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वह राष्ट्र जहां राष्ट्रवाद विनष्ट होता है, उसका डूबना निश्चित है — महात्मा गांधी
राष्ट्रीयता की विचारधारा से जुड़ी कडवी विडंबना यह है कि स्वयं राष्ट्रपिता ने नहीं सोचा होगा कि उनकी शहादत के सात दशकों बाद भारत में यह बहस का मुद्दा बन जाएगा। और वह भी देश के 500 विश्वविद्यालयों में से एक के एक छात्र की गिरफ्तारी पर! आज देशभक्ति को सबसे ज्यादा खतरा उनसे है जो गांधी के राष्ट्रवाद की विरासत का दम भरते हैं। कुछ अवसरवादी उदारपंथियों के लिए राष्ट्रवाद ऐसा विशेषण है जिसका उपयोग या दुरूपयोग सीमाविहीन देश की अवधारणा फैलाने के लिए और आजादी का इस्तेमाल भारत के गर्व के प्रतीकों को क्षति पहुंचाने और अपमानित करने के लिए किया जा सकता है। कई नकली उदारपंथी इस मुगालते में हैं कि राष्ट्रवाद बाजार का ऐसा उत्पाद है, जिसे ऊंची बोली लगाने वाले को बेचा जा सकता है। इन्हें समझ नहीं आता कि देश के ज्यादातर नागरिकों के लिए राष्ट्रवाद आस्था का विषय है। भारत का राष्ट्रगान, उसका तिरंगा और उसकी सीमाएं राष्ट्रीयता के तीन आधारभूत स्तंभ हैं जिन पर समझौता नहीं किया जा सकता।
त्रासदी यह कि देश में षड़यंत्रकारियों का ऐसा गिरोह है जिन्होंने अपने राजनीतिक रुझानों के चलते भारत के इन तीन आधारभूत स्तंभों पर विवाद खड़ा कर दिया है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में घटी सवालिया घटनाओं का उद्देश्य भारत की अवधारणा को ध्वस्त करना था। हालांकि भारत जैसे स्वतंत्र राष्ट्र में कन्हैया कुमार के खिलाफ राजद्रोह के अभियोग को संदिग्ध बताकर कोई भी सवाल उठा सकता है। लेकिन इसमें रत्ती भर भी शक नहीं कि विश्वविद्यालय परिसर में किए गए उस आयोजन में 2001 के संसद हमले के षडयंत्रकारी और उस अभियोग में फांसी चढ़ाए गए अफजल गुरु का महिमामंडन किया गया। अफजल गुरु को अचिन्हित कब्र में दफनाने के बाद से बुद्घिजीवियों और उदारवादियों का एक वर्ग भारत और उसके सवार्च्च न्यायिक तंत्र का उपहास उड़ाता रहा है। दरअसल, दुनिया भर में आधुनिक राष्ट्र-राज्यों के अस्तित्व में आने के बाद से विश्वासघातियों का यही हश्र हुआ है। 'अभिव्यक्ति की आजादी' का कोई भी पैरोकार उस राष्ट्रविरोधी कार्यक्रम पर सवाल नहीं उठा रहा है जहां 'भारत की बरबादी' जैसे नारे लगाए गए। इन नव-उदारवादियों में से कई अमेरिका और यूके में शिक्षित हैं। लेकिन इन छद्म-देशप्रेमियों ने कभी सुना कि किसी अमेरिकी या ब्रिटिश संस्थान ने अब्राहम लिंकन, मार्टिन लूथर किंग या जॉन केनेडी के हत्यारों का कभी गुणगान किया? अमेरिकी, रूसी और यूरोपीय फौजें सीरिया, इराक और अन्य स्थानों पर प्रतिदिन सैकड़ों आतंकियों को मार रही हैं, क्यों हमारे इन आधुनिक स्वतंत्रता सेनानियों ने उन पर कभी सवाल नहीं उठाए? अमेरिकी राष्ट्रपति पद का मौजूदा चुनावी प्रचार में देश को आतंकी खतरे से बचाने और एक विशिष्ट समुदाय को अमेरिका में घुसने की इजाजत देने से रोकने की नैतिकता के मुद्दे हावी हैं। कभी किसी अमेरिकी ने अपने राष्ट्रध्वज नहीं रौंदा। उन्होंने हमेशा उसे लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रतीक के रूप में पूरी शान से फहराया है।
कन्हैया कुमार की गिरफ्तारी के खिलाफ विरोध नई दिल्ली तक ही सीमित नहीं रहा। जादवपुर विश्वविद्यालय में और भी बड़ा विरोध प्रदर्शन आयोजित किया गया, जहां भारत विरोधी और अफजल गुरु द्वारा रचे गए कथित 'आजादी' के नारे लगाए गए। यहां तक कि मीडिया संस्थान और पत्रकार भी राष्ट्रवाद और उसके विरोधी खेमों में बंटे दिखे। कई का दावा था कि वह छात्रों के मानस को समझते हैं, जो मूलत: विरोधी प्रवृत्ति का है। लेकिन सच यह है कि आज का भारतीय विद्यार्थी मार्क्स से अधिक एमबीए में रुचि रखता है।
वामपंथियों तथा उदारवादी विदूषकों और भगवा ताकतों के बीच का संघर्ष जेएनयू मुद्दे को विरोध की आवाज दबाने के विलाप में बदलकर राष्ट्रवाद के प्रतीकों को कमजोर करने की एक और कोशिश है। अगर खुफिया एजेंसियों की मानें तो सर्वसमावेशी भारत की अवधारणा, राष्ट्रीय ध्वज और राष्ट्रगान पर और भी हमले हो सकते हैं। केंद्रीय विश्वविद्यालयों में राष्ट्रध्वज फहराने के मानव संसाधन विकास मंत्रालय के निर्देश पर भी कुछ राजनीतिक दलों ने सवाल उठाए हैं। राष्ट्रगान और राष्ट्रध्वज की कल्पना को गांधी, नेहरू, सरदार पटेल और मौलाना आजाद जैसे सच्चे राष्ट्रवादी एवं धर्मनिरपेक्ष नेताओं ने साकार किया था। लेकिन भारत में दोहरी सोच को नैतिक करार दिया जा रहा है।
इस छद्म-उदारवाद के पुनर्जीवन का जिम्मा सत्ता प्रतिष्ठान के कुछ हिस्सों पर भी है। प्रधानमंत्री मोदी के विरोधियों को उनके विशाल कद को संकुचित करने का कुछ सामान भीतर से मिला। मोदी को भारत, तिरंगे और राष्ट्रगान को नव-उदारवादियों के विभाजक एजेंडा से बचाने का मजबूत तंत्र तैयार करना होगा। आखिरकार, राष्ट्रवाद ही उदारवादियों के आरामदेह अस्तित्व के रास्ते का पत्थर है। प्रभु चावलालेखक प्रख्यात पत्रकार और 'द न्यू इंडियन एक्सप्रेस' के संपादकीय निदेशक हैं
साभार : द न्यू इंडियन एक्सप्रेस
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