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एकात्म मानववाद के प्रणेता पं. दीनदयाल उपाध्याय के जन्मशताब्दी वर्ष के अवसर पर दिल्ली में दीनदयाल कथा आयोजित हुई। इसमें उनके विचार प्रसंगों को चित्रों के जरिए दिखाकर एक नया प्रयोग किया गया
दिल्ली का अतिव्यस्त रानी झांसी मार्ग। शाम के 6 बजे हैं। पार्किंग की खींचतान, हॉर्न का शोरशराबा, राजधानी की शाम का यह एक आम-सा दृश्य है। लेकिन सड़क किनारे दीनदयाल शोध संस्थान का दृश्य अलग है। भवन के सामने खिंची सफेद कनात और मुख्य द्वार पर पहुंचते ही चंदन का टीका, गतिविधियां बता रही हैं कि यहां कुछ खास हो रहा है।
दीनदयाल कथा, आयोजन का नाम चौंकाता है। कथा-भागवत…आयोजन तो बहुत सुने-देखे, यह कैसा कार्यक्रम है? सभागार का माहौल आयोजन के इस अनूठेपन पर मुहर लगाता है। धुंधले सभागार में प्रकाशमान मंच। मंच के एक ओर संस्कृति के सुर और दूसरी ओर तकनीक के तार। बांसुरी की मद्धम तान को उतार-चढ़ाव में सहारा देती तबले की थाप उस बड़ी-सी एलईडी स्क्रीन से जुगलबंदी कर रही है जो कथाव्यास के शब्दों को तथ्यात्मक विस्तार देने के लिए लगाई गई है।
9 से 11 फरवरी तक हुई अपनी तरह की इस अनूठी कथा का हर प्रसंग अनूठा रहा। कथाव्यास थे वरिष्ठ वकील और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, दिल्ली प्रान्त के सह प्रान्त संघचालक श्री आलोक कुमार। कथा सुनने के लिए ख्यातिनाम विभूतियों के अलावा अन्य श्रोतागण भी खूब उमड़े।
तथ्य और संदभार्ें में पिरी इस तीन दिवसीय कथा की विशेषता यह थी कि जैसे-जैसे शब्दों के माध्यम से श्रोताओं के मन में चित्र खिंचता, एलईडी स्क्रीन पर उभरते रंग उन कल्पनाओं में ऐतिहासिकता का आधार भर देते। पहले दिन दीनदयाल जी के जन्म और जीवन प्रसंगों का प्रमुखता से वर्णन हुआ। त्रासद, अभावपूर्ण बचपन। पढ़ने की ललक, विलक्षण मेधा और बाद में उपलब्धियों को उन्नति की सीढ़ी बनाने की बजाए समाज हित के लिए सर्वस्व अर्पण कर देने वाला अनुपम उदाहरण। दीनदयाल जी के अल्पज्ञात पक्षों का एक-एक कर सामने आना श्रोताओं के मन को भिगो गया।
संस्कार और ऐतिहासिकता की पुण्यभूमि
1. मान्यता है कि कन्याकुमारी में भारत माता के चरण हैं और वहां तीन समुद्र उनके चरण पखारते हैं। उसके नीचे समुद्र में विवेकानन्द शिला स्मारक है। स्मारक के अन्दर एक श्रीपाद मन्दिर है। पत्थर पर एक महिला के पैरों के निशान हैं। यह मां पार्वती के पैर माने जाते हैं। कहा जाता है कि शिव जी को पाने के लिए पार्वती जी ने वहां वर्षों तक तपस्या की थी। कहां उत्तर के कैलाशवासी शिव और कहां दक्षिण में शिव को पाने की अपर्णा की आराधना! यानी भारत दक्षिण से उत्तर तक संस्कृति और इतिहास के सूत्रों में गुंथा एक राष्ट्र है। 2. महर्षि वाल्मीकि ने भी लिखा है कि श्रीराम हिमालय जैसे गंभीर और सागर जैसे धैर्यवान हैं। उत्तर भारत में अयोध्या से दक्षिण में रामेश्वरम तक इसी एक राष्ट्र की ऐतिहासिकता के पुण्य चिन्ह हैं। 3. स्नान के समय हम सात नदियों का स्मरण करते हैं, 'गंगेश्च यमुनश्चैव गोदावरी सरस्वती, नर्मदे सिंधु कावेरी जलेस्मिन सन्निधि कुरु।' यानी इस जल में सात नदियों का जल है। यदि पूरे देश का विचार नहीं होता तो हम सातों नदियों का स्मरण क्यों करते? इसी तरह चार धाम। 12 ज्योतिर्लिंग, 52 शक्तिपीठ ये सब मिलकर भारत को एक करते हैं। यह पूरा भारत हमारी श्रद्धा का केन्द्र है। इन सबसे हमारा मां और बेटे का संबंध है।
कथा की विशेषताएं
यंू तो आलोक जी पहले भी दीनदयाल कथा कहते रहे हैं, लेकिन उसका मल्टीमीडिया प्रस्तुतीकरण पहली बार हुआ। दीनदयाल शोध संस्थान ने दीनदयाल जी का जन्म शताब्दी वर्ष प्रारंभ होने से पूर्व अपने प्रेरणा पुरुष की पुण्यतिथि पर इस कथा का आयोजन किया था। पंडित जी के जीवन की सादगी पूरे वातावरण में झलक रही थी। उनका गांभीर्य भी था और उनके कतृर्त्व व वैचारिक प्रभाव की गूंज भी विद्यमान थी।
दीनदयाल शोध संस्थान की टीम ने पंडित दीनदयाल उपाध्याय के जीवन से संबंधित बहुत से पहलुओं पर शोध कर उनसे संबंधित काफी सारी दृश्य सामग्री एकत्र कर ली थी। इनमें से अधिकांश चित्र श्वेत-श्याम होने के बावजूद कथानक को सजीव बना रहे थे। पंडित जी के जीवन के कई प्रसंगों का संस्थान की टीम ने नाट्य रूपांतरण भी किया था। उन प्रसंगों के साथ पीछे विशाल एलईडी स्क्रीन पर ये दृश्य मानो उन पलों को सजीव कर रहे थे।
संस्कार भारती द्वारा संयोजित संगीत ने कथा आनंद दोगुना कर दिया था। भारत मां के भव्य मंदिर में वंदे मातरम् और भारता माता की आरती ने वातावरण को राष्ट्रभक्तिमय बना दिया था। कथा मंडप में प्रकाश का उत्तम संयोजन किया गया था।
श्रोताओं ने जिस तन्मयता के साथ, मंत्रमुग्ध होकर कथा का आनंद लिया, अद्भुत था। सब कुछ स्वप्रेरणा से हो रहा था। यजमानों में मंच की ओर आने की कोई होड़ नहीं थी। पूरा वातावरण दीनदयालमय हो गया था और कथा के अंत में प्रसाद में जैविक पदाथार्ें से निर्मित वह सात्विक और स्वादिष्ट भोजन परोसा गया जो स्वयं दीनदयाल जी को पसंद था। आयोजकों ने काफी शोध के पश्चात््््् उन व्यंजनों को चुना, जो पंडित जी ने कभी न कभी चाव से ग्रहण किए थे। कथा के पहले दिन के यजमान थे विष्णु मित्तल, दूसरे दिन के संजीव नय्यर और तीसरे दिन के राजकुमार भाटिया। पहले दिन के गीत को स्वर दिया पूर्व सांसद और दीनदयाल जी पर शोध करने वाले महेशचन्द्र शर्मा ने और दूसरे एवं तीसरे दिन के गीतों को स्वर दिया संस्कार भारती के संगठन मंत्री जितेन्द्र मेहता ने।
आयोजन/दीनदयाल कथा
विभूतियों ने लिया कथा का आनंद
कथा में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक श्री मदनदास तीनों दिन उपस्थित रहे, इससे कथा की गरिमा बढ़ी। सहसरकार्यवाह द्वय श्री दत्तात्रेय होसबाले और डॉ. कृष्णगोपाल भी उपस्थित रहे। इनके अलावा गुजरात के राज्यपाल श्री ओमप्रकाश कोहली, भाजपा नेता श्री रामलाल, जम्मू-कश्मीर अध्ययन केन्द्र के निदेशक श्री अरुण कुमार, केन्द्रीय मंत्री थावरचंद गहलोत, भाजपा उपाध्यक्ष विनय सहस्रबुद्धे, सांसद विजय गोयल, रमेश बिधूड़ी, प्रवेश वर्मा, पंजाब केसरी के सम्पादक अश्वनी कुमार और कई संगठनों के वरिष्ठ कार्यकर्ता बड़ी संख्या में उपस्थित थे।
''दीनदयाल जी के विचारों को जन-जन तक ले जाने की जरूरत''
पंडित दीनदयाल उपाध्याय के जन्मशताब्दी वर्ष में उनके सादगीभरे जीवन और 'एकात्म मानववाद' दर्शन पर उनके मौलिक चिंतन को सभी तरह के श्रोताओं तक सहज रूप से पहुंचाना किसी चुनौती से कम न था। सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता और दिल्ली के प्रख्यात सामाजिक-राजनैतिक कार्यकर्ता श्री आलोक कुमार ने अनुभव किया कि पंडित दीनदयाल जी के जीवन और विचारों को वर्तमान परिप्रेक्ष्य और संदर्भों में प्रभावी ढंग से प्रस्तुत करने के लिए कथावाचन एक अनुकूल माध्यम हो सकता है। आलोक कुमार से अरुण कुमार सिंह ने बातचीत की, जिसके मुख्य अंश प्रस्तुत हैं :
कथा का उद्देश्य क्या था?
इन दिनों पं. दीनदयाल जी का जन्मशताब्दी वर्ष चल रहा है। एकात्म मानववाद के भी 50 वर्ष पूरे हो रहे हैं। इस नाते देश के अनेक हिस्सों में दीनदयाल जी से संबंधित कार्यक्रम हो रहे हैं। उसी कड़ी में यह कथा भी हुई। उद्देश्य था आमजन तक दीनदयाल जी के विचारों को पहुंचाना। आज देश में अनेक समस्याएं ऐसी हैं, जिन्हें दीनदयाल जी के विचारों पर अमल करके दूर किया जा सकता है। इसलिए उनके विचारों को प्रचारित और प्रसारित करने की जरूरत है।
कथा की तारीख 9, 10 और 11 फरवरी रखी गई थी। इसके पीछे भी कोई कारण था?
कारण था। दीनदयाल जी की पुण्यतिथि 11 फरवरी को पड़ती है। 1968 में इसी दिन उनकी मृत्यु हुई थी। कार्यकर्ताओं ने विचार किया कि 11 फरवरी को कथा समाप्त हो तो अच्छा रहेगा। इसलिए ये तारीखें चुनी गई थीं। यह एक तरह से उन महापुरुष के प्रति श्रद्धांजलि भी थी, उन्हें याद करने का एक तरीका भी था और सबसे बड़ी बात उनके विचारों को एक-दूसरे के बीच बांटना भी था।
कथा के प्रसंगों को चित्रों के जरिए भी दिखाया गया। ऐसा अन्य कथाओं में होता नहीं है। इस अनूठी कथा की कल्पना किसने की थी?
हां, जिस तरह कथा के साथ-साथ उसके प्रसंगों को चित्रों के जरिए दिखाया गया उससे कथा की ग्राह्यता बढ़ी। श्रोताओं को हर प्रसंग सजीव लग रहा था। उम्मीद है, इसका प्रभाव ज्यादा दिनों तक रहेगा। इस कथा की कल्पना दीनदयाल शोध संस्थान के सचिव अतुल जैन और उनकी टोली ने की थी।
क्या आप इस तरह की कथा और कहीं करने वाले हैं?
मैं तो चाहता हूं कि यह कथा दूसरी जगहों पर भी हो, लेकिन दूसरे कार्यकर्ता करें। इससे प्रभाव और बढ़ेगा। जहां तक मेरी बात है, यह संगठन से चर्चा करने के बाद ही तय होगा।
दीनदयाल जी का जन्म 25 सितम्बर, 1916 को नगलाचन्द्रभान (मथुरा) में हुआ था। पिताजी स्टेशन मास्टर थे, इसलिए घर में रहने का कम ही अवसर मिला। घर में कलह भी रहती थी। ढाई वर्ष की उम्र में उन्हें और उनके छोटे भाई को राजस्थान में नाना चुन्नीलाल जी के घर जाकर रहना पड़ा। इसके बाद वे कभी अपने घर वापस नहीं गए। जब वे तीन वर्ष के थे, तो एक दिन खबर मिली कि उनके पिताजी नहीं रहे। बाद में उनकी माता जी को टी.बी. की बीमारी हो गई। जब वे सात वर्ष के थे तब उनके सिर से माता का भी साया उठ गया। इसके बाद उनके नाना जी ने नौकरी छोड़ दी और बच्चों की देखभाल करने लगे। जब दीनदयाल जी नौ वर्ष के थे तब उनके नाना जी भी उन्हें छोड़कर इस दुनिया से चल बसे। फिर ये लोग अपने मामा राधारमण जी के साथ रहने लगे। इस उथल-पुथल में उनकी पढ़ाई देर से शुरू हुई। जब वे 9 वर्ष के थे तब उनका स्कूल में दाखिला कराया गया।
जब वे कक्षा दो में पढ़ रहे थे तभी उनके मामा जी बीमार हो गए। उन्हें इलाज के लिए लखनऊ जाना था, लेकिन साथ में जाने वाला कोई नहीं था। इस हालत में बालक दीनदयाल, जिसकी उम्र अभी सिर्फ साढ़े 10 साल थी, मामा को लेकर लखनऊ पहुंचा। इलाज के बाद दोनों फरवरी महीने में वापस आए। मार्च में अन्तिम परीक्षा थी। दीनदयाल जी ने बेहिचक परीक्षा दी और कक्षा में सबसे अधिक अंक प्राप्त किए। उस स्कूल में उन्होंने चौथी कक्षा तक पढ़ाई की। इसके बाद उन्होंने कोटा के एक छात्रावास में रहकर पांचवीं से सातवीं तक की शिक्षा ली। आठवीं और नौवी उन्होंने राजगढ़ से की। 10वीं की पढ़ाई के लिए वे सीकर में अपने चचेरे मामा के पास रहने लगे। 10वीं की परीक्षा में उन्होंने राजस्थान बोर्ड में सबसे ऊंचा स्थान प्राप्त कर अपनी प्रतिभा का परिचय दिया। उनकी इस प्रतिभा से महाराजा कल्याण सिंह बड़े प्रभावित हुए और उन्हें अपनी शुभकामनाएं देते हुए कहा, ''बोलो मैं तुम्हारी क्या मदद कर सकता हूं?'' इस पर दीनदयाल जी ने कहा, ''मुझे कुछ नहीं चाहिए, सिर्फ आपका आशीर्वाद चाहिए। बाकी भगवान सब संभाल लेंगे।'' यह प्रसंग बताता है कि छोटी उम्र में ही वे कितने परिपक्व हो गए थे। यह कोई साधारण बात नहीं थी। फिर भी महाराजा ने उन्हें स्वर्ण पदक और 250 रु. दिए और महीने में 10 रु. की छात्रवृत्ति देने की घोषणा की। यह छात्रवृत्ति आगे भी उनकी पढ़ाई में काम आई। इंटरमीडिएट की पढ़ाई के लिए दीनदयाल जी पिलानी गए। उन्हीं की कक्षा में उनके एक चचेरे भाई बनवारीलाल भी पढ़ते थे। घर की स्थिति ऐसी नहीं थी कि दोनों के लिए अलग-अलग पुस्तकें खरीदी जाएं। घर वालों ने उन दोनों को किताबों का एक सेट खरीद कर दे दिया। दीनदयाल जी ने कहा कि बनवारीलाल पढ़ने में कमजोर है, इसलिए वह पहले पुस्तकों को पढ़े। रात में उसके सोने के बाद मैं पढ़ लूंगा। रात में पढ़ने से कमरे के अन्य सहपाठियों को कोई दिक्कत न हो, इसलिए वे मोमबत्ती की रोशनी में पढ़ते थे।
दीनदयाल जी अनिकेत (जिनका कोई घर नहीं होता) थे। 25 वर्ष की उम्र पूरी करते-करते वे 11 जगहों पर रहे। वे पिता, नाना, मामा के घर के बाद छात्रावास में रहे। उन्होंने इलाहाबाद, कानपुर, पिलानी जैसी जगहों पर रहकर पढ़ाई की।
अभावों में पढ़ने के बावजूद उन्होंने इंटरमीडिएट की परीक्षा में सबसे पहला स्थान प्राप्त किया। एक दिन जी.डी. बिरला स्कूल आए और उनके सामने नौकरी का प्रस्ताव रखा। लेकिन दीनदयाल जी ने बहुत ही विनम्रतापूर्वक नौकरी ठुकरा दी और आगे पढ़ने की इच्छा जाहिर की। बिरला जी उनकी इच्छा के सामने झुक गए और उन्हें 250 रु. के साथ स्वर्णपदक दिया, साथ ही महीने में 10 रु. की छात्रवृत्ति भी देनी शुरू की। बी.ए. की पढ़ाई के लिए दीनदयाल जी कानपुर गए। उन्होंने प्रथम श्रेणी से बी.ए. की परीक्षा पास की। वहां उनके साथ सुन्दर सिंह भण्डारी और बलवंत महासब्दे रहते थे। उन्हीं दिनों कानपुर में भाऊराव जी की एक बैठक हुई। बलवंत जी के साथ दीनदयाल जी भी उस बैठक में शामिल हुए। भाऊराव जी ने सवाल किया कि इस देश को परम वैभव तक पहुंचाने के लिए कौन उनके साथ काम करेगा? दीनदयाल जी पर इसका प्रभाव पड़ा। इसके बाद वे कानपुर में मकर संक्राति के दिन संघ की शाखा में शामिल हुए। कानपुर में उनकी भेंट डॉ. हेडगेवार से हुई। इसके बाद वे अंग्रेेजी से एम.ए. करने के लिए आगरा आ गए और सेंट जॉन्स कॉलेज में दाखिला ले लिया। वहां वे और नानाजी देशमुख एक ही कमरे में रहते थे। जब वे एम.ए. द्वितीय वर्ष में थे तभी उनकी चचेरी बहन रमा देवी अस्वस्थ हो गईं। वे बहुत दिनों तक बीमार रहीं। एक समय ऐसा भी आया कि घर वालों ने उनकी देखभाल करना छोड़ना था। अब दीनदयाल जी के सामने बड़ा धर्म संकट था। वे पढ़ना भी चाहते थे और बहन की सेवा करना भी। अन्त में उन्होंने बहन की सेवा करने का फैसला लिया। हालांकि कुछ दिन बाद उनकी बहन इस दुनिया में नहीं रहीं। इसके बाद उन्होंने एम.ए. की पढ़ाई पूरी की।
एम. ए. करने के बाद वे एल.टी. करने के लिए इलाहाबाद गए। वहां उन्होंने गरीब छात्रों की स्थिति देखी तो उनका मन द्रवित हो गया और उन्होंने उन्हें पढ़ाना शुरू किया। इसके लिए उन्होंने 'जीरो एसोसिएशन' बनाया। इसके तहत उन्होंने उन बच्चों को पढ़ाना शुरू किया, जिनके जीरो अंक आते थे। उन्हीं दिनों उन्होंने सरकारी नौकरी के लिए आवेदन किया। लिखित परीक्षा में पास हो गए। अब साक्षात्कार की बारी थी। इसके लिए सूट बनवाना था, लेकिन समय पर सूट तैयार नहीं हो पाया। वे धोती-कुर्ता में ही साक्षात्कार देने के लिए चले गए। उन्होंने साक्षात्कार दिया और प्रथम आए। इस सफलता से उनके घर वाले बहुत खुश हुए कि अब दीनदयाल नौकरी करेंगे और घर की स्थिति ठीक हो जाएगी। लेकिन दीनदयाल जी के मन में तो और कुछ चल रहा था। उनके मन में तो भाऊराव जी का वह सवाल घुमड़ रहा था कि कौन इस देश को परम वैभव तक ले जाने के लिए काम करेगा?
आखिर में उन्होंने देश के लिए काम करना स्वीकार किया और नौकरी करने के लिए गए ही नहीं। वे संघ के प्रचारक बन गए। उन्हें सबसे पहले लखीमपुर में संघ कार्य को आगे बढ़ाने के लिए भेजा गया। एक दिन उन्होंने अपने सभी शैक्षणिक प्रमाणपत्रों को जला दिया। उनका तर्क था कि ये प्रमाणपत्र मुझे नौकरी तो दिला सकते हैं, जो हमें चाहिए ही नहीं। और जहां तक अपने मान या प्रतिष्ठा की बात है, तो हमें व्यक्तिगत मान नहीं चाहिए, देश का मान बढ़े, यही हमारे लिए सब कुछ है।
उन दिनों का एक बहुत ही प्रेरक प्रसंग है जब वे राष्ट्रधर्म प्रकाशन के प्रबंध निदेशक थे। एक बार बिजली नहीं रहने से छपाई की मशीन नहीं चल रही थी। काम बंद था। उन्हें पता चला तो वे स्वयं अपने हाथों से मशीन चलाने लगे और छपाई होने लगी। यह देखकर बाकी लोग हक्के-बक्के रह गए। वे लोग दौड़ते हुए आए और उनसे कहा कि आप छोड़ दीजिए, हम लोग सब काम कर लेंगे। लोगों ने उन्हें आराम करने की भी सलाह दी, लेकिन वे वहीं डटे रहे। इतना ही नहीं, जब राष्ट्रधर्म छप कर आता था तो वे डाक से भेजने के लिए उसके अंकों पर पते की पर्चियां भी चिपकाते थे और साइकिल पर रखकर रेलवे स्टेशन छोड़ आते थे। उन्होंने संघ पर प्रतिबंध लगने के बाद काफी संघर्ष किया, लोगों को जगाने का काम किया और संघ के संविधान को तैयार करने में महती भूमिका निभाई।
डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के केन्द्रीय मंत्रिमण्डल से त्यागपत्र देने के बाद भारतीय जनसंघ की स्थापना की पृष्ठभूमि बनने लगी। इन परिस्थतियों में दीनदयाल जी ने श्रीगुरुजी के साथ कई बैठकें कीं और फिर जनसंघ बना। उस समय दीनदयाल जी केवल 36 वर्ष के थे। जनसंघ का न तो दफ्तर था, न कार्यकर्ता और न ही जन समुदाय में कोई लोकप्रियता। इसके बावजूद उन्होंने जनसंघ का काम करना शुरू किया। वे जनसंघ के अध्यक्ष भी रहे। उनके मार्गदर्शन में जनसंघ ने गोवा मुक्ति, बेरूबादी, कच्छ, गो रक्षा जैसे आन्दोलनों को सफलतापूर्वक चलाया। इस बीच डॉ. मुखर्जी का निधन हो गया। चुनावों में भी कोई अपेक्षित सफलता नहीं मिल रही थी। कुछ लोगों ने सलाह दी कि जनसंघ का विलय हिन्दू महासभा या राम राज्य परिषद् में कर दिया जाए। पर उन्होंने संकल्प व्यक्त किया कि वे देश की संस्कृति के अनुसार काम करते हुए जनसंघ को वैकल्पिक दल के रूप में स्थापित करेंगे। आज उसी जनसंघ की नीतियों पर चलने वाली भारतीय जनता पार्टी देश पर शासन कर रही है।
लखनऊ से पटना जाने के दौरान 11 फरवरी, 1968 को रेलगाड़ी में उनकी रहस्यमय मृत्यु हो गई। मुगलसराय रेल प्रशासन ने उनके शव को लावारिस मानकर एक जगह रख दिया। संयोगवश एक कार्यकर्ता की नजर उस लाश पर पड़ी और उसने उन्हें पहचान लिया। इसके बाद पूरे देश को पता चला कि दीनदयाल जी नहीं रहे।
कथा के दूसरे दिन एकात्म मानववाद के विभिन्न प्रसंगों को बताया गया। भूमिका में मनुष्य की सुख-अभिलाषा और पश्चिम के प्रयत्न को शामिल किया गया। इसके बाद एकात्म व्यक्ति, शरीर, मन बुद्धि और आत्मा की चर्चा हुई। फिर व्यक्ति और समाज, समाज और प्रकृति, धर्म एवं चार पुरुषार्थ और अर्थायाम की भी चर्चा हुई। इस देश का चित्र, भारत माता का स्वरूप दीन दयाल जी के मन में कैसा था और यह कैसे लोगों के मन में सदियों से बसा है, यह बताने के लिए उदाहरण दिए गए (देखें बॉक्स)।
दीनदयाल जी कहते थे कि राष्ट्र का शरीर होता है देश और समाज। राष्ट्र का मन होता है देश के प्रति भक्तिभाव। राष्ट्र की बुद्धि है वेद, जैनियों, बौद्धों और सिखों के धर्म ग्रंथ। आत्मा होती है चिति। जो राष्ट्र अपनी चिति के अनुसार काम करता है, वह प्रगति करता है। जो राष्ट्र अपनी चिति के अनुकूल काम नहीं करता है वह नष्ट हो जाता है। इसलिए हमें इतिहास को फिर से देखने की जरूरत है। कथा में धर्म ग्रंथों के जरिए यह बताने का प्रयास किया गया कि इस देश के प्रति सभी लोगों की श्रद्धा है, चाहे वे किसी भी मत या पंथ को मानते हों।
कथा में महात्मा गांधी के हिन्द स्वराज का उल्लेख करते हुए यह बताया गया कि यह भारत उत्तर से दक्षिण तक एक है। ''हमारे दूरदर्शी पुरखों ने दक्षिण में सेतुबंध रामेश्वर, पूर्व में जगन्नाथ एवं उत्तर में हरिद्वार तीर्थ स्थापित किए। उन्होंने देखा कि भारत प्रकृति द्वारा बनाई गई एक अखण्ड भूमि है। यह एक राष्ट्र है। उन्होंने इनके द्वारा भारत के लोगों में एक राष्ट्र के विचार को इस तरह भर दिया कि जैसा विश्व में कहीं अन्यत्र नहीं पाया जाता है।'' (हिन्द स्वराज, अध्याय 9)
तीसरे दिन की कथा में इस सपूतों के साथ मातृभूमि के अनन्य संबंध को सामने रखा गया। बताया गया कि भारत सिर्फ भूखंड नहीं है बल्कि यह भूमि हमारी माता है। व्यासपीठ से कहा गया कि भारत के संबंध में तीन तरह के विचार हैं। कुछ लोग कहते हैं कि भारत एक प्राचीन राष्ट्र है, कुछ लोग कहते हैं कि भारत अब राष्ट्र बन रहा है, तो कुछ लोग कहते हैं कि भारत राष्ट्र है ही नहीं। इन सबका जवाब पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की पंक्तियां देती हैं-
भारत जमीन का टुकड़ा नहीं,
जीता-जागता राष्ट्रपुरुष है।
हिमालय इसका मस्तक है,
गौरीशंकर शिखा है।
कश्मीर किरीट है,
पंजाब और बंगाल दो विशाल कंधे हैं।
विंध्याचल कटि है, नर्मदा करधनी है।
पूर्वी और पश्चिमी घाट,
दो विशाल जंघाएं हैं।
कन्याकुमारी इसके चरण हैं,
सागर इसके पग पखारता है।
पावस के काले-काले मेघ
इसके कुंतल केश हैं।
चांद और सूरज इसकी आरती उतारते हैं।
यह वंदन की भूमि है, अभिनंदन की भूमि है।
यह तर्पण की भूमि है,
यह अर्पण की भूमि है।
इसका कंकर-कंकर शंकर है,
इसका बिंदु-बिंदु गंगाजल है।
अरुण कुमार सिंह
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