|
आर. जगन्नाथन
इशरत मामले ने साबित कर दिया कि कैसे एक नेता 'मोदी' के उदय से डरा हुआ था गांधी परिवार
इशरत जहां ''फर्जी मुठभेड़'' मामला: राजनैतिक उद्देश्यों की पूर्ति और मोदी को फंसाने के लिए आइबी को हलफनामा बदलने को विवश किया गया।
पी़ चिदंबरम ने हलफनामा बदलने की बात मान ली। यानी गांधी परिवार ने स्वयं के राजनैतिक अस्तित्व के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा को ताक पर रख दिया।
विभिन्न गैर सरकारी संस्थाओं, अदालतों, यहां तक कि कुछ पत्रकारों तक ने मोदी को घेरने में जिस तरह मदद की, उससे पता चलता है कि कांग्रेस-वामपंथियों का खड़ा किया तंत्र एक खानदान के राजनैतिक हितों को बचाने के लिए किस तरह तेजी से सक्रिय हो जाता है।
पूर्व गृह सचिव जी. के. पल्लिै ने 'टाइम्स नाऊ ' पर माना कि गुजरात में हुई कथित 'फर्जी मुठभेड़' जिसमें इशरत जहां के साथ-साथ लश्कर-ए-तैयबा के चार आतंकवादी मारे गए थे, के मामले में दाखिल हलफनामे को राजनीतिक नर्दिेश पर बदला गया। इससे बवाल खड़ा हो गया। पी़. चिदंबरम एनडीटीवी को दिये इंटरव्यू में इस आरोप को लगभग मान चुके हैं, इससे स्पष्ट हो जाता है कि गांधी परिवार को सन् 2009 से (या उससे भी पहले) ही नरेंद्र मोदी अपने राजनैतिक आधिपत्य के लिए किस सीमा तक चुनौती लगने लगे थे। चिदंबरम ने कहा, ''मूल हलफनामे में लिखा गया कि ए, बी, सी और डी आतंकवादी थे पर आईबी का कहना था कि हम किसी को आतंकी नहीं बता सकते या आतंकी होने का आरोप नहीं लगा सकते…इसलिए उसे स्पष्ट करने को दूसरा हलफनामा दाखिल किया जाना था,'' और वे उस ''फैसले की जम्मिेदारी लेते हैं।''
हलफनामा बदला ही नहीं गया बल्कि इस तरह से बदला गया कि गांधी परिवार के राजनैतिक हितों के लिए राष्ट्र की सुरक्षा ताक पर रख दी गई। हलफनामे में बदलाव दो कारणों से गलत था, भले ही यह दावा सही हो कि गुजरात पुलिस द्वारा मारे गए लोगों की संबद्घता की जानकारी उतनी महत्वपूर्ण नहीं थी जितना यह आरोप कि उन्हें 'नकली मुठभेड़' में मारा गया। पहली बात कि मारे गए व्यक्ति की पहचान 'फर्जी मुठभेेड़' मामले में अंतत: होने वाले फैसले से असंबद्ध नहीं है, खासकर तब जबकि (अभियुक्तों को) सजा हो। मसलन, किसी महिला पर अपने पति की हत्या के आरोप में मुकदमा है। ऐसे में अदालत को यह बताना क्या जरूरी नहीं कि उसे रोजाना पीटा जाता था जिससे हो सकता है, उसने पति की हत्या की हो, और इस तथ्य को प्रमाणित भी किया जा सकता हो? उसी तरह, एक 'फर्जी मुठभेेड़' में मारे गए व्यक्ति की पहचान निरर्थक नहीं है। यदि प्रमाणित कर दिया जाए कि मारे गए लोग राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरा थे तो सजा की स्थिति में अदालत नरमी दिखा सकती है।
दूसरा, यदि पल्लिै की बातों पर भरोसा किया जाए, तो पता लगता है कि इस कार्रवाई से जुड़े राष्ट्रीय सुरक्षा के पहलू को जान-बूझकर दबा दिया गया। हलफनामे के बदले जाने से पहले तक इशरत-लश्कर वाले इस मामले को इंटेलिजेंस ब्यूरो (आइबी) का सफलतम अभियान माना जा रहा था। लेकिन राजनैतिक लाभ के लिए इस सफल ऑपरेशन को आपराधिक कृत्य बना दिया गया। संप्रग ने इससे जुड़े आइबी अधिकारियों को आरोपी बना दिया। यदि देश के गोपनीय तंत्र को राजनैतिक स्वार्थ की बलि चढ़ाया जाने लगा तो गांधी परिवार या जिनके हितों के लिए भी ऐसा किया गया, उन पर राजनैतिक शत्रुओं को ठिकाने लगाने के लिए राष्ट्रीय हितों को ताक पर रखने का आरोप लगाया जा सकता है।
यह महत्वपूर्ण है कि गांधी परिवार की अगुआई वाली यूपीए सरकार ने सरकार और पार्टी की सारी ताकत एक व्यक्ति—नरेंद्र मोदी को नाथ देने और उन्हें गांधी परिवार के राजनैतिक आधिपत्य को चुनौती देने से रोकने के लिए झोंक दी, इशरत जहां मामले में हलफनामे का बदला जाना इसमें सबसे दुष्टतापूर्ण कार्रवाई थी।
कुछ बातों के आधार पर माना जा सकता है कि सन् 2004 का चुनाव जीतते ही संप्रग ने मोदी को घेरने के प्रयास शुरू कर दिए थे:
1़ यू.सी. बनर्जी के नेतृत्व में यूपीए ने गोधरा में अयोध्या से लौट रहे रामभक्तों से भरे रेल डब्बिे को आग लगाकर फूंक देने के मामले की जांच के लिए एक अवैधानिक पैनल बनाया। गोधरा के बाद ही गुजरात में सांप्रदायिक दंगे भड़के। इसी बीच पैनल ने रिपोर्ट लीक कर दी जिसमें दावा किया गया कि गोधरा की आगजनी 'दुर्घटना' थी। हालांकि ये रिपोर्ट कभी सामने नहीं आ पाई क्योंकि घटना की जांच के लिए बने नानावटी आयोग ने इस तथ्य की पुष्टि की कि ट्रेन में आग षड़्यंत्र के तहत लगाई गई।
2़ विभन्नि ईसाई संगठनों और गैर सरकारी संगठनों के बहकावे में आकर अमेरिकी सरकार ने नरेंद्र मोदी के वीसा आवेदन को नामंजूर कर दिया।
3़ यूपीए सरकार ने मोदी के नेतृत्व में गुजरात सरकार की उपलब्धियों को लगातार नकारा। राज्य को नीचा दिखाने के लिए ऐसे सामाजिक मानदंडों को प्रचारित किया गया जिनमें राज्य दूसरों से पीछे था।
4. गुलबर्ग सोसायटी अग्निकांड में मारे गए एहसान जाफरी की पत्नी के माध्यम से सीधे मोदी को फंसाने की कोशिश की गई। घटना के कई साल बाद पुलिस अधिकारी संजीव भट्ट को यह दावा करने के लिए खड़ा किया गया कि मोदी ने गोधरा घटना के बाद फैले दंगों में पुलिस को दखल न देने को कहा था जबकि भट्ट ऐसी किसी बैठक में शामिल नहीं थे और उसमें उनकी उपस्थिति की किसी ने पुष्टि नहीं की। भट्ट की पत्नी ने बाद में कांग्रेस के समर्थन से चुनाव भी लड़ा जिसमें वे बुरी तरह से हार गईं।
मैंने अपनी एक पुरानी पोस्ट में कहीं लिखा है कि किस तरह मोदी को निशाना बनाने के लिए सरकारी संसाधनों का इस्तेमाल किया गया: ''यदि निचली अदालतों में मोदी को फंसाया नहीं जा सकता तो बड़ी अदालतों में कोशिश करो, बड़ी अदालतों में कुछ नहीं हो पाता है तो कोई नई जांच बिठा दो, यदि इससे भी कुछ नहीं निकलता तो फिर से कोर्ट जाकर एसआईटी बनाने की मांग करो। यदि एसआइटी रिपोर्ट से कुछ हासिल न हो तो 'अमिकस क्यूरी' (न्यायालय के परामर्शदाता) की नियुक्ति करवाने की कोशिश करो। उससे काम न बने तो दूसरे मामले में एसआइटी बनवाओ, ये भी काम न करे तो सीबीआई का इस्तेमाल करो।'' यह सब चलता रहा।
5़ इशरत जहां केस इस ढर्रे के अनुकूल था जिसमें सत्तातंत्र की ताकत लगाकर एक व्यक्ति को निशाना बनाया गया। आईबी को बेबस बना दिया गया, राज्य पुलिस के अधिकारियों को कई वर्ष जेल में बिताने पड़े तथा सर्फि मोदी को निशाना बनाने के लिए देश भर में 'फर्जी मुठभेड़ों' के हजारों मामलों में से केवल एक को चुनकर गुजरात पुलिस को बदनाम किया गया।
कांग्रेस पार्टी के वरष्ठि नेताओं ने 'फर्जी मुठभेड़' के हलफनामे से लश्कर का उल्लेख गायब करने का जो नर्णिय लिया, वह गांधी परिवार की इच्छा के बिना संभव नहीं था। मुठभेड़ के इसी मामले में चिदंबरम के दखल देने का क्या मतलब था जबकि उन्होंने ऐसे दूसरे मामलों में कोई रुचि कभी नहीं दिखाई?
6. इसी दौरान कांग्रेस मोदी को घेरने के लिए एक दूसरा हथियार— साांप्रदायिक हिंसा विधेयक लेकर आई जिसका मुख्य उद्देश्य बहुसंख्यक समुदाय को सांप्रदायिक हिंसा के लिए साफ तौर पर दोषी ठहराना था। इसके दो सबसे दुष्टताभरे प्रावधान थे—पहला, सांप्रदायिक रूप से संवेदनशील क्षेत्र को राज्य सरकार के नियंत्रण से बाहर निकालना, और दूसरा, जब कोई सांप्रदायिक मामला हो तो ठीकरा राजनैतिक नेतृत्व पर फोड़ना। यह विधेयक कूड़े में गया क्योंकि दूसरी राज्य सरकारों ने इस असंवैधानिक विधेयक को अपनी कानून-व्यवस्था की शक्तियों में घुसपैठ मानकर इसका विरोध कर दिया।
7. 2012 के गुजरात चुनाव के बाद जब स्पष्ट हो गया कि भाजपा से मोदी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार होंगे, तो कांग्रेस ने अफजल गुरु को फांसी दे दी, यह साबित करने के लिए कि राष्ट्र विरोधियों को फांसी पर चढ़ाने के मामले में वह मोदी से भी अधिक कठोर हो सकती है! फिर गुजरात चुनाव के एक महीने पहले 26/11 हमले के एक जिहादी अजमल कसाब को फांसी दे दी गई। लेकिन पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री और राजीव गांधी की हत्या के आरोपी क्रमश: सिख और तमिल आतंकवादियों की फांसी संबंधित राज्य के राजनैतिक दबाव में टाल दी गई।
8- मोदी के औपचारिक रूप से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनने के बाद दो और मामले उछाले गए। एक था गुजरात की कथित मुठभेड़ जिसमें ''काली दाढ़ी और सफेद दाढी'' का जक्रि आया था, इशारा मोदी और अमित शाह की ओर था तथा दूसरा था, मोदी के नर्दिेश पर शाह द्वारा एक महिला की कथित निगरानी करवाने का मामला। भाजपा विरोधी मीडिया संगठनों ने इसे लेकर गुजरात तथा भाजपा को निशाना बनाया।
यह मोदी को रोकने और फंसाने के लिए अपनाए गए अनगिनत तरीकों की समूची सूची नहीं है, उसकी केवल बानगी भर है।
बात स्पष्ट है: एक राजनैतिक परिवार को लाभ पहुंचाने के लिए एक व्यक्ति के खिलाफ तंत्र की पूरी ताकत लगा दी गई। उनकी कथित चूक ऐसी ही थी जैसी किसी दूसरे राज्य के मुख्यमंत्री की हो सकती है पर निशाने पर मोदी को लिया गया। न्याय का इससे कोई लेना-देना नहीं था। यह कुछ और था, संभवत: एक राजनैतिक खानदान का स्वयं के निरर्थक हो जाने का असाधारण डर।
लेखक स्वराज्य डॉट कॉम के एडिटोरियल डायरेक्टर हैं। यहां व्यक्त विचार लेखक के हैं
टिप्पणियाँ