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लगातार दो सालों से पड़ रहे सूखे से खेती से होने वाली आय में लगातार गिरावट दर्ज की गई जिससे राजग सरकार के पहले दो वर्षों में कृषि विकास दर सीधे दो प्रतिशत नीचे चली गई थी। समूचे परिदृश्य में गिरती विकास दर केवल एक मापदंड थी जहां ग्रामीण व्यथा स्पष्ट रूप से उभर रही थी।
जानकार मानते थे कि बिहार चुनाव में पराजय, गुजरात, मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र के स्थानीय चुनावों में अपेक्षाकृत कमतर प्रदर्शन के लिए ग्रामीण भारत में पसरी व्यथा और बढता संकट भी एक बड़ा कारण रहा।
खेती से कमाई कम हुई और इससे ट्रैक्टर, मोटरसाइकिल और तेजी से बिकने वाली उपभोक्ता वस्तुओं की बिक्री भी कम हो गई, जो ग्रामीण क्षेत्रों के विकास के महत्वपूर्ण घटक माने जाते हैं। देश का लगभग 40 फीसदी हिस्सा गंभीर सूखे की चपेट में था जिसमें महाराष्ट्र और पंजाब की स्थिति बेहद खराब थी। कुल मिलाकर, भारत की खेती-किसानी खस्ताहाल थी, पंजाब में सफेद मक्खी का संकट, उत्तर प्रदेश में गेहूं को नुकसान, तेलंगाना में तंबाकू की कीमतों का गिरना, केरल में रबर में मंदी, देश के बड़े हिस्से में किसानों के हालात बिगड़ रहे थे। किसान आत्महत्या के मामले बढ़ रहे थे, जिसे लेकर विपक्ष को आरोप लगाने का मौका मिल गया था कि राजग सरकार को किसानों के बजाय केवल कॉपोर्रेट सेक्टर की मदद करने में ज्यादा दिलचस्पी है। हालांकि ऐसा नहीं कि किसान आत्महत्याएं पहले से नहीं हो रही थीं और बार-बार सूखे की परिस्थितियां भारत में पहले कभी हुई ही नहीं, लेकिन पिछले दो साल में ये कुछ अलग थीं। यह स्थिति विश्व भर में सामान की कीमतों में भारी मंदी के कारण उपजी थी, जिसका व्यापक असर भारतीय बाजारों पर भी पड़ा। निर्यात किया जाने वाला माल जैसे चावल, चीनी, कपास, रबर, खाने के तेल आदि की कीमतों में भी भारी गिरावट आई। एक औसत किसान के लिए केवल अपनी उपज का उचित मूल्य ही एकमात्र विकल्प होता है जो सूखे या फिर फसलों के नुकसान से उसकी भरपाई कर सकता है।
चावल और गेहूं जैसे मुख्य अनाज के लिए बढ़ाया गया न्यूनतम समर्थन मूल्य 10 फीसदी से कम रहा, हालांकि दलहन और तिलहन के लिए ये बढ़ोतरी पर्याप्त थी। लेकिन सुगठित खरीदी तंत्र के अभाव में इस बढ़ोतरी का कोई फायदा नहीं मिल रहा था। महाराष्ट्र, जहां कुछ समय पहले भाजपा अपने सहयोगी दलों के साथ भारी बहुमत से जीती थी, वहां स्थानीय निकाय चुनाव में अपेक्षा से कम प्रदर्शन से जाहिर हुआ कि बयार किस तरह सत्तारूढ़ दल के विरुद्ध बह सकती थी। केंद्र सरकार ने फसल के नुकसान के लिए न सिर्फ मुआवजा बढ़ाया बल्कि कम बारिश के प्रभाव का आकलन करने के लिए दल भी तुरंत भेजे. इसके साथ ही शीघ्र मुआवजे की घोषणा भी की, जो पिछले साल की तुलना में ज्यादा था। लेकिन किसान की सहयोगी न होने का ठप्पा फिर भी नहीं हटा।
इन सारी परिस्थितियों में 2016-17 के बजट से बहुत उम्मीदें लगाई जा रही थीं। मोदी सरकार के शासन के तीसरे साल में इसे उनकी कार्यप्रणाली को सुधारने के एक बड़े अवसर के रूप में देखा जा रहा था जो 2017 में उत्तर प्रदेश के चुनावों की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण था।
वास्तव में, औपचारिक बजट से हफ्तों पहले सत्ता के गलियारों में हलचल थी कि बजट 2016-17 कॉपोर्रेट सेक्टर के लिए मनभावन नहीं होगा। चार चीजें जो सामने आईं वे थीं— कि सिंचाई, फसल बीमा, ग्रामीण सड़कों व बिजली और रोजगार योजनाओं पर खर्च बढ़ाया जाएगा। एक चर्चा यह भी थी कि कृषि मंत्रालय के बजट में कम से कम 20 प्रतिशत की वृद्धि हो सकती है, जबकि सिंचाई पर खर्च बढ़ाया जा सकता है। कुछ समय पहले तक लगभग घिसट रही प्रधानमंत्री सड़क योजना और मनरेगा पर आवंटन बढ़ाए जाने की उम्मीद थी। विनिर्माण (मैन्युफैक्चरिंग) सेक्टर में प्राण फूंकने के लिए सार्वजनिक खर्च में वृद्धि किए जाने की जरूरत थी। और ऐसा ग्रामीण क्षेत्र की मजबूती से संभव था जहां आय बढ़ने से खरीदारी भी बढ़ती और इससेे मैन्युफैक्चरिंग को गति मिलती। इस मामले में 2016-17 के बजट ने बिल्कुल निराश नहीं किया, हालांकि कुछ वादों और आश्वासनों को पूरा करना एक बड़ी चुनौती है।
बजट
बजट में कृषि मंत्रालय व किसानों के कल्याण लिए दी गई राशि में जबरदस्त 94 प्रतिशत की वृद्धि की गई है जिसमें छोटी अवधि के फसल ऋण के ब्याज के रूप में हस्तांतरित किए गए 15,000 करोड़ रुपए भी शामिल हैं। इससे पहले यह राशि वित्त मंत्रालय के बजट का हिस्सा होती थी।
कृषि ऋण अनुदान को घटाने पर दी गई कुल राशि की बढ़त करीब 30 प्रतिशत रहती है, लेकिन यह रकम भी कम नहीं होती। बढ़ाई गई राशि से ज्यादा महत्वपूर्ण थी सरकार की भाषा, तेवर और दिशा जो कि गरीबोन्मुखी थी और इसी ने सबका ध्यान आकर्षित किया। बजट में इस बात का वादा किया गया है कि अगले 6 वर्षों में यानी सन् 2022 तक किसानों की आमदनी दोगुनी हो जाएगी।
जेटली, जो लगातार किसानों को 'भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़' बता रहे थे, यहीं नहीं रुके। उन्होंने पहली बार सभी करयंोग्य सुविधाओं (सर्विसेज) पर 0.5 प्रतिशत किसान कल्याण अधिभार लगाने की व्यवस्था की, इससे करीब 5,000 करोड़ की राशि इकट्ठा होने का अनुमान है।
वित्त मंत्री ने संसद में कहा कि, ''हमें खाद्य सुरक्षा से आगे बढ़कर हमारे किसानों के लिए आमदनी की सुरक्षा की व्यवस्था करनी होगी। इसीलिए सरकार किसानों की आय सन् 2022 तक दोगुनी करने के उद्देश्य से खेती और गैर-खेती वाले क्षेत्र में अपने दखल की दिशा फिर से तय करेगी।'' टैक्स चोरों को भी नहीं बख्शा गया। उनकी अघोषित आय पर 7.5 प्रतिशत सरचार्ज लगाने का फैसला किया गया। इससे मिलने वाली राशि का इस्तेमाल भी किसानों के कल्याण के लिए किया जाएगा।
उन्होंने प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के माध्यम से भारत में उत्पादित और तैयार किए गए खाद्य पदार्थों के वितरण में एफओपीबी के माध्यम से 100 प्रतिशत विदेशी निवेश की अनुमति भी दी जिससे छोटे किसानों को फायदा होगा, विदेशी कंपनियां भारत से सीधे कच्चा माल खरीदकर उनसे उत्पादन भी यहीं कर सकेंगी।
इसके साथ ही संसद में रखे गए आर्थिक सर्वेक्षण 2015-16 के एक सुझाव पर अमल करते हुए वित्त मंत्री ने प्रीायोगिक तौर पर कुछ जिलों में खाद पर दी जाने वाली सब्सिडी के प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण (डीबीटी) का भी निर्णय लिया है। इसके अतिरिक्त वित्त मंत्री ने यह भी घोषणा की कि अगले तीन वर्षों में खाद कंपनियों की 2,000 मॉडल खुदरा दुकानें खोली जाएंगी जहां मिट्टी और बीज की जांच की सुविधा भी उपलब्ध होगी। मिट्टी स्वास्थ्य कार्ड योजना के लिए वर्ष 2015-16 के 200 करोड़ रु. के मुकाबले इस साल 368 करोड़ रु. दिए गए हैं। जेटली के भाषण का एक बड़ा हिस्सा सरकार की उन योजनाओं को समर्पित था जिनके तहत दीर्घकाल में भारतीय कृषि को अकालमुक्त किया जाना है।
हालांकि आवंटित की गई बड़ी राशि वर्तमान में चल रही सिंचाई योजनाओं को पूरा करने पर खर्च की जाएगी और उनका लाभ कुछ समय बाद ही मिल पाएगा लेकिन यह निश्चित रूप से अच्छी शुरुआत है। त्वरित सिंचाई लाभ कार्यक्रम (एआइबीपी) के अंतर्गत लटक रहीं करीब 89 सिंचाई योजनाओं को अगले वित्तीय वर्ष में तेजी से पूरा किया जाएगा। इससे 80.6 लाख हेक्टेयर खेती की सिंचाई में मदद मिलेगी। जेटली ने कहा कि इन योजनाओं के लिए अगले वर्ष 1,7000 करोड़ रु. और अगले 5 सालों में 86,500 करोड़ रुपयों की जरूरत पड़ेगी। सरकार इनमें से 23 योजनाओं को 31 मार्च 2017 के पहले पूरी करने का बंदोबस्त करेगी। कृषि पंप बनाने के सामान पर उत्पाद शुल्क तथा नहरों और बांधों के निर्माण व रखरखाव पर सर्विस टैक्स या तो कम किया गया या फिर खत्म कर दिया गया। जेटली ने 20,000 करोड़ रु. की शुरूआती राशि से नाबार्ड में दीर्घावधि का कृषि सिंचाई फंड शुरू करने की भी घोषणा की।
महत्वाकंक्षी प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना (पीएमकेएसवाई) का क्रियान्वयन तेजी से और लगातार किया जाएगा। 2016-17 में 28.5 लाख हेक्टेयर भूमि को सिंचाई की परिधि में लाया जाएगा। केंद्र ने योजनाओं पर 12,517 करोड़ रु. खर्च करने का फैसला किया है जिसमें से 5,717 करोड़ रु. बजटीय प्रावधानों से तथा बाकी बाजार से लिए जाएंगे।
इसके अलावा 2016-17 में भूमि जल संवर्धन के निरंतर प्रबंधन के लिए 6,000 करोड रु. की राशि से एक नई योजना शुरू होगी। इसके लिए विभिन एजेसियों के माध्यम से राशि जुटाई जाएगी। केंद्र ने 2016-17 में महात्मा गांधी नरेगा कोष से खेतों के लिए पांच लाख पोखर-तालाब और जैविक कंपोस्ट के 10 लाख गड्ढ़े बनाने की योजना बनाई है, इससे सिंचाई में मदद मिलेगी।
गैर-खेती वाले ग्रामीण सेक्टर के लिए वित्त मंत्री ने महात्मा गांधी नरेगा स्कीम के लिए 2015-16 के मुकाबले करीब 11 प्रतिशत की वृद्धि की है। यह एक उल्लेखनीय कदम है।
ग्रामीण इलाकों के लिए कुल बजट प्रावधानों को 79,526 करोड (2015-16 के बजट अनुमानों) के मुकाबले बढाकर इस वर्ष (2016-17 में) 87,765 करोड़ रु. किया गया है जो पिछले वर्ष के प्रावधानों की तुलना में 10 प्रतिशत से भी ज्यादा है। इस वर्ष के बजट में ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सुधारने के लिए कई अन्य योजनाओं का भी प्रावधान है। देश के सभी गांवों में बिजली पहुंचाने के लिए 8,500 करोड़ रु. का प्रावधान किया गया है। देश के करीब 13,500 गांवों में अभी भी बिजली नहीं पहुंची है। सरकार का इन सभी में मई 2018 तक बिजली पहुंचाने का लक्ष्य है। बजट में डिजिटल लिट्रसी मिशन (डिजिटल साक्षरता) पर भी जोर है। अगले तीन वर्षों में 6.0 करोड़ घरों को इससे जोड़ा जाएगा। सरकार के अनुमान के मुताबिक कुल 16.0 करोड़ ग्रामीण घरों में से 12.0 करोड़ घरों में अभी भी कंप्यूटर नहीं है। इन इलाकों के लोग डिजिटल साक्षरता में पिछड़ रहे हैं। जल्द ही इन लोगों के लिए सरकार एक योजना लाने वाली है।
बजट में भूमि रिकार्डों के कंप्यूटरीकरण का विशेष उल्लेख है। इसके लिए एक समन्वित भूमि प्रबंधन योजना का प्रस्ताव किया गया है और जेटली ने इसके लिए 150 करोड़ रु. का प्रावधान किया है।
ग्रामीण सेक्टर को लक्ष्य बनाकर कुछ खास योजनाएं भी शुरू की जा रही हैं। जैसे महिलाओं के नाम पर दिए जाने वाले ग्रामीण घरेलू गैस कनेक्शनों की योजना में अधिकतर महिलाएं ग्रामीण बीपीएल परिवारों की होंगी। इस साल 2,000 करोड़ रु. की राशि से करीब 1.5 करोड़ घरों में घरेलू गैस कनेक्शन देने का लक्ष्य है। यह योजना अगले दो वर्षों तक चलाई जाएगी और इसमें करीब 5.0 लाख बीपीएस घरों को जोड़ा जाएगा। ग्रामीण इलाकों में स्वयं की अनदेखी किए जाने की भावना के लिए महंगी चिकित्सा व्यवस्था भी एक कारण है। इसलिए सरकार ने प्रत्येक परिवार के लिए 1,00,000 रु. की स्वास्थ्य बीमा योजना शुरू करने की घोषणा की। वरिष्ठ नागरिकों के लिए 30,000 रुपयों के अतिरिक्त कवर की व्यवस्था की गई है। इस साल जेनेरिक दवा की 3,000 दुकानें खोलने की भी योजना है।
हैदराबाद विवि के एक दलित छात्र की आत्महत्या के मामले में सरकार को समाज के कुछ तबकों से आलोचनाओं का सामना करना पड़ा। सरकार ने अनुसूचित जाति एवं जनजाति वर्गों की उद्यमिता को प्रोत्साहित करने के लिए एक अभिनव योजना घोषित की ताकि देश के औद्योगिक पटल पर तेजी से उभरते दलित उद्यमी अपना उद्यम लगाने या उसे बढ़ाने के लिए मदद हासिल कर सकें। जेटली ने कहा, योजना के लिए 500 करोड़ रु. रखे हैं। इसमें बैकों की प्रत्येक शाखा कम-से-कम दो प्रोजेक्टों को मदद देंगी, इनमें से दोनों वर्गों के उद्यमियों के लिए एक-एक योजना होगी। इससे करीब 2.50,000 उद्यमी लाभान्वित होंगे।
कठिनाई
हालांकि बजट की दिशा और सोच को कई वर्गों से सराहना मिली लेकिन इसे आलोचनाओं का सामना भी करना पड़ा है। किसानों की आय को वर्ष 2022 तक दोगुनी करने का फैसला भी इसमें एक है।
विश्लेषक जेटली के पांच वर्षों में किसानों की आय दोगुनी करने के वादे को नहीं पचा पा रहे हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने बजट से ठीक पहले बरेली में हुई किसान रैली में इस बात को उठाया था। किसानों की आय अपने आप में एक विवादास्पद मुद्दा है, क्योंकि इसकी गणना करना जटिल है इसी कारण पूरे देश के किसानों को लेकर एक समान आय श्रेणी इनकम स्लैब तय करना भी कठिन है।
कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि यह आसान है, किसानों की आय ग्रामीण आय के केंद्रीय सांख्यिकी संगठन के आंकड़ों से निकाली जा सकती है या फिर कृषि लागत और मूल्य आयोग द्वारा तैयार उपज की लागत के आंकड़ों से भी उसका आकलन किया जा सकता है। यह जटिल मामला है और आलोचनाओं के लिए खुला है। आंकड़ों के हिसाब से बात करें तो किसानों की आय को दोगुना करने का अर्थ है कृषि और उससे जुड़ी गतिविधियां आगामी कुछ वर्षों में 18 प्रतिशत वार्षिक चक्रवृद्धि दर से बढ़नी चाहिए, जबकि अब तक कृषि में अधिकतम वृद्धि 6-7 प्रतिशत ही हासिल की जा सकी है और इसमें कृषि से जुड़े अन्य क्षेत्र जैसे पशुधन, पशु पालन, डेयरी और मत्स्य पालन भी शामिल हैं। केंद्र के पास इसे लेकर योजना है। सरकार का मानना है कि उत्पादन लागत घटाकर किसानों की आय दोगुनी की जा सकती है। बेहतर सिंचाई की व्यवस्था करके सस्ता पानी उपलब्ध कराना, खाद एवं रसायनों का बुद्धिमत्तापूर्ण इस्तेमाल, बेहतर विपणन सुविधा और न्यूनतम समर्थन मूल्य में सुनियोजित वृद्धि कर लागत कम हो सकती है।
सरकार की सोच है कि एक औसत किसान की फसल की लागत कम कर उसकी आय को बढ़ाया जा सकता है। इससे 2022 तक किसानों की आय को दोगुना करने की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं। लेकिन इसका मुख्य हिस्सा न्यूनतम समर्थन मूल्य है। सत्तारूढ़ दल ने 2014 के चुनाव अभियान के दौरान न्यूनतम समर्थन मूल्य को खेती की लागत से 50 प्रतिशत अधिक बढ़ाने की बात कही थी। वैसे यह एकदम नया विचार भी नहीं है। विख्यात कृषि वैज्ञानिक एम. एस. स्वामीनाथन के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय किसान आयोग ने यह सुझाव यूपीए की पहली सरकार को दिया था लेकिन यूपीए के 10 वर्षों के शासन में इसे अमली जामा पहनाने की कोशिश नही की गई।
दरअसल, अप्रैल 2015 में संसद में पेश रिपोर्ट में कृषि मंत्रालय ने न्यूनतम समर्थन मूल्य फॉर्मूले को इस आधार पर खारिज कर दिया कि गणना के मशीनी तरीके से बाजार बिगड़ सकता है। उसका कहना था कि यह विशिष्ट फसलों के उत्पादन में तुलनात्मक लाभ के सिद्धांत के खिलाफ जाएगा। मंत्रालय का कहना था कि ''लागत के आधार पर न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करने से कृषि क्षेत्र की क्षमता पर बुरा असर पड़ेगा और लागत कम करने के हमारे प्रयासों को धक्का लगेगा।'' हालांकि, लगातार दो साल सूखे और उत्पाद मूल्यों में गिरावट, जिससे ग्रामीण संकट बढ़ा, से यह मांग जोर पकड़ रही है। सरकार को भी यह समझ आ रहा है। लेकिन अतीत में जो कुछ हुआ उसे देखते हुए सरकार के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य को बहुत अधिक बढ़ाना काफी कठिन होगा।
पिछले शीतकालीन सत्र में संसद में पेश एक लिखित बयान के अनुसार, अरहर की अखिल भारतीय वेटेड औसत उत्पादन लागत लागत में 2012-13 से 2015-16 में करीब 17.07 प्रतिशत की वृद्धि हुई। लेकिन इसी अवधि में न्यूनतम समर्थन मूल्य केवल 14.93 प्रतिशत बढ़ा। आंकड़ों से यह भी पता चलता है कि 2012-13 और 2015-16 में मूंग की औसत उत्पाद लागत में 16.41 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई जबकि इस अवधि में न्यूनतम समर्थन मूल्य केवल 5.68 प्रतिशत बढ़ा। वेटेड (भारित) औसत लागत में खेती पर आई लागत और मूल्य आयोग द्वारा निकाला गया परिवार के श्रम का मूल्य भी शामिल है।
इसी आंकड़े से पता चलता है कि 2012-13 से 2015-16 तक गेहूं की अखिल भारतीय भारित औसत उत्पादन लागत में 9.63 प्रतिशत वृद्धि हुई, जबकि न्यूनतम समर्थन मूल्य इसी दौरान 12.96 प्रतिशत बढ़ा। ऐसे में, न्यूनतम समर्थन मूल्य में तीव्र बढ़ोतरी के बिना 2022 तक आय दोगुनी करना या उत्पाद की कीमत में लंबी छलांग लगाना कठिन है। लेकिन सिंचाई के लिए तय किए गए लक्ष्य से काफी उम्मीदें हैं क्योंकि अब तक इसकी स्थिति बड़ी खराब रही है और सिंचाई काफी हद तक राज्य की मर्जी से चलती रही है। उम्मीद है, सिंचाई की महत्वाकांक्षी योजना से 'पर ड्राप, मोर क्राप' की अवधारणा सचमुच साकार हो सकेगी। गांवों के समग्र विकास और किसानों को समर्थ और सक्षम बनाने के विभिन्न उपाय प्रधानमंत्री मोदी के असली भारत का कायाकल्प करने के महत्वाकांक्षी लक्ष्य की बानगी हैं। इसलिए इस बजट को समग्र विकास के अभियान का पहला कदम माना जा रहा है। -पाञ्चजन्य ब्यूरो
यह गांव गरीब और किसान का बजट है। खास ध्यान देश में गुणवत्तापूर्ण परिवर्तन पर है। इस से आम लोगों के जीवन में बड़ा बदलाव आएगा।
– नरेन्द्र मोदी, प्रधानमंत्री
आजादी के बाद यह पहली बार है कि कोई बजट खास तौर से किसानों, गरीबों के लिए बनाया गया है।
– राधामोहन सिंह, कृषि मंत्री
बजट के फायदों को सूट-बूट वाले लोगों पर केंद्रित न करके अरुण जेटली ने चतुराई से विपक्ष का काम थोड़ा मुश्किल बना दिया है।
– उमर अब्दुल्ला, पूर्व मुख्यमंत्री जम्मू-कश्मीर
ई-मार्केट -यानी उपज का ठीक दाम
585 थोक बाजारों में किया जाएगा लागू
368- के स्वयं सहायता समूह बनाए जाएंगे जो करेंगे ग्रामीण विकास के लिए काम, सामूहिक रोजगार के नए अवसर होंगे पैदा
कृषि और किसानों के लिए 35,984
जैविक खेती को बढ़ावा देने वाली योजनाओं के लिए 412
0.5% कृषि कल्याण सेस लगेगा कर योग्य सेवाओं पर 1 जून, 2016 से किया जाएगा लागू
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