क्योंकि तत्कालीन सरकार अपने सबसे बड़े प्रतिद्वद्वी, नरेंद्र मोदी को फंसाना चाहती थी। वे मुठभेड़ के दौरान गुजरात आईबी के प्रमुख थे और अपनी बात सार्वजनिक रूप से रखते हैं। उन्होंने हाल ही में एक समाचार एजेंसी से कहा, ''सेवानिवृत्ति के बाद अच्छे पद का लालच दिया गया। लेकिन मैंने कहा कि झूठे सुबूत नहीं दूंगा। वे चाहते थे कि मैं ऐसा बयान दे दूं जिससे गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री, जो तब यूपीए सरकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती के तौर पर उभर रहे थे, फर्जी मुठभेड़ मामले में फंस जाएं।''
सतीश वर्मा:- संदिग्ध कार्यकाल वाले एसआईटी प्रमुख। गुजरात के पुलिस अधिकारी जिन पर बाद में गुजरात सरकार ने जूनागढ़ पुलिस ट्रेनिंग कॉलेज में नियुक्ति के दौरान अनुपस्थित रहने पर आरोप पत्र दायर किया।
1996 में पोरबंदर में हुई मुठभेड़ की जांच के लिए राज्य सरकार ने 2012 में गुजरात उच्च न्यायालय के आदेश पर एक विशेष जांच दल बनाया। वर्मा तब वहां पुलिस अधीक्षक थे। जांच में मुठभेड़ फर्जी पाई गई। वर्मा को जासू गगन नामक एक व्यक्ति को मुठभेड़ में मार डालने का जिम्मेदार ठहराया गया था। लेकिन उन्होंने इसे चुनौती दी, फिलहाल मामला सवार्ेच्च न्यायालय में है। वर्मा के पोरबंदर के पुलिस अधीक्षक रहते हिरासत में मौत के तीन मामले हैं। वर्मा पर कथित तौर पर विस्फोटकों की तस्करी के तंत्र से जुड़ने के भी आरोप लगे।1993 में गोसाबारा में आरडीएक्स, जिसका इस्तेमाल बाद में मुंबई विस्फोटों में हुआ, उतारने के प्रमुख आरोपी को छोड़ देने के मामले में उनके विरुद्ध विभागीय जांच बैठाई गई। गुजरात उच्च न्यायालय की खंडपीठ ने उनकी यह दलील ठुकरा दी कि इशरत जहां मामले में अलग रुख रखने के कारण राज्य सरकार उनके पीछे पड़ी है।
साजिश के पीछे कौन
लेकिन इस षड्यंत्र के पीछे कौन है? अकेले चिदंबरम या उनसे भी ऊपर कोई? क्या इस मामले में चिदंबरम किसी के हाथ की कठपुतली थे? जैसे-जैसे साजिश की शक्ल सामने आ रही है थरथराहट दिखने लगी है। केवल समय ही बताएगा कि 'फर्जी मुठभेड़' के तौर पर प्रचारित इस षड्यंत्र का असली खिलाड़ी कौन है।
'हलफनामा उच्च स्तर पर बदला गया' : पिल्लै
पूर्व गृह सचिव जी. के. पिल्लै ने खुलास्
ाा किया है कि राजनीतिक स्तर पर कोई ऐसा था जो नहीं चाहता था कि असली तस्वीर सामने आए। उनका कहना था कि गृह मंत्रालय ने इस मामले में गुजरात हाइकोर्ट में जो दो हलफनामे दाखिल किए थे वे आपस में विरोधाभासी थे। पिल्लै ने कहा, ''पहले हलफनामे में लिखा था कि (जो लोग मारे गए) वे लश्कर के गुर्गे थे, जबकि दूसरे हलफनामे में उस बात को हटा दिया गया था।'' उनका कहना था कि यह काम उच्च राजनीतिक स्तर पर किया गया था। दोनों हलफनामे जब दायर किए गए तब चिदंबरम गृह मंत्री थे। पिल्लै ने कहा कि ''वह एक सफल गुप्तचर अभियान था। हम लश्कर को उनके शूटर भारत में भेजने के लिए ललचाने और भारत में उनके पहुंचने पर उनकी गतिविधियों की निगरानी कर उन्हें दबोचने में सफल रहे। वह एक सुनियोजित गुप्तचर अभियान था, जैसा दुनिया भर की गुप्तचर संस्थाएं चलाती हैं। हम लश्कर के सूत्रों का ही इस्तेमाल कर रहे थे और जानकारी आगे भेजने में सफल हो रहे थे। यह जानना हमेशा सबसे अच्छा होता है कि आपका दुश्मन कब आ रहा है, न कि गौण खुफिया जानकारी का इंतजार करना जहां आपकी जानकारी के बिना कोई कुछ कर जाए।'' उन्होंने कहा कि इसमें शक नहीं कि मुठभेड़ में मारे गए लोग लश्कर से जुड़े थे। पिल्लै ने कहा, ''वे (इशरत समेत चारों) लश्कर के सक्रिय सदस्य थे।''
'मुझे यातना दी गई': मणि
गृह मंत्रालय में पूर्व अवर सचिव (आंतरिक सुरक्षा) आर.वी.एस मणि का कहना है कि इशरत से जुड़े दूसरे हलफनामे में बदलाव ''तत्कालीन यूपीए सरकार ने राजनीतिक स्तर पर किए थे'' और दूसरे हलफनामे पर दस्तखत करने के लिए उनको 'यातना' दी गई। पूर्व गृह सचिव आर.के. सिंह ने उनकी बातों की पुष्टि की है। दोनों हलफनामे मणि के हस्ताक्षर से ही दाखिल किए गए गए थे। उनकी मानें तो एसआईटी के प्रमुख सतीश वर्मा ने उन्हें सिगरेट से जलाया था। सरकार उन्हें रबर स्टाम्प की तरह इस्तेमाल करना चाहती थी। यूपीए सरकार ने इस मामले में दो हलफनामे दायर किए। 6 अगस्त, 2009 को दायर पहले हलफनामे में भरपूर खुफिया सुबूतों के साथ इशरत सहित मुठभेड़ में मारे गए चार लोगों को लश्कर का आतंकी निरूपित किया गया। मणि कहते हैं कि उसे उन्होंने लिखा और वह पुख्ता 'तथ्यों पर आधारित' था जबकि महीने भर बाद, 29 सितंबर, 2009 को दायर दूसरा हलफनामा किसने तैयार किया, इस पर मणि ने चिदंबरम का नाम तो नहीं लिया पर इतना जरूर कहा कि सबसे ऊपर होते हैं गृह सचिव, उनसे ऊपर मंत्री। अगर गृह सचिव ने तैयार नहीं किया तो जाहिर है, ऐसा उनके भी 'ऊपर' से किया गया। उन्होंने कहा, ''वर्मा सुबूत नहीं जुटा रहे थे, वे तो सुबूत गढ़ रहे थे।''
'कोई सुबूत नहीं': वर्मा
सतीश वर्मा मणि के सारे आरोपों को गलत और आधारहीन बताते हैं। उन्होंने कुछ समाचारपत्रों और चैनलों से कहा, ''यह सब मामले को कमजोर करने और कई लंबित आरोप पत्रों से ध्यान भटकाने के लिए किया जा रहा है। यातना दिए जाने के भी कोई सुबूत नहीं हैं। पुलिस जब गवाहों के बयान दर्ज करती है तो उनके दस्तखत नहीं लेती। मणि भी गवाह थे इसलिए उन पर दस्तखत करने का दबाव बनाने का सवाल ही नहीं उठता। सीबीआई किसी को यातना नहीं देती। मणि ने जो आरोप मुझ पर लगाया है अगर मैंने वैसा किया होता तो कानून के तहत वह जुर्म होता। वे सरकारी अफसर के नाते मेरे खिलाफ कानूनी कार्रवाई कर सकते थे। सीबीआई ऐसा गलत व्यवहार बर्दाश्त नहीं करती, वह भी कार्रवाई कर सकती थी। इसलिए सारे आरोप निराधार हैं।'' वे कहते हैं, ''जहां तक मुझे मालूम है, उन्होंने हलफनामे में जरूरत से ज्यादा बातें लिख दी थीं। अगर दूसरे में वे बदल दी गईं तो वह बदलाव सही था क्योंकि पहले में ऐसी बातें लिखी थीं, मानो वे ही जांच अधिकारी हों।''
घटनाक्रम
15 जून, 2004 : अहमदाबाद के बाहरी इलाके में हुई एक मुठभेड़ में इशरत जहां और तीन अन्य आतंकी मारे गए।
अगस्त, 2010: गुजरात हाईकोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त पूर्व सीबीआई प्रमुख आरके राघवन की अगुआई वाले विशेष जांच दल को मामला अपने हाथ में लेने को कहा।
सितंबर, 2010: हाईकोर्ट ने एक नई एसआईटी का गठन किया। वरिष्ठ आईपीएस करनैल सिंह इसके पहले प्रमुख थे, लेकिन बाद में उन्होंने इसे छोड़ दिया। उनके बाद सत्यपाल सिंह और जेबी रामडू प्रमुख बने।
नवम्बर, 2010: सुप्रीम कोर्ट ने नई एसआईटी बनाने के हाईकोर्ट के आदेश को चुनौती देने वाली गुजरात सरकार की याचिका खारिज की।
जुलाई, 2011: एसआईटी का नया प्रमुख नियुक्त किया गया।
नवम्बर, 2011: इस एसआईटी ने अदालत को बताया कि मुठभेड़ फर्जी थी। अदालत की खंडपीठ ने मुठभेड़ में शामिल 20 अधिकारियों के विरुद्ध धारा 302 के तहत नई एफआईआर दर्ज करने का आदेश दिया। इसी महीने सीबीआई ने राजस्थान पुलिस के चार लोगों को गिरफ्तार किया।
दिसंबर, 2011: हाईकोर्ट ने सीबीआई जांच का आदेश दिया।
फरवरी, 2013: सालभर की जांच के बाद सीबीआई ने गुजरात के आईपीएस जीएल सिंघल और दो अन्य अधिकारियों जेजी परमार और तरुण बारोट को गिरफ्तार किया। ये मुठभेड़ के लिए बनी टीम के सदस्य थे।
जुलाई, 2013: सीबीआई ने मुठभेड़ को फर्जी बताते हुए पहला आरोप पत्र दाखिल किया।
फरवरी, 2014: सीबीआई ने पूरक आरोप पत्र दाखिल कर आईबी के चार अधिकारियों को षड्यंत्र में शामिल बताया।
फरवरी, 2016: पाकिस्तानी-अमेरिकी आतंकी डेविड हेडली ने इशरत जहां को लश्कर की एक फिदायीन बताया।
'तथ्यों पर संदेह की वजह नहीं': जैन
15 जून, 2004 को हुए इशरत जहां मुठभेड़ मामले में गृह मंत्रालय में पूर्व संयुक्त सचिव ए. के. जैन ने दूसरे हलफनामे की जरूरत पर ही सवाल खड़ा किया। कुछ समाचार चैनलों से बातचीत में उन्होंने कहा कि गुजरात सरकार और आईबी द्वारा इस मामले में दिए गए तथ्यों पर संदेह की कोई वजह नहीं है। जैन मंत्रालय में देश भर में सांप्रदायिकता से जुड़े मामलों पर नजर रखते थे। वे बताते हैं कि स्पष्ट रिपोर्ट थी कि इशरत जिस गुट से जुड़ी थी उसके आतंकी समूहों से संबंध थे।
'चिदंबरम का जरूर कोई एजेंडा रहा होगा': सुधीर कुमार
आईबी के पूर्व विशेष निदेशक सुधीर कुमार ने कहा है कि इस मामले को 10-12 साल तक घसीटा जाना दुर्भाग्यपूर्ण है। लेकिन उन्हें इस बात में जरा भी शक नहीं है कि अहमदाबाद में खत्म किया गया गुट लश्कर-ए-तैयबा का एक मॉड्यूल था। उन्होंने समाचार चैनलों से कहा, ''ऐसे तत्व थे जो भारत में खास तौर पर दाखिल कराए गए थे। महीनों तक उन पर निगरानी रखने से उनकी मंशा, उनकी साजिश और उनकी योजना के बारे में साफ संकेत उभरे थे। 2001-2004 के दौर में लश्कर भारत को एक बड़े षड्यंत्र का निशाना बना रहा था। उसके निशाने पर वीआईपी थे। गांधीनगर के अक्षरधाम की घटना देखी जा सकती है। इसके अलावा महाराष्ट्र, गुजरात और दिल्ली सहित कई राज्यों की पुलिस ने बहुत से दूसरे मॉड्यूल खत्म किए थे। तमाम सबूतों, जानकारियों को जुटाने के बाद गुजरात पुलिस को कार्रवाई का जिम्मा सौंप गया। उन्होंने उस पर काम किया और उसे अंजाम दिया। हमारी जानकारी की सचाई पर मुझे रत्ती भर भी संदेह नहीं है। यादि आप अपनी गुप्तचर एजेंसियों पर ही भरोसा नहीं करते तो कोई आपकी मदद नहीं कर सकता।''
चिदंबरम द्वारा आईबी की कुछ जानकारी को भरोसेमंद न मानने की बात पर वे कहते हैं, ''अगर गृह मंत्री या जो भी अधिकार प्राप्त है वह एजेंसी की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े करने का फैसला करता है तो.. .मैं उससे सहमत नहीं हो सकता। अगर चिदंबरम ने इसे बहुत बलपूर्वक कहा है तो मुझे लगता है, उनका जरूर कोई एजेंडा है जिसके बारे में मुझे जानकारी नहीं है।''
उनके मुताबिक हलफनामे में हुए बदलाव के लिए संबंधित व्यक्ति को ही जवाब देना चाहिए….कुछ चीजंे बड़े तरीके से की गईं….एनआईए जैसी जांच, जिसके लिए जांच करने वाले अमेरिका तक गए, आईबी की रिपोर्ट में छेड़छाड़ करके अगर चीजों को हल्का किया गया है, जैसे इशरत सहित पूरे गुट का लश्कर से संबंध, और तो मंशा स्पष्ट है, ऐसा अदालत को प्रभावित करने के लिए किया गया होगा उस हद तक जिस तक कुर्सी अपना असर दिखा सकती थी। '' मुठभेड़ के 'फर्जी' होने के आरोपों पर वे कहते हैं कि आईबी की जानकारी एकदम सही थी। यदि कोई इस पर सवाल करता है तो वे उसका विरोध करते हैं। वे कहते हैं, ''आरोपियों के बचाव में राजनैतिक षड्यंत्र चल रहा था जो बहुत दुर्भाग्यजनक है। जांच और उसके नतीजों को प्रभावित करने की कोशिश थी।''
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