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अराजक हिंसा के इस दौर में राज्य भर में हुए कुल नुक्सान का आंकड़ा 50,000 करोड़ रु. को पार कर सकता है। तिस पर हिंसा-प्रतिहिंसा में दो दर्जन लोग मारे गए हैं। 36 बिरादरी में सौहार्द का दम भरने वाले प्रदेश में जातिगत वैमनस्य की दरारें गहराने लगी हैं। समस्या का सामाजिक और आर्थिक पक्ष भले महत्वपूर्ण हो लेकिन समूचा घटनाक्रम उतना मुद्दा आधारित नहीं था, जितनी राजनैतिक कारस्तानी। क्षत-विक्षत हरियाणा को अपने सामाजिक जीवन में लगे गहरे घावों से उबरने में लगेगा लंबा अरसा
डॉ. चंद्र त्रिखा, चंडीगढ से
पता सरस्वती की तलाश में निकला था हरियाणा। दावा था कि ऋग्वेद, 18 पुराण और गीता की धरती रहा है यह प्रदेश। हर्षवर्धन, बाण भट्ट, सूरदास, सहजोबाई और बालमुकंुद गुप्त के वारिस होने का दावा करते थे हरियाणा के लोग। राज्य ने बदलते वक्त के साथ प्रौद्योगिकी एवं तकनीक के क्षेत्र में काफी आगे तक का सफर तय
किया था।
मगर उसी धरती ने सिर्फ दस दिन के भीतर अपना आभामंडल धो डाला। आरक्षण के नाम पर अराजकता इस कदर बेकाबू हुई कि लगा, जैसे इस अंचल का समाजशास्त्र, सांस्कृतिक विरासत, प्रशासन तंत्र सभी कुछ गड़बड़ा गया है। अब परतें उधड़नें लगी हैं। राज्य की 50वीं सालगिरह के वर्ष में नए संकल्पों, नए लक्ष्यों व नई उपलब्धियों को दर्ज कराने की बातें करते-करते एकाएक लगा कि प्रदेश की उर्वरा धरती धंसने लगी है। गुलिवर, एकाएक लिलिपुटियन की तरह बर्ताव करने लगा। फरवरी के दूसरे व तीसरे सप्ताह में हरियाणा के पूरे सामाजिक परिदृश्य में खरोंचें उभरीं। तकलीफदेह एवं चिंताजनक बात यह है कि खरोंचें गहराने लगी हैं। यह समूचा प्रकरण त्रिपक्षीय है। इसका आकलन भी अलग-अलग होना चाहिए।
पहला पक्ष इस आंदोलन का है। अराजक हिंसा के इस दौर में गत रविवार तक का एसोचैम का सर्वेक्षण बताता है कि लगभग 20,000 करोड़ रुपए की क्षति हुई है। पीएचडी चेंबर ऑफ कॉमर्स के अनुसार क्षति 36,000 करोड़ रुपए का आंकड़ा पार कर चुकी है। इन दोनों के आंकड़ों में क्षतिग्रस्त दुकानों, आगजनी में नष्ट हुए मकानों की क्षति के अनुमान शामिल नहीं है। सड़कों, पुलों, रेल लाइनों व बसों की क्षति का सही अनुमान अभी बाकी है। आशंका है कुल क्षति का आंकड़ा 50,000 करोड़ रुपए को पार कर सकता है। तिस पर लगभग दो दर्जन लोग हिंसा-प्रतिहिंसा में मरे हैं। लगभग 200 लोग घायल हैं। जितने मामले दर्ज हैं, जाहिर है, उनके कानूनी पहलू अभी तय होने हैं। स्थिति यह है कि फिलहाल वास्तविक क्षति तय करने में कम से कम दो महीने का समय लगेगा। जाहिर है, हरियाणा को वापस पटरी पर लाने में लंबे समय की दरकार है।
बातें सिर्फ वित्तीय क्षति और मुआवजों तक ही सीमित नहीं रहेंगी। जो दरारें, जाटों व गैर-जाटों के बीच पड़ी हैं, उन्हें पाटने का कार्य कौन करेगा? फिलहाल ऐसी कोई कद्दावर शख्सियत दिखाई नहीं देती, जो तहस-नहस हो चुके आपसी सौहार्द को बहाल कर सके।
दूसरा पक्ष इस आंदोलन की उपयोगिता व औचित्य का है। इसके लिए प्रदेश के राजनैतिक परिदृश्य पर दृष्टि डालना जरूरी है। 1966 में गठन के बाद से अब तक 10 नेता, मुख्यमंत्री पद तक पहंुचे। इनमें से सात नेताओं का संबंध जाट वर्ग से रहा, जबकि महज तीन बार मुख्यमंत्री पद तक पहंुचे गैर-जाट नेताओं में से दो—श्री भगवतदयाल शर्मा और राव वीरेंद्र सिंह पूरी अवधि तक पद पर नहीं रह पाए। इस बार भाजपा को अपने बूते सरकार बनाने का मौका मिला और तीसरे गैर जाट मुख्यमंत्री के रूप में श्री मनोहर लाल ने पदभार संभाला।
एक राजनीतिक के रूप में मनोहर लाल खट्टर की यह पहली पारी है और यह भी एक सचाई है कि इस पद के लिए शुरुआती चरण में पांच प्रत्याशी दावेदारों में थे, जिनमें तीन का संबंध जाट समुदाय से था। मगर उन पांचों दावेदारांे को हाशिए पर सरकाया गया और भाजपा ने एक नए चेहरे पर दांव खेला। सोचा शायद यही गया था कि पारस्परिक खींचतान में व्यस्त नेताओं को विकास की डगर पर चलने की प्रेरणा मिले। दिलचस्प तथ्य यह कि दोनों प्रमुख विपक्षी दलों—कांग्रेस व इंडियन नेशनल लोकदल में शिखर पर जाट-समुदाय का ही वर्चस्व है।
जहां तक आरक्षण का प्रश्न है, यह भी एक तथ्य है कि इसका मुख्य लक्ष्य भले ही आर्थिक-सामाजिक आधार पर समग्र विकास की भावना रहा हो लेकिन व्यवहार में ऐसा नहीं हुआ। इसे देशभर में एक 'लॉलीपॉप' के रूप में प्रयुक्त किया गया। हर सरकार ने 'वोट बैंक' कब्जाने के लिए इस 'लॉलीपॉप' का इस्तेमाल किया। भले ही यह अटपटा लगे, लेकिन सचाई यही है कि प्राय: सरकारें, आरक्षण के प्रति ईमानदार नहीं रहीं।
पहले जाट समुदाय परिदृश्य को लें। प्रदेश की जनसंख्या में 27 से 29 प्रतिशत तक जाट हैं। 2014 के लोकसभा चुनावों में यद्यपि भाजपा सात सीटें—अंबाला (सुरक्षित), कुरुक्षेत्र, करनाल, सोनीपत, भिवानी-महेंद्रगढ़, गुड़गांव और फरीदाबाद जीतने में समर्थ रही लेकिन लोकनीति-सीएसडीएस के अध्ययन के अनुसार इन चुनावों में भाजपा को सिर्फ 19 प्रतिशत जाट वोट ही मिल पाए। जाटों के बहुमत की पहली पसंद इनेलो रहा जबकि एकमात्र रोहतक लोकसभा सीट जीतने वाली कांग्रेस जाटों के वोट हासिल करने के मामले में दूसरे स्थान पर रही।
90 विधानसभा क्षेत्रों में भी भाजपा ने यद्यपि 47 सीटें जीतीं लेकिन जाट मतदाताओं में से 40 प्रतिशत ने इनेलो को पहली पसंद माना। भाजपा को विधानसभा चुनावों में भी मात्र 17 प्रतिशत जाट मतदाताओं ने पसंद किया। जाहिर है, भाजपा का व्यापक जनाधार सवणार्ें व गैर-जाट वर्ग में था, सो, भाजपा आलाकमान ने गैर-जाट नए चेहरे को तरजीह दी।
जाट मतदाताओं के बहुमत को इस बात का मलाल रहा कि लंबी अवधि तक जाट वर्ग के हाथ में रही सत्ता अब एक ऐसे शख्स को सौंप दी गई जो न केवल गैर-जाट था बल्कि पंजाबी समुदाय से भी संबंध रखता था। इस मलाल के साथ जाट समुदाय में नए समीकरण उभरने लगे। इन नए समीकरणों में जाटों का एक वर्ग जाट समुदाय के ही नए नेताओं के रूप में उभरने वाले तीन नए भाजपाई जाट चेहरों के विरुद्ध लामबंद होने लगा। इस वर्ग ने जाट आरक्षण का मुद्दा उठाते हुए एक ओर जहां जाटों की लामबंदी की कोशिश की, वहीं इन नए उभरते भाजपाई जाट चेहरों को हाशिए पर सरकाने की मशक्कत शुरू कर दी। इस दोतरफा लड़ाई में आंदोलनकारियों का एक वर्ग अराजक हो गया। जिन्हें निशाना बनाया गया, वे या तो गैर-जाट, पंजाबी, वैश्य व सैनी थे या फिर नए पनपते हुए भाजपाई जाट चेहरे। आंदोलन में जाट आरक्षण का मुद्दा मौजूद था, मगर उसकी पृष्ठभूमि में सत्ता में न होने की कुंठा, नए रोजगार के अवसरों का अभाव, कतिपय गैर-जाट नेताओं की उत्तेजक बयानबाजी और भाजपा के नए जाट चेहरों के उभरने के मुद्दे अधिक तीव्र थे। निर्धारित रूपरेखा और निश्चित मुद्दों के अभाव में अराजकता अपना गुल खिलाने लगी और दो-तीन दिन मंे ही आंदोलन, जाट-आरक्षण संघर्ष समिति के नियंत्रण से बाहर हो गया। वैसे 2004 के चुनावों में भूपेंद्र सिंह हुड्डा के नेतृत्व में कांग्रेस ने जाट-आरक्षण का वादा किया था, मगर इस संबंध में औपचारिक घोषणा दूसरी पारी समाप्त होने से एक दिन पूर्व ही की गई। उस घोषणा का मसविदा भी इतना अधकचरा था कि सुप्रीम कोर्ट ने उसे रद्द कर दिया। 16 महीने पहले अपने चुनावी घोषणा पत्र में भाजपा ने भी इसी आशय का संकल्प घोषित किया था लेकिन सत्ता में आने के बाद इस दिशा में कोई ठोस प्रगति नहीं हो पाई। लगभग दस दिन की अराजकता ने प्रदेश को एक बार फिर उस चरण में ला खड़ा किया है जहां पर विकास की इबारत नए सिरे से लिखनी होगी।
अब स्थिति यह है कि 36 बिरादरी में सौहार्द का दम भरने वाले प्रदेश में जातिगत वैमनस्य की दरारें गहराने लगी हैं।
निष्कर्ष यह है कि हरियाणा का घटनाक्रम उतना मुद्दा आधारित नहीं था, जितना राजनैतिक षड्यंत्र। लेकिन इसे केवल इसी आधार पर नकारना उचित नहीं होगा। इस समस्या का आर्थिक-सामाजिक पक्ष भी महत्वपूर्ण है। जाट-वर्ग मुख्यत: कृषि आधारित रहा है लेकिन अब कृषि न तो वित्तीय रूप से मुनाफा देती है और न ही खेतों का आकार ही पहले की तरह विशाल या व्यापक है। एसईजेड नाम पर भी उन्हें ठगा गया। खेद की बात यह भी थी कि एसईजेड सरीखी योजनाओं के सूत्रधार भी जाट समुदाय के नेता लोग ही थे। सत्ता के सूत्र भी उन्हीं के हाथों में थे।
यद्यपि हरियाणा में जाट-शिक्षण संस्थाओं की संख्या काफी है। गुरुकुल भी हैं और तकनीकी शिक्षा संस्थान भी। मगर शिक्षा व संस्कृति का फैलाव, युवा जिंदगी का हिस्सा नहीं बन पाया। छोटे-मोटे उद्योगों व व्यापारिक संस्थानों में भी जाट वर्ग के लोगों की दिलचस्पी ज्यादा
नहीं बन पाई।
नतीजतन यह वर्ग युवा बेरोजगारी का एक मुख्य शिकार बना। इसके लिए पूरी तरह जाट नेतृत्व जिम्मेदार है। दस वर्ष तक सत्ता में रहने के बावजूद हरियाणा के तत्कालीन मुख्यमंत्री अपनी व अपने वर्ग की सोच का दायरा विस्तृत नहीं कर पाए। उनकी मुख्य सोच रोहतक की चौधर और अपने निजी जनाधार तक सीमित रही। मगर उस क्षेत्र में भी वे विकास यात्रा में जाट युवाओं को समाहित नहीं कर पाए।
यह भी एक तथ्य है कि प्रशासनिक सेवाओं और पुलिस सेवा में जाट वर्ग को एक ठीक-ठीक नुमाइंदगी हासिल है, मगर उद्योग, व्यापार, आईटी व अन्य क्षेत्रों में शिरकत का प्रतिशत बेहद कम है।
एक समय था जब रोहतक कला, संस्कृति, साहित्य, शोध आदि का भी केंद्र था। मगर धीरे-धीरे उधर उदासीनता फैलने लगी। बौद्धिक प्रतिभाएं पलायन करने लगीं और समूचा समाज तंत्र, क्षुद्र राजनैतिक सोच के दायरों में सीमित
हो गया। अब भी आवश्यकता इस बात की है कि सत्ता तंत्र, जाट समुदाय के नेतागण व समाजशास्त्री इस मूल समस्या से मुखातिब हों। वामपंथी व प्रगतिशील लोग और दक्षिणपंथी लोग भी इसी क्षेत्र से जुड़े रहेे हैं, मगर हालिया आंदोलन में वे भी हाशिए पर रहे। आर्य समाज व गुरुकुलों ने भी संस्कारगत भूमिका नहीं निभाई। यदि सकारात्मक सोच वाले लोग सक्रिय रहते तो हरियाणा के दामन पर इतने दाग चस्पां न होते। कुछ सिरफिरों की कुछ भूलों ने प्रदेश को दो दशक पीछे धकेल दिया है।
मैं रोहतक में अनशन करना चाहता था लेकिन हालात की गंभीरता को देखते हुए मैंने जगह बदलकर इसे दिल्ली में करने का फैसला किया। इस मसले पर मैं राजनीति में नहीं पड़ना चाहता। फिलहाल मेरी प्राथमिकता शांति लाने की है। इस आन्दोलन ने ऐसा रूप ले लिया जिससे किसी की भी भलाई नहीं होने वाली। जो लोग आन्दोलन में मारे गए हैं उन्हें मैं श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं।
—भूपेन्द्र सिंह हुडडा, पूर्व मुख्यमंत्री, हरियाणा
भीड़ से बात नहीं की जा सकती और राज्य सरकार के साथ परस्पर संवाद के लिए उन्हें एक समिति गठित करनी चाहिए। यह आन्दोलन नेतृत्वहीन और भीड़तंत्र प्रबल है। हम लोग भीड़ के साथ बात नहीं कर सकते।
जाट आरक्षण आन्दोलन के दौरान हिंसा भड़काने के लिए पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा और उनके राजनीतिक सलाहकार प्रो. वीरेन्द्र सिंह के खिलाफ देशद्रोह का मामला दर्ज किया जाए।
—कुलदीप विश्नोई, हजकां अध्यक्ष
—अनिल विज, स्वास्थ्य मंत्री, हरियाणा
'जाटों ने कोई हिंसा नहीं की'
यशपाल मलिक
अध्यक्ष, अखिल भारतीय जाट आरक्षण संघर्ष समिति, हरियाणा
हरियाणा में जाट आंदोलन के दौरान जो हिंसा हुई, उसमें जाटों की कोई भूमिका नहीं थी। हमारे आंदोलन की आड़ में राजनीतिक रोटियां सेंकी गईं। जिन लोगों ने हम पर हमले किए, उन्होंने ही आगजनी और तोड़फोड़ की। उन्हें चिह्नित किया जाना चाहिए कि वे कौन थे और उन्होंने किसके इशारे पर ऐसा किया? कहा जा रहा है कि हरियाणा में आंदोलन के कारण 20,000 करोड़ रु. का नुक्सान हुआ, 30,000 करोड़ रु. का नुक्सान हुआ। मैं पूछता हूं, नुक्सान नापने का आधार क्या है?
हमारे आंदोलन को लेकर पक्ष और विपक्ष दोनों ने राजनीति के अलावा कुछ नहीं किया। एक बात मेरी समझ से परे है कि जब भी जाटों को आरक्षण देने की बात उठती है तो कहा जाता है कि जाट सशक्त और मजबूत कौम है। देखिए, सभी जाटों की स्थिति एक जैसी नहीं है। हम जिस आरक्षण की बात कर रहे हैं वह अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति के आरक्षण की तरह नहीं है। हम अन्य पिछड़ा वर्ग में आने वाली जातियों को दिए जाने वाले 27 प्रतिशत आरक्षण के तहत जाटों को आरक्षण दिए जाने की मांग कर रहे हैं। अन्य पिछड़ा वर्ग को दिए जाने वाले आरक्षण में 'क्रीमी लेयर' का प्रावधान है। इसके तहत छह लाख रु. से अधिक आय वाले लोगों को आरक्षण का कोई लाभ नहीं मिलेगा तो जाटों को सभी राज्यों में आरक्षण देने में दिक्कत क्या है?
1956 में केलकर समिति की रिपोर्ट में जाटों का भी नाम था। जनता पार्टी ने मंडल आयोग में भी जाटों को पिछड़े वर्ग में रखा था, लेकिन हर बार जाट आरक्षण के नाम पर राजनीति ही होती रही। 1993 में जब अन्य पिछड़े वर्ग के तहत 27 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था की गई थी तो उसमें भी जाटों को नहीं रखा गया। हरियाणा में जाटों को आरक्षण मिला तो 1994 में भजनलाल ने उच्चतम न्यायालय में इसके खिलाफ अर्जी लगाई और देवीलाल सरकार ने जिन पांच जातियों को आरक्षण दिया था, उसमें से जाट सहित पांच जातियों को बाहर कर दिया। जाट किसलिए आरक्षण की मांग कर रहे हैं, इसे सरकार को समझना चाहिए। अन्य पिछड़ा वर्ग के 27 प्रतिशत आरक्षण में एक जाति जाटों की बढ़ जाएगी तो क्या फर्क पड़ जाएगा?
1990 से जाट लगातार आरक्षण की मांग कर रहे हैं लेकिन जाटों को आरक्षण कभी नहीं दिया गया, देने पर भी छीन लिया गया. इसे बदलने की जरूरत है।
जातिगत समीकरण और आरक्षण
अगस्त 2015 के उस दृश्य को कौन भूल सकता है जब अमदाबाद की सड़कों पर पटेल समुदाय के हजारों लोगों का हुजूम (जिसमें ज्यादातर युवा थे) उमड़ पड़ा था। उनके नेता हार्दिक पटेल ने समुदाय की तरफ से आरक्षण की मुहिम छेड़ी थी। पाटीदार आंदोलन के नाम से हुए उस आंदोलन में करीब10 लोगों की जान गई थी, सैकड़ों घायल हुए थे। कितनी ही दुकानों और गाडि़यों को आग लगा दी गई थी। इसके बाद फरवरी 2016 में मुद्रगुडा पद्मनाभम की अगुआई में विशाखापत्तनम (आंध्र प्रदेश) से कापू समुदाय ने आंदोलन खड़ा किया। मांग वही, पिछड़े वर्ग में शामिल करो और आरक्षण का लाभ दो। आंदोलन के दौरान हिंसा का तांडव रचा गया, रेेलगाडि़यां फूंकी गईं। ठीक उसी तरह हरियाणा में पिछले दिनों करीब10 दिन तक जाट समुदाय ने पूरे प्रदेश को पंगु बना दिया। मांग आरक्षण की ही थी, लेकिन देखते ही देखते आंदोलन ने भयानक रूप ले लिया और करीब 10 जिलों में जन-जीवन को पूरी तरह ठप कर दिया। दो दर्जन से ज्यादा लोग मारे गए और करीब 50,000 करोड़ रु. का नुक्सान हुआ।
आखिर गुजरात में पटेल, आंध्र प्रदेश में कापू, महाराष्ट्र में मराठा और हरियाणा तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट समुदायों में आरक्षण को लेकर अचानक ऐसा ज्वार क्यों दिखता है? इन समुदायों के जनसांख्यिक समीकरण क्या हैं जो इन पर आरक्षण की मांग को इतनी उग्रता के साथ उठाने का दबाव डाले हुए हैं? इसके लिए हमें पहले भारत में निजी और सार्वजजिक क्षेत्र में रोजगार की स्थितियों पर नजर डालनी होगी।
देखा जाए तो आरक्षण का मुद्दा नया नहीं है और पटेल हों या जाट, ये समाज के प्रभावी तबकोंे में गिने जाते हैं। इसके बावजूद ये आरक्षण के लिए ऐसा आंदोलन क्यों छेड़े हुए हैं? माना यह भी जाता है कि बदलते परिवेश और शहरीकरण के चलते खेती-बाड़ी में इन समुदायों के युवाओं को अपना कोई भविष्य नजर नहीं आ रहा है और ज्यादातर शहर में रोजी कमाने का सपना पाले हैं। लेकिन पेच तब फंसता है जब प्राइवेट रोजगार में मजदूरी उतनी नहीं मिल पाती जिसमें ठीक-ठाक तरीके से घर चल जाए। 2014-15 के आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों में वेतन की वृद्धि दर 3.6 फीसद थी जबकि मुद्रास्फीति की दर 5 फीसद थी जो 2011 में बढ़कर 20 फीसद हो गई थी। जहां 2011-12 में एक आम मजदूर की औसत दैनिक मजदूरी 249 रु. और बड़े संस्थान में 388 रु. थी, वहीं सार्वजनिक क्षेत्र में यह क्रमश: 679 रु. और 945 रु. थी। इन समुदायों के मन में सार्वजनिक क्षेत्र की नौकरियों के प्रति दिलचस्पी बढ़ना स्वाभाविक ही था। हरियाणा में यह इच्छा इसलिए और तीव्र है क्योंकि यहां लिंगानुपात में भारी असंतुलन है। अपनी ब्याह योग्य लड़की के माता-पिता की पहली पसंद सतत और पक्की आय वाले लड़के होते हैं। जाहिर है, लड़कों के
माता-पिता यही चाहेंगे कि वे सरकारी नौकरियों में जाएं।
लेकिन सरकारी नौकरियों की संख्या लगातार कम हो रही है। मोटा अनुमान लगाने के लिए एक आंकड़ा देखिए। कुल120 करोड़ की आबादी पर सरकारी नौकरियां मात्र 17.50 करोड़ ही रह गई हैं। इसलिए इन जातियों को आरक्षण की जद में आकर इन नौकरियों को हासिल करना अपेक्षाकृत आसान लगता है। यही चीज इस सारे आंदोलन की जड़ में है। लेकिन राह इतनी आसान भी नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय पहले भी इस बारे में कड़े निर्देश दे चुका है और सरकार की पुनर्विचार याचिका खारिज कर जाट समुदाय के लिए आरक्षण रद्द कर चुका है। दूसरे, अन्य पिछड़े वर्ग के दायरे में दर्ज जातियों को अपने कोटे में और किसी जाति के दखल देने को लेकर बेचैनी है, क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय ने आरक्षण की हद 50 फीसद तय की हुई है। लिहाजा, विशेषज्ञ मानते हैं कि समीकरणों के खेल में आरक्षण का मुद्दा भविष्य में भी गरमाता रहेगा।
-आलोक गोस्वामी
'पटेलों का आंदोलन सही था, सही है'
वरुण पटेल
संयोजक, पाटीदार अनामत आंदोलन समिति
पटेलों का आंदोलन सही था, सही है। गुजरात में 80 प्रतिशत पटेल खेती व पशु पालन करते हैं। गुजरात की कुल साढ़े छह करोड़ की आबादी में से 20 प्रतिशत पटेल समुदाय है। जब पटेल आरक्षण मांगते हैं तो कहा जाता है कि वे सामाजिक रूप से सक्षम हैं जबकि वास्तविक स्थिति इससे अलग है। आरक्षण की मांग करने का कारण किसी राजनीति से प्रेरित नहीं है बल्कि पटेल समुदाय को आरक्षण दिया जाना बेहद जरूरी है।
पटेल समुदाय को आरक्षण दिलवाने के लिए 2012 में हार्दिक पटेल, लालजी पटेल समेत कई लोगों ने रणनीति बनाई थी। इसके बाद हमने पटेल समुदाय के लोगों से बात कर आरक्षण की मांग उठाई। 2012 से लेकर 2015 के बीच सरकार को पटेलों की स्थिति से अवगत कराते हुए उन्हें आरक्षण देने की मांग की गई लेकिन सरकार की तरफ से आश्वासन के अलावा और कुछ नहीं मिला। कई बार हस्ताक्षर अभियान भी चलाया गया, जिसे लाखों पटेलों का समर्थन मिला। 2015 में जब हमने आरक्षण की मांग को लेकर बड़ी रैलियां कीं तो मीडिया और सरकार का ध्यान हमारी तरफ गया। हम शांतिपूर्ण तरीके से आरक्षण दिए जाने की मांग उठा रहे थे लेकिन राजनीति के तहत सड़कों पर आगजनी की गई, बसों में आग लगवाई गई। कई लोग मारे भी गए। पटेल समुदाय में से किसी ने हिंसा नहीं की। हार्दिक पटेल, चिराग देसाई और विपुल देसाई, तीनों जेल में हैं। हमें न्याय-व्यवस्था में पूरा भरोसा है।
गुजरात सरकार जिस तरह से पटेलों पर दबाव बनाने की कोशिश कर रही है, उससे पटेलों में आक्रोश है। सरकार ऐसे पटेल समुदाय का हक नहीं मार सकती। हम आरक्षण दिए जाने की मांग उठाते रहेंगे। सरकार हमारी भावनाओं के साथ खेल रही है। हरियाणा में जाट समुदाय की मांग सरकार ने मान ली है, इससे भी पटेलों का मनोबल बढ़ा है। यदि हरियाणा में सरकार जाटों की मांग मानकर उन्हें आरक्षण देने के लिए तैयार हो गई है तो पटेलों को भी आरक्षण दिया जाना चाहिए। यदि हरियाणा, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश में जाटों को, गुर्जरों को आरक्षण मिल सकता है तो गुजरात में पटेलों को क्यों नहीं मिल सकता? हमने 28 फरवरी को उत्तर गुजरात में मेहसाणा में महिला सम्मेलन रखा है। इसमें महिलाओं समेत तीन लाख से ज्यादा लोग इकट्ठे होंगे और आरक्षण की मांग बुलंद करेंगे। मार्च में आंदोलन के लिए रणनीति बनाई जा रही है। हमारा जनसमर्थन लगातार बढ़ रहा है। एक न एक दिन राज्य सरकार को पटेल समुदाय की मांग को मानना ही पड़ेगा।
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