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पिछड़े वर्ग को मिले आरक्षण में अब कुछ ऐसे नए तत्व शामिल होना चाहते हैं जिन्हें पिछड़ा मानने या न मानने को लेकर बहस है। इसके साथ जातिगत पहचान की एक नई राजनीति का उभार हो रहा है। यह पहचान लोकतांत्रिक व्यवस्था में दबाव समूहों के रूप में सामने आ रही है, इस पर विचार जरूरी
हरियाणा के उग्र जाट आंदोलन ने हमें एक ओर आरक्षण की मांग को लेकर नए आंदोलनों पर विचार करने को मजबूर किया है, वहीं यह सोचने का मौका दिया है कि सामाजिक बदलाव के वैकल्पिक रास्ते क्या हो सकते हैं। ये सामाजिक आंदोलन स्थानीय राजनीतिक दलों और समूहों को जन्म दे रहे हैं। तमाम ऐसे राजनीतिक दल खड़े होते जा रहे हैं जो किसी एक समुदाय का प्रतिनिधित्व करते हैं। इसके विपरीत जिन समूहों का नेतृत्व विकसित नहीं हो पाया या जो अपेक्षाकृत छोटे और कमजोर हैं, वे पीछे रह गए हैं।
पिछले साल मार्च में सवार्ेच्च न्यायालय ने जाटों को ओबीसी कोटा के तहत आरक्षण देने के केंद्र के फैसले को रद्द करने के साथ स्पष्ट किया था कि आरक्षण के लिए पिछड़ेपन का आधार सामाजिक होना चाहिए, न कि आर्थिक या शैक्षणिक। अदालत ने कहा कि हालांकि जाति एक प्रमुख कारक है, लेकिन पिछड़ेपन के निर्धारण के लिए यह एकमात्र कारक नहीं हो सकती और जाट जैसी राजनीतिक रूप से संगठित जातियों को ओबीसी सूची में शामिल करना अन्य पिछड़े वगोंर् के लिए सही नहीं है। अदालत की दृष्टि में 'केवल ऐतिहासिक आधार पर फैसले करने से समाज के अनेक पिछड़े वर्ग संरक्षण पाने से वंचित रह जाएंगे, जबकि हमें उन्हें भी पहचानना चाहिए।' अदालत ने 'ट्रांस जेंडर' जैसे नए पिछड़े ग्रुप को ओबीसी के तहत लाने का सुझाव देकर इस पूरे विचार को एक नई दिशा भी दी थी। अदालत ने कहा कि हालांकि जाति एक प्रमुख कारक है, लेकिन पिछड़ेपन के निर्धारण के लिए यह एकमात्र कारक नहीं हो सकती।
सर्वोच्च न्यायालय ने ओबीसी पैनल के उस निष्कर्ष पर ध्यान नहीं देने के केंद्र के फैसले में खामी पाई, जिसमें कहा गया था कि जाट पिछड़ी जाति नहीं है। उस फैसले ने कम से कम राष्ट्रीय राजनीति का ध्यान इस तरफ खींचा था कि आरक्षण के लिए वर्गों का निर्धारण करने के लिए नई सामाजिक सोच तैयार करने का समय आ गया है। इस आरक्षण में अब कुछ ऐसे नए तत्व शामिल होना चाहते हैं जिन्हें पिछड़ा मानने या न मानने को लेकर बहस है। इसके साथ जातिगत पहचान की एक नई राजनीति का उभार हो रहा है। यह पहचान लोकतांत्रिक व्यवस्था में संस्थागत रूप में सामने आ रही है।
जाट आंदोलन की प्रतिक्रिया देश के दूसरे इलाकों में भी हो रही है। राजस्थान के राजपूतों ने भी इसकी मांग की है। उनके संगठन श्री राजपूत करणी सेना ने देशव्यापी आंदोलन शुरू करने की चेतावनी दी है। उसका कहना है कि इस आंदोलन की शुरुआत राजस्थान के अलावा दिल्ली, पंजाब, गुजरात, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, हरियाणा, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में भी की जाएगी। राजस्थान में पूर्ववर्ती अशोक गहलोत सरकार ने ओबीसी आयोग की रिपोर्ट के आधार पर कृषक राजपूत वर्ग को आरक्षण देने का निर्णय किया था। इस सिलसिले में कोई कदम आगे नहीं बढ़ा। पिछले साल अगस्त में गुजरात के पाटीदार आंदोलन ने देश में आरक्षण को लेकर एक नई बहस छेड़ी है। सवाल है कि आर्थिक रूप से समर्थ समुदाय आरक्षण की मांग क्यों करते हैं? राजस्थान में गुज्जर, आंध्र में कापू और महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण की मांगें भी उठी हैं। ये सभी जातियां प्रभावशाली हैं। उन्हें आरक्षण क्यों चाहिए?
हरियाणा के जाट आंदोलन के समानांतर आंध्र में कापू आंदोलन चल रहा है। वे भी ओबीसी के तहत आरक्षण चाहते हैं। कापू समुदाय तेलुगु देशम पार्टी के साथ है। मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू का कहना है, ''मैं कापू समुदाय को आरक्षण देने के लिए प्रतिबद्ध हूं। इसके लिए एक न्यायिक आयोग भी गठित किया जा चुका है।''
कापू भी अपेक्षाकृत प्रभावशाली समुदाय है, जो 1960 तक पिछड़े वर्ग में आता था। सवाल है कि इसे पिछड़े वर्ग की परिभाषा से बाहर क्यों किया गया? अब इसे आरक्षण मिलेगा भी तो उच्चतम न्यायालय के फैसले के मुताबिक 50 फीसदी की कुल सीमा के तहत ही मिलेगा। यानी किसी दूसरे समुदाय के हिस्से में भागीदार होगा। इसकी प्रतिक्रिया दूसरे वर्गों में भी होगी। इस लिहाज से आरक्षण को लेकर किए गए फैसलों का 'चेन रिएक्शन' लाजिमी है।
हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में जाति या समुदाय एक महत्वपूर्ण कारक के रूप में उभरा है। सारे राजनीतिक दल अपनी योजना 'वोट बैंक' के आधार पर बनाते हैं। सवाल है कि हाल के वषोंर् में जो प्रभावशाली जातियां आरक्षण की मांग उठा रही हैं, उनका उद्देश्य क्या है? पर यह भी नजर आता है कि कुछ समुदाय अपने संगठनात्मक कौशल, आर्थिक सामर्थ्य और राजनीतिक सूझबूझ का लाभ लेकर काफी आगे बढ़ जाते हैं। जैसे, तमिलनाडु का वन्नियार समुदाय।
तमिलनाडु के बाहर के लोगों ने 80 के दशक में पहली बार वन्नियार का नाम सुना था। 1980 में गठित वन्नियार संघम ने उस साल चेन्नै में रैली की, जो इतनी जबरदस्त थी कि उस पर काबू पाने के लिए गोलीबारी की नौबत आ गई। यह रैली भी आरक्षण की मांग को लेकर थी।
परंपरागत जातीय पदक्रम में वन्नियार दलितों के ठीक ऊपर माने जाते हैं, पर अब यह वर्ग काफी प्रभावशाली हो चुका है। तमिलनाडु के 29 में से 13 जिलों में इनका प्रभुत्व है। यह जाति राज्य की कुल आबादी का 15 फीसदी है और राज्य के उत्तरी इलाकों में आबादी के एक तिहाई के आस-पास वन्नियार हैं। कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में भी इस जाति के लोग रहते हैं।
आरक्षण की मांग और उसके बाद इसके सामुदायिक उभार के रूप में 1989 में इनका राजनीतिक दल पट्टाली मक्कल काट्ची (पीएमके) एक ताकतवर राजनीतिक शक्ति के रूप में उभरा। इसके संस्थापक एस. रामदास ने 2002 में तमिलनाडु के उत्तरी जिलों का एक अलग राज्य बनाने की मांग भी की थी। अब यह राज्य में डीएमके और अन्नाद्रमुक के मुकाबले की पार्टी के रूप में तैयार हो रहा है।
पिछले तीन-चार दशक में वन्नियार समुदाय का उल्लेखनीय उभार हुआ है। हालांकि 50 फीसदी वन्नियार अब भी खेत मजदूर हैं, पर इस समुदाय पर तमिलनाडु के सामाजिक जीवन में आ रहे बदलाव का सबसे बड़ा प्रभाव पड़ा है। ग्रामीण इलाकों से रेड्डियार, नायडु और मुदलियार अपनी जमीन बेचकर जा रहे हैं। इस जमीन को सबसे ज्यादा वन्नियार खरीद रहे हैं। इन इलाकों में परंपरागत भूस्वामियों का स्थान वन्नियार ले रहे हैं।
देश के दूसरे राज्यों की सामाजिक संरचना का बारीकी से अध्ययन किया जाए तो वहां भी हमें ऐसे बदलाव देखने को मिलेंगे। वन्नियार स्वाभिमान की तरह ये जातियां भी राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक पहचान के साथ सामने आ रही हैं। जाट, गुर्जर, राजपूत, मराठा और कापू का राजनीतिक समूहों के रूप में उभरना एक नई राजनीति का संकेत है। इसके राजनीतिक व सामाजिक निहितार्थ पर हमें गंभीरता से विचार करना चाहिए।
भारतीय संविधान धर्म, प्रजाति, जाति, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर व्यक्ति के साथ भेदभाव न होने देने के लिए कृत संकल्प है। संविधान के 14 से 18 अनुच्छेद समानता पर केंद्रित हैं। जातिगत आरक्षण के बारे में संवैधानिक व्यवस्था की जरूरत तब पड़ी जब मद्रास राज्य बनाम चम्पकम दुरईराजन मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने सरकारी आदेश को रद्द कर दिया। इसके बाद संविधान के पहले संशोधन में अनुच्छेद 15 में धारा 4 जोड़ी गई। इस धारा में समानता के सिद्धांत के अपवाद के रूप में सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वगोंर् या अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए विशेष व्यवस्थाएं की गईं।
संविधान में संशोधन करते वक्त अ.जा.-ज.जा. का नाम साफ लिखा गया। साथ ही अनुच्छेद 366(24)(25) के तहत अनुच्छेद 341 और 342 में अ.जा.-ज.जा. की परिभाषा भी कर दी गई। सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों को परिभाषित नहीं किया गया। इसे परिभाषित करने के लिए 1953 में काका कालेलकर आयोग और 1978 में बी.पी. मंडल की अध्यक्षता में आयोग बनाए गए। दोनों आयोगों की रपटों में दर्ज था कि जाति पिछड़ेपन का एक महत्वपूर्ण आधार है। संविधान की शब्दावली में सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वगोंर् का उल्लेख अपेक्षाकृत निरपेक्ष है। इसमें जाति शब्द से बचा गया है। हालांकि तबसे ज्यादातर अदालती फैसलों में जाति एक महत्वपूर्ण बिंदु है। पर यह स्वीकार किया गया है कि केवल जाति पिछड़ेपन का आधार नहीं है।
अदालतों की भावना यह है कि जाति भी नागरिकों का एक वर्ग है, जो समूचा सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ा हो सकता है। जाति का अस्तित्व है। उसका नाम और सामाजिक पहचान है, इसलिए उससे शुरुआत की जा सकती है। कई जगह गांव या पहाड़ी क्षेत्र का निवासी होना भी पिछड़ेपन का आधार बनता है। पर जाति का सवाल कानूनी नहीं है। अदालतों में जाति से जुड़े तमाम मसले पड़े हैं और अभी और मसले जाएंगे। अदालतों का काम संवैधानिक व्यवस्था देखना है।
सामाजिक पिछड़ेपन की एक वजह है खेती का बदलता स्वरूप और शहरीकरण की सुस्त रफ्तार। विस्मय की बात है कि जिस देश के तीन चौथाई किसान खेती छोड़ देना चाहते हैं वहां इसके पीछे के कारणों पर गहरी चर्चा नहीं होती। आरक्षण की मांग समस्या नहीं, समस्या का लक्षण है। देश की लगभग 30 फीसदी आबादी शहरों में रह रही है। जबकि चीन में 53 फीसदी शहरों में आ गई है। विकसित देशों में 80 से 90 फीसदी तक आबादी शहरों में रह रही है। यह हमारे विकास की समस्या है। मार्च 2014 में प्रकाशित सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) ने 18 राज्यों के 137 जिलों में एक सर्वे किया, जिसमें 76 फीसदी किसानों ने कहा कि ''हम खेती का काम छोड़ देना चाहते हैं।'' 60 फीसदी किसान चाहते हैं कि उनके बच्चे शहरों में जाकर पढ़ाई करें। 1970 के आसपास हमारी जीडीपी में खेती का हिस्सा 43 फीसदी था। 1991-92 में घटकर यह 29़ 4 फीसदी हो गया और 2011 में 14 फीसदी। परंपरा से हमारे यहां खेती का काम जातिगत होता आ रहा है। खेती का संकट इन जातियों की मनोदशा को व्यक्त करता है। इसके अलावा खेती इनकी जातिगत पहचान बनाकर रखती है।
आजाद भारत के सामने सबसे बड़ी चुनौती अपने सामाजिक अंतर्विरोधों को दुरुस्त करने की है। दुनिया के तमाम देश 'एफर्मेटिव एक्शन' के महत्व को स्वीकार करते हैं। ये कार्यक्रम केवल शिक्षा से ही जुड़े नहीं हैं। इनमें किफायती आवास, स्वास्थ्य और कारोबार से जुड़े कार्यक्रम शामिल हैं। अमेरिका, दक्षिण अफ्रीका, मलेशिया, ब्राजील आदि अनेक देशों में ऐसे सकारात्मक कार्यक्रम चल रहे हैं। इनके अच्छे परिणाम भी आए हैं।
सामाजिक शोध बताते हैं कि अमेरिका में श् श्वेतों की तुलना में कम अंक और ग्रेड लेकर विशिष्ट संस्थानों में प्रवेश पाने वाले अश्वेतों ने कालांतर में अपने श्वेत सहपाठियों की तुलना में बेहतर स्थान पाया। सामाजिक जीवन में भी वे अधिक सक्रिय हुए। भारत के संदर्भ में अर्थशास्त्री विक्टोरिया नैटकोवस्का, अमर्त्य लाहिड़ी और सौरभ बी. पॉल ने 1983 से 2005 तक पांच 'राष्ट्रीय सैंपल सर्वे' के आंकड़ों के विश्लेषण से साबित किया कि अनुसूचित जातियों, जनजातियों के प्रदर्शन में सुधार हुआ है।
हमारी व्यवस्था में सार्वजनिक हित देखने की जिम्मेदारी विधायिका की है। इसलिए यह संवेदनशील मसला राजनैतिक दलों के पास है और विधायिका में इस पर निर्णय भी उन्हीं को करना है। महत्वपूर्ण बात यह है कि जाति से जुड़े कई सवाल अभी निरुत्तरित हैं। मसलन, क्या कोई वर्ग या जाति अनंत काल तक सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ी रहेगी? पूरा वर्ग न भी रहे तो क्या उसका कोई हिस्सा पिछड़ेपन से कभी उबरेगा? इस दृष्टि से मलाईदार परत की अवधारणा बनी है जिसके लिए सर्वोच्च न्यायालय ने एक सीमा निश्चित कर रखी है। संसद और कार्यपालिका का यह दायित्व है कि मलाईदार परत को अलग करे। इन तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में जरूरी है कि आरक्षण पर समग्रता में विचार किया जाए।
प्रमोद जोशी-लेखक वरिष्ठ पत्रकार और अध्येता हैं। वे दैनिक 'हिंदुस्तान' के स्थानीय संपादक रहे हैं।
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