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अंक संदर्भ- 31 जनवरी, 2016
आवरण कथा 'लड़ाई लाल आतंक से' से स्पष्ट होता है कि नक्सली हिंसा ने देश के कई राज्यों में बड़ी भयावह स्थिति उत्पन्न की है। इससे सामाजिक ताना-बाना टूटता जा रहा है। नक्सलियों का एक मात्र उद्देश्य है कि किसी प्रकार हथियार के दम पर अपनी बात मनवाओ। समय दर समय नक्सलियों का प्रभाव वनवासी क्षेत्रों में बढ़ रहा है। केन्द्र और राज्य सरकार को संयुक्त रूप से बेहतर तालमेल के दम पर इस तंत्र को तोड़ना होगा। इसके लिए उन्हें एक बेहतर रणनीति बनानी होगी क्योंकि इस हिंसा से निपटने के लिए अभी तक सरकारों द्वारा कोई रणनीति ही तय नहीं की गई है।
— मनोहर मंजुल, प.निमाड (म.प्र.)
ङ्म नक्सलवादी गतिविधियों को रोकने के लिए जब सरकार कड़ाई करना शुरू करती है तो वोट के लालची नेता हंगामा शुरू कर देते हैं जबकि सुरक्षा के मुद्दे पर किसी भी प्रकार का दखल नहीं होना चाहिए। दूसरी सबसे बड़ी बात यह है कि जहां पर भी नक्सलवादी गतिविधियां अधिक होती हैं उन राज्यों में सरकार की पहुंच लगभग न के बराबर है। विकास से वे क्षेत्र कोसों दूर हैं। इन सभी कारणों से उन क्षेत्रों के लोग नक्सलियों की शरण में जाते हैं, उनकी हां-हुजूरी करते हैं और मजबूरी में हथियार उठाने में भी परहेज नहीं करते। अगर हमें नक्सलवादी गतिविधियों पर रोक लगानी है तो वनवासी राज्यों का विकास करना होगा और उन्हें मुख्यधारा से जोड़ना होगा।
— कमलेश कुमार ओझा, पुष्पविहार(नई दिल्ली)
ङ्म वनवासी राज्यों में नक्सलवाद दीमक की तरह व्यवस्था को खोखला करने में लगा हुआ है। दिन-प्रतिदिन इसके भयावह रूप का कोई न कोई उदाहरण हमें देखने को मिलता ही रहा है। नक्सलवाद के खात्मे के लिए सरकारों और प्रशासन को सिर्फ प्रयास ही नहीं एक संकल्प भी लेना होगा और कड़ाई से पेश आना होगा। राजनीतिक दाव-पेच न करके एक समान विचार पर काम करना होगा। अगर ऐसा होता है तो समस्या को बढ़ने से रोका जा सकेगा। समय रहते इस समस्या का इलाज नहीं हुआ तो यह समस्या लाइलाज हो जायेगी।
— रामप्रताप सक्सेना, खटीमा (उत्तराखंड)
ङ्म कई बार गृह मंत्रालय की ओर से रपटें आती रही हैं कि माओवादी देश के 17 से ज्यादा राज्यों में पूरी तरह से सक्रिय हैं। यह लाल गलियारा तेजी से बढ़ रहा है। हाल के दिनों में भारत के महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, झारखंड आदि राज्यांे में अपने प्रभाव क्षेत्र का विस्तार करने के लिए अभियानों और गतिविधियों में खासी तेजी आई है। उनका खुफिया तंत्र हमारे खुफिया तंत्र से मजबूत है। वे हमारी हर गतिविधि पर नजर रखते हैं और हमें नुकसान करते हैं। हम अभी तक क्यों अपना तंत्र विकसित नहीं कर पा रहे हैं? ऐसी कौन सी समस्या है जिसके कारण हम सात दशक बाद भी उनसे कमजोर साबित हो रहे हैं?
— कजोड़ राम नागर, दक्षिणपुरी (नई दिल्ली)
विराट व्यक्तित्व
हिन्दुत्व के सिरमौर दिवंगत अशोक सिहंल का संपूर्ण जीवन सनातन धर्म को समर्पित रहा। वे अंतिम समय तक सेवाभाव में लीन रहे। 'पुनर्जागरण के पुरोधा' में बताए गए जीवन सूत्र आज हिन्दुओं के लिए मार्गदर्शन का काम कर रहे हैं।
— महेन्द्र स्थापक, करेली, नृसिंहपुर(म.प्र.)
बेसुरा राग
रपट 'खतरनाक खेल' (24 जनवरी, 2016) दिल दहलाती है। खुलेआम उन्मादियों ने हिन्दुओं के घरांे को लूटा, दुकानों में आग लगाई और पुलिस को पीटा गया लेकिन किसी को कुछ भी दिखाई नहीं दिया। अभी कुछ दिन पहले फिल्म अभिनेता आमिर खान को भारत का माहौल खराब लगता था और उन्हें यहां रहने में डर लग रहा था। पर मालदा हिंसा के बाद उन्हें देश में बिलकुल भी डर नहीं लगा। इस घटना पर उन्होंने अपना मुंह सिल लिया। असल में इस सब के कारण हैं। आमिर सरीखे लोग कभी नहीं चाहते थे कि केन्द्र में भाजपा की सरकार और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी बनें।
— रमेश कुमार शांडिल्य, नारायणपुर(छ.ग.)
ङ्म हाल ही में मालदा में हिन्दुओं के घरों को जलाया गया तब किसी के मुंह से आवाज तक नहीं आई और न ही इस हिंसा को देखकर किसी को डर लगा। इन घटनाओं पर आमिर सरीखे लोग क्या इसलिए नहीं बोले कि जिनके साथ हिंसा हुई वे हिन्दू थे? कश्मीर में हिन्दुओं के गले काटे गए तब आमिर का गला एक बार भी नहीं रुंधा? आमिर ऐसे बयान देकर क्या बताना चाह रहे थे?
— चन्द्रमौलि शर्मा, जमुई (बिहार)
मिला जवाब
लेख 'पूर्वाग्रह से मुक्त हो संघ को समझें प्रगतिशील इतिहासकार' (3 जनवरी, 2016) में मा.गो.वैद्य ने इतिहासकार रामचन्द्र गुहा के एक अंग्रेजी समाचार पत्र में छपे लेख 'भागवत के आम्बेडकर' के अधकचरे ज्ञान की पोल खोली है। अभी तक ये प्रगतिशील इतिहासकार समाज को इसी प्रकार भ्रामकता में उलझाये हुए थे लेकिन अब ये झूठ की इमारत ढहने लगी है। जब-जब इन प्रगतिशील इतिहासकारों की पोल खुलती है तब-तब ये समाज को बहकाने की जुगत में लग जाते हैं। पर अब उनका यह प्रयास असफल हो रहा है। इसलिए इनका बेचैन होना समझा जा सकता है।
— मनोज कुमार, गोपालगंज (बिहार)
दिखने लगा असर
रपट 'बदलने लगी सोच, बढ़ने लगी बेटियां'(31 जनवरी, 2016) एक सकारात्मक संकेत है। हरियाणा में प्रधानमंत्री की 'बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ' योजना का असर स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा है। समाज को समझना होगा कि बेटियों को अभिशाप न समझें। बेटियां आज किसी भी क्षेत्र में कम नहीं हैं। हर क्षेत्र में उन्होंने नाम ऊंचा किया है। आखिर फिर हम क्यों अभी भी रूढि़वादी सोच को पाले हुए हैं। समाज को बेटी एवं बेटों के प्रति समान सोच रखनी होगी। भू्रणहत्या पर पूरी तरह से रोक लगानी होगी।
— डॉ. टी.एस.पाल, संभल (उ.प्र.)
तुष्टीकरण की विषबेल
रपट 'बंगलादेश से जुड़ते तार' (24 जनवरी, 2016) पश्चिम बंगाल में आए दिन होती गतिविधियों को उजागर करती है। आज बंगलादेश से नकली मुद्रा, अवैध हथियार, अवैध बंगलादेशी घुसपैठिये थोक के भाव पश्चिम बंगाल में चले आ रहे हैं। राज्य सरकार की जिम्मेदारी बनती है कि वह इन गैरकानूनी और आपराधिक कार्यों को रोके लेकिन ममता सरकार इनको रोकने के बजाय इन्हें और बढ़ावा दे रही है।
— शान्ति प्रेम, मंदसौर (म.प्र.)
आस्तीन के सांप
रपट 'चूक से चूके' (11 जनवरी, 2016) से स्पष्ट होता है कि देश में बढ़ती आतंकी गतिविधियां चिंता का विषय हैं। पाकिस्तान और लश्करे तय्यबा कभी नहीं चाहता कि भारत में शान्ति रहे। इसलिए वह समय-समय पर पठानकोट जैसे हमले करता रहता है। इन सब बातों के बीच एक और बात है जो सोचने पर मजबूर करती है। हमारे कुछ अपने ही हैं जो इस काम में इनका साथ देते हैं। पठानकोट हमले में संदिग्ध पुलिस अधीक्षक सलविंदर सिंह इसका ताजा उदाहरण हैं। यह तो एक सलविंदर की कहानी है लेकिन ऐसे हजारों सलविंदर हैं जो निजी स्वार्थों की पूर्ति के लिए मां भारती को ठेस पहुंचाने में कोई हिचक नहीं करते। समाज की जिम्मेदारी बनती है कि ऐसे लोगों पर वह भी नजर रखे क्योंकि हर काम के लिए सरकार पर निर्भर रहना ठीक नहीं है।
— हरिहर सिंह चौहान, इन्दौर (म.प्र.)
ङ्म पठानकोट हादसा आस्तीन के सांपों से सावधान रहने का सबक है। हम सामने की लड़ाई में तो जीत सकते हैं लेकिन पीछे से अभी तक जो हमले हुए उनमें हम कमजोर पड़े हैं। आज यही कुछ देश में हो रहा है। पाकिस्तान सामने से तो लगातार हम पर हमले कर ही रहा है पीछे से भी हम पर उससे ज्यादा हमले हो रहे हैं। उन्माद फैलाने वालों की एक बड़ी फौज देश में हर दम अशान्ति फैलाने के लिए तैयार रहती है। पूर्णिया और मालदा में हुई हिंसा की घटनाएं इसका ताजा उदाहरण हैं।
— सूर्यप्रताप सिंह सोनगरा, कांडरवासा(म.प्र.)
क्यों न पढ़ें वास्तविक इतिहास !
ये विडम्बना ही है कि जिहादी आतंकवाद से पीडि़त होते हुए भी आज विश्व का एक बहुत बड़ा गैर इस्लामी वर्ग इस्लाम के प्रति सहानुभूति रखता है। उनकी गलत बात पर इसे अनदेखा करता है और उनके भाईचारे का गुणगान करते नहीं थकता है। पर जिस मत को अविद्या, स्वार्थ एवं हिंसा पर केंद्रित किया जा रहा हो वह सिवाय पीड़ा के और दे ही क्या सकता है? आज वैचारिक रूप से इस बात को समझना होगा। जो लोग इस्लाम से सहानुभूति रखते हैं, अच्छी बात है लेकिन कभी उन्होंने कट्टरपंथियों की कारगुजारियों पर नजर दौड़ाई? शायद इसका जवाब होगा … नहीं। ऐसे लोगों को अच्छाई और बुराई दोनों देखनी चाहिए क्योंकि ये वे लोग होते हैं जो सबसे पहले उन्मादियों का शिकार बनते हैं। ये भोले-भाले लोग नहीं जानते कि उनकी अनभिज्ञता और तटस्थता अप्रत्यक्ष रूप से जिहादियों को ताकत प्रदान करती है।
यूरोप तो मात्र कुछ दशकों से ही इस्लाम के कट्टरपंथी स्वरूप से परिचित हुआ है लेकिन भारत तो सैकड़ों वर्षों से जिहाद और आक्रमणों को झेल रहा है। इस इतिहास से समाज को जानबूझकर कुछ तथाकथित लोगों ने दूर रखा। समय की मांग है कि हम पक्षपाती इतिहास को तिलांजलि दें और वास्तविक इतिहास को जानें। जिन मुस्लिम शासकों ने भारत को लूटा, इसे विकृत करने की हर चाल चली उस मत के भाईचारे के छद्म आवरण को हटायें। ऐसा नहीं कि यह इसलिए उजागर करना चाहिए कि यह लोग मुसलमान थे बल्कि इसलिए करना चाहिए कि ये लुटेरे और आततायी थे। इन्होंने भारत को तोड़ने और बर्बाद करने की भरसक कोशिश की। इनको रोकने के लिए कई देशभक्त मुसलमानों ने भी अपने प्राणों की आहुति दी। समाज को उनके बारे में भी बताना चाहिए। स्वतंत्रता के बाद से और अब तक के इतिहास को भी समाज के सामने प्रामाणिक तथ्यों के साथ प्रस्तुत किया जाना चाहिए ताकि मानवता की दुहाई देने वाले हमारे समाज का नव पठित वर्ग मज़हबी कट्टरपंथ का असली चेहरा देख सके। —राम पाण्डे, ग्राम व पोस्ट शिवगढ़,बछरावां, रायबरेली (उ.प्र.)
बढ़ाया मान
हनुमंथप्पा के लिए, सबके नेत्र उदास
किया बहुत संघर्ष पर, लौट न पायी आस।
लौट न पायी आस, देश का मान बढ़ाया
सीमा की रक्षा हित निज कर्तव्य निभाया।
कह 'प्रशांत' जब ध्वजा तिरंगी फहराएगी
तब-तब याद तुम्हारी भारत को आएगी॥
—प्रशांत
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