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आरक्षण पर देश में बना या बनाया गया माहौल चिंताजनक है। इस विषय में एक सवाल बार-बार पूछा जा रहा है कि क्या संविधान के आरक्षण विषयक प्रावधान का पुनरावलोकन होना चाहिए? उत्तर है-हां और ना। क्योंकि मूलत: भारतीय संविधान में आरक्षण का प्रावधान अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति वर्गों के लिए सामाजिक न्याय के तहत किया गया है। सैकड़ों वर्ष तक यह वर्ग सामाजिक न्याय से वंचित, अस्पृश्यता जैसे सामाजिक अन्यायों से जूझता रहा।
इस प्रावधान के पुनर्मूल्यांकन हेतु पूछा जा सकता है कि क्या अनुसूचित जाति एवं जनजाति वर्ग में आने वाले सभी लोगों को इसका समान लाभ मिला है? क्या यह वर्ग शिक्षित हुआ? क्या सामाजिक, न्यायिक सुरक्षा इन तक पहुंची? क्या इन्हें आर्थिक उन्नति के मार्ग पर लाने में समाज एवं शासन सफल हुआ है?
इन सभी प्रश्नों के उत्तर के लिए प्रावधान का पुनरावलोकन नहीं बल्कि उसके क्रियान्वयन के मॉडल और तरीके की समीक्षा होनी चाहिए। जरूरतमंदों तक आरक्षण पहुंचाने की जिम्मेदारी केवल शासन की नहीं है।
सवाल है कि यह आरक्षण कब तक चलेगा? इसका उत्तर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तृतीय सरसंघचालक श्री बालासाहब देवरस ने इन शब्दों में दिया-''जब तक समाज चाहता है तब तक, जब तक वह समाज (एससी/एसटी) खुद आरक्षण को नहीं नकारता तब तक आरक्षण का साधन रहना चाहिए।'' इसमें संदेह नहीं है कि आरक्षण सामाजिक न्याय का प्रावधान है।
पिछले कुछ वर्षों से कई वर्गों के लोगों ने विभिन्न राज्यों में आरक्षण की मांग पर तनाव खड़ा किया है। राष्ट्रीय संपत्ति को नुक्सान पहंुचाया है। देश के लोकतंत्र को झुठलाया है। ऐसे लोगों को अपने समाजों का इतिहास खंगालना चाहिए। उसमें हरियाणा के जाट हों या महाराष्ट्र के मराठा, या अन्य राज्यों का और कोई समाज। ये समाज सामाजिक स्तर पर ऊंची जातियां मानी जाती हैं। स्वतंत्रता के बाद ज्यादातर इन्हीं जातियों के प्रतिनिधियों का शासन रहा है।
इसके बावजूद अगर इस समाज के लोग पिछड़े रहे तो इसका जिम्मेदार किसे ठहराना चाहिए? उनके समाज के बड़े खुद सत्ता भोगते रहे और अपने समाज के लोगों को पिछड़ा बनाए रखा। क्या यह इनका पाप नहीं? क्या इन सत्ताधारियों से इन प्रश्नों का जवाब नहीं मांगा जाना चाहिए? अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने के लिए समाज को भड़काना कहां तक उचित है? हरियाणा का जाट आरक्षण आंदोलन मानो आरक्षण का साधन बन गया था। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय पहले ही जाट आरक्षण को संविधान के परिप्रेक्ष्य में नकार चुका है।
क्या समाज की स्थिति सुधारने का कोई और कोई उपाय नहीं है? उपाय है और समाज ही यह कर सकता है। जैसे, क्षत्रिय समाज ने कभी आरक्षण की मांग नहीं की। उस समाज के उच्च शिक्षित, आर्थिक रूप से सक्षम लोग मिलकर स्कूल-कॉलेज चलाते हैं। उद्योग-व्यवसाय करने के इच्छुक युवाओं को आर्थिक मदद देते हैं। यही उचित मार्ग है अपने समाज को पीडि़त अवस्था से बाहर लाने का।
भारतीय समाज व्यवस्था में तथाकथित उच्चवर्गीय समुदाय भी जब आरक्षण की मांग करता है तो इसका मतलब है कि थोड़ा-बहुत ही सही, पर पिछड़ापन तो है। लेकिन ऐसे में उस वर्ग के समृद्ध लोगों को सहायता का हाथ बढ़ाना चाहिए। गरीबी रेखा से नीचे के वर्ग के लिए सरकारी योजना है, उसका भी लाभ मिल सकता है।
बहरहाल, संवैधानिक ढांचे में फिलहाल 'जाट आरक्षण' के लिए कोई गुंजाइश नहीं दिखती। विशेषज्ञों का मानना है कि यह आंदोलन राजनीति से प्रेरित है। लोग शांति से विचार करें। देश का नुक्सान अपना ही नुक्सान है। इस बारे में शांति से विचार करें। आरक्षण न्याय का मुद्दा है न कि संघर्ष का!
सुवर्णा रावल-लेखिका भटके विमुक्त विकास परिषद
की अध्यक्ष हैं
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