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अपनी बात -साख के लिए जरूरी सफाई

by
Feb 22, 2016, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 22 Feb 2016 11:23:44

 

''पाञ्चजन्य' ने जब पहले-पहल जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में 'राष्ट्रविरोधी' तत्वों की घुसपैठ को बेबाकी से उघाड़ा (आवरण कथा 'दरार का गढ़' 8 नवम्बर, '15) तो खूब हल्ला मचा। 9 फरवरी को जेएनयू में तथाकथित सांस्कृतिक कार्यक्रम के जो वीडियो सामने आए उसके बाद उस हल्ला-ब्रिगेड में हडकंप है।
सवाल है कि जेएनयू की दीवारों के भीतर की सचाई सामने आने से दिक्कत किसे है? सांस्कृतिक कार्यक्रम की आड़ में आतंकी अफजल गुरु और अलगाववादी मकबूल बट को नायक के तौर पर कौन स्थापित करना चाहता है? लाल सलाम, लड़ाई और लहू के कतरे जैसी लफ्फाजियों में युवा जोश को लपेटने की चालबाजियां किसकी हैं? और…कौन है जो अब राष्ट्रद्रोह तक जाते प्रकरण को संस्थान की प्रतिष्ठा से जोड़कर मुद्दा बदलना चाहता है?
अफजल गुरु के समर्थकों के झुंड के समर्थन में नेता इस तरह दौड़े चले आएंगे किसने सोचा था! महामहिम राष्ट्रपति और इस पूरी व्यवस्था की खिल्ली उड़ाने वालों के लिए राष्ट्रपति से ही मुलाकातें होंगी किसने सोचा था!
यकीनन ऐसे जो-जो लोग हैं, उनके लिए जेएनयू की भलाई का विचार प्राथमिकता नहीं है। देश में उच्च शिक्षा के सपने को बंधक बना छोड़ने वाली यह लामबंदी ऐसी है जो किसी भी तंत्र का उपयोग राजनैतिक लाभ के लिए करने में माहिर है।
1969 में जेएनयू की नींव रखते हुए निश्चित ही गुणवत्ता और कार्यकुशलता का सपना भी देखा गया होगा परंतु हुआ क्या? कुछ लोगों ने इस विशालकाय व्यवस्था को मृतप्राय विचारधारा की आखिरी शरणस्थली बना छोड़ा। पाठशाला में खूनी क्रांति के नारे लगाने वाले, या परिसर को उन्माद-विभाजक विचारों की प्रयोगशाला बनाने वालों ने कभी नहीं सोचा कि दुनिया में साम्यवादी तंत्र का पतन भारीभरकम व्यवस्था और निम्न कार्यकुशलता की ऐसी ही कारगुजारियों के कारण हुआ है। पढ़ाई की बजाय लड़ाई, कार्यकुशलता की बजाय क्रांति की ढपली पीटना…वजह यही है।
जेएनयू को दागदार बनाने वाला यह वामपंथी बोझ है।
जेएनयू का नाम पढ़ाई-लिखाई के शीर्ष संस्थान के तौर पर पिछली बार कब सुर्खियों में रहा था, कुछ याद आता है? वर्ष 2012 में राष्ट्रीय आकलन और अधिमान्यता परिषद् ने संस्थान को देश का शीर्ष शिक्षण संस्थान बताया था। अच्छी मगर पुरानी बात है। इस बात की न ज्यादा चर्चा हुई न विश्लेषण। पाठशाला पर लदा लाल बेताल यही चाहता है। छात्र पढ़ेंगे और पढ़ने के लिए उमड़ेंगे तो आंदोलन और प्रदर्शन की तो जमीन                  खिसक जाएगी!
सो, जेएनयू का जिक्र शिक्षा के लिए नहीं मोर्चाबंदी के लिए हो रहा है। मंगलयान के लिए नहीं मकबूल बट के लिए हो रहा है। 'नेताजी' के अपमान (याद कीजिए टैफ्लॉज में बरसों लगे विशालकाय पोस्टर) और नेतागिरी चमकाने के लिए होता है। कुल्हाड़ी से महिला मित्र की हत्या कर देने, महिषासुर की पूजा करने, गोमांस खाने की जिद और शिक्षक की शोधार्थी से छेड़छाड़ के लिए होता है। सोचिए, किसी भी शिक्षण संस्थान के लिए अपराध, महिलाओं के लिए असुरक्षित माहौल, बात-बेबात प्रदर्शनों के अंधड़ और मुट्ठी भर शिक्षक-छात्रों संग अराजक-आतंकी तत्वों की सहानुभूति और साठ-गांठ के आरोप अच्छे कहे जाएंगे? जेएनयू पर यह दाग लगे हैं। दाग साफ करने की जरूरत है। मगर कुछ लोग हैं जो इन दागों को तमगे की तरह सजाना चाहते हैं।
मरती विचारधारा की चिंगारी जलाए रखने के लिए छात्र-शक्ति को भटकाते, उसे आंदोलन का ईंधन बनाते यह लोग खुद संस्थान का दाग हैं। उसके दोषी हैं। खुद सुविधा-सुभीते से रहने और छात्रों के जीवन पटरी से उतारने वाले यह तत्व छात्रों के दोषी हैं।
नक्सली मानवाधिकारों को रोते और जवानों के बलिदान पर जश्न मनाते यह लोग मानवता के दोषी हैं।
देश का अन्न खाते और आतंकियों के गुण गाते यह लोग इस देश के दोषी हैं। जेएनयू परिसर को इनसे मुक्त किए बिना बात नहीं बनेगी। देश के एक बड़े शिक्षा संस्थान की साख का तार-तार होना हर भारतीय का दिल छलनी करने वाली बात है। देश-विरोध की पनपती विषबेल काटे बिना जेएनयू से उठे दर्द का उपचार संभव नहीं। यह उपचार जरूरी है और इसके लिए जेएनयू और उच्च शिक्षा की मंगलकामना करने वाले सभी को एकजुट होना चाहिए।
ञ्चजन्य' ने जब पहले-पहल जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में 'राष्ट्रविरोधी' तत्वों की घुसपैठ को बेबाकी से उघाड़ा (आवरण कथा 'दरार का गढ़' 8 नवम्बर, '15) तो खूब हल्ला मचा। 9 फरवरी को जेएनयू में तथाकथित सांस्कृतिक कार्यक्रम के जो वीडियो सामने आए उसके बाद उस हल्ला-ब्रिगेड में हडकंप है।
सवाल है कि जेएनयू की दीवारों के भीतर की सचाई सामने आने से दिक्कत किसे है? सांस्कृतिक कार्यक्रम की आड़ में आतंकी अफजल गुरु और अलगाववादी मकबूल बट को नायक के तौर पर कौन स्थापित करना चाहता है? लाल सलाम, लड़ाई और लहू के कतरे जैसी लफ्फाजियों में युवा जोश को लपेटने की चालबाजियां किसकी हैं? और…कौन है जो अब राष्ट्रद्रोह तक जाते प्रकरण को संस्थान की प्रतिष्ठा से जोड़कर मुद्दा बदलना चाहता है?
अफजल गुरु के समर्थकों के झुंड के समर्थन में नेता इस तरह दौड़े चले आएंगे किसने सोचा था! महामहिम राष्ट्रपति और इस पूरी व्यवस्था की खिल्ली उड़ाने वालों के लिए राष्ट्रपति से ही मुलाकातें होंगी किसने सोचा था!
यकीनन ऐसे जो-जो लोग हैं, उनके लिए जेएनयू की भलाई का विचार प्राथमिकता नहीं है। देश में उच्च शिक्षा के सपने को बंधक बना छोड़ने वाली यह लामबंदी ऐसी है जो किसी भी तंत्र का उपयोग राजनैतिक लाभ के लिए करने में माहिर है।
1969 में जेएनयू की नींव रखते हुए निश्चित ही गुणवत्ता और कार्यकुशलता का सपना भी देखा गया होगा परंतु हुआ क्या? कुछ लोगों ने इस विशालकाय व्यवस्था को मृतप्राय विचारधारा की आखिरी शरणस्थली बना छोड़ा। पाठशाला में खूनी क्रांति के नारे लगाने वाले, या परिसर को उन्माद-विभाजक विचारों की प्रयोगशाला बनाने वालों ने कभी नहीं सोचा कि दुनिया में साम्यवादी तंत्र का पतन भारीभरकम व्यवस्था और निम्न कार्यकुशलता की ऐसी ही कारगुजारियों के कारण हुआ है। पढ़ाई की बजाय लड़ाई, कार्यकुशलता की बजाय क्रांति की ढपली पीटना…वजह यही है।
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