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शब्दावली के खेल में साम्यवादी बहुत तेज होते हैं। अपने लिए सकारात्मक और विरोधियों के लिए नकारात्मक विशेषण और जुमले उछालते रहना उनके लिए बहुत आसान है। ये खुद को वामपंथी और प्रगतिशील कहते हैं लेकिन संघ परिवार को दक्षिणपंथी और पुरातनपंथी। जेएनयू में एक समय था जब सिर्फ साम्यवादियों का ही कब्जा था। वो ये बातें किया करते थे कि लेनिन, माओ और मार्क्स में सबसे अच्छा कौन है। लेकिन संघ की शाखा और एबीवीपी के उभार के बाद लड़ाई राष्ट्रवाद बनाम साम्यवाद हो गई। इनका साम्यवाद भी लेनिन, माओ से हटकर भगत सिंह और कबीर की बात करने लगा। यह राष्ट्रवादी ताकतों की सैद्धान्तिक जीत थी। अपने मूल सिद्धांतों से हटकर वामपंथियों ने जेएनयू को हिंदू समाज को विखंडित करने और मुस्लिम तुष्टीकरण की प्रयोगशाला बना दिया. अस्मलाम आलेकुभ कब वालेकुम अस्सलाम बन गया पता ही ना लगा।
जेएनयू में तीन प्रमुख वामपंथी दल हैं- एसएफआई, आईसा और एआईएसएफ जो क्रमश: सीपीएस, सीपीएआई (एमएल) और सीपीआई के छात्र संगठन है. इन तीनों ही छात्र संगठनों के पितृ संगठन (पेरेंट ऑगेर्नाइजेशन) भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था का हिस्सा हैं। हालांकि देश और राष्ट्रवाद से जुड़े कई मुद्दों पर इनकी राय स्पष्ट नहीं है. सीपीआई(एमएल)पहले एक भूमिगत संगठन था जो बाद में भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था में विश्वास करने लगा और अब चुनावों में हिस्सा लेता है। सांगठनिक ढांचा अलग होने के बाद भी इन साम्यवादी दलों में अधिकतर मुद्दों पर सैद्धांतिक एकता रहती है।
जेएनयू में हमेशा से ही इन तीन मुख्य वामपंथी दलों के साथ कुछ हाशिये के संगठन रहे हैं जो अपनी अतिक्रांतिकारी सोच के लिए जाने जाते हैं। ये संगठन कई तरह के मुद्दों पर बौद्धिक विमर्श, कार्यक्रम और अभियान आयोजित करते हैं। इन बहसों, कार्यक्रम और अभियान का मुख्य स्वर भारतीय राष्ट्र-राज्य और हिदू धर्म का विरोध होता है.इनमें से कुछ प्रमुख संगठन हैं- डेमोक्रेटिक स्टूडेंट यूनियन (डीएसयू), पीएसयू, न्यू मैटेरियलिस्ट, रेवोल्यूशनरी कल्चरल फ्रंट, स्टूडेंट फ्रंट ऑफ इंडिया, क्रांतिकारी नौजवान सभा, जनरंग, बिरसा, अंबेडकर, फुले स्टूडेंट्स ऐसोसिएशन (बाफसा) आदि।
इन संगठनों की अतिक्रांतिकारी सोच और कांर्यक्रमों में शामिल है- देश के सभी अलगावादी आंदोलनों का समर्थन जिसमें विशेष रूप से कश्मीर की आजादी को समर्थन शामिल है, मां दुर्गा को वेश्या और महिषासुर को राजा बताना, गोमांस खाने का समर्थन और देश में तख्तापलट के लिए चल रहे सशस्त्र माओवादी आंदोलन का पुरजोर समर्थन, देश के उच्चतम न्यायालय से फांसी की सजा पा चुके अफजल गुरु को शहीद का दर्जा, याकूब मेनन की फांसी का विरोध और इसी तरह के अन्य कार्यक्रम।
जेएनयू में सक्रिय इन हाशिये के संगठनों में से सबसे सक्रिय डीएसयू है। जो भारत सरकार द्वारा प्रतिबंधित आतंकवादी संगठन सीपीआई (माओवादी) का एक छात्र संगठन है। सीपीआई (माओवादी) का लक्ष्य 2050 तक हथियारबंद लालक्रांति की बदौलत भारत पर लाल झंडा फहराकर कब्जा करना है। भारत सरकार ने भी 2013 की अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि दिल्ली में ऐसे कई एनजीओ और संगठन हैं जो सीपीआई (माओवादी)के मुखौटा संगठन बनकर काम कर रहे हैं। इसमें डीएसयू का नाम भी शामिल था। कहना ना होगा कि जेएनयू ऐसे संगठनों को पनपने के लिए बेहतर जमीन मुहैया कराता है। हाल में जेएनयू में अफजल गुरु की मौत को शहादत ठहराते हुए जो विवाद हुआ या 2010 में दंतेवाडा में शहीद सीआरपीएफ के जवानों की मौत का जश्न मनाने का कार्यक्रम हो- दोनों ही कार्यक्रम का आयोजक डीएसयू ही था। इसी तरह से अन्य संगठन भी जेएनयू में भारत विरोधी और हिंदू-विरोधी कार्यक्रम करते रहते हैं। इनमें से कइयों के पितृ-संगठन और आर्थिक पक्ष के बारे में कोई जानकारी नहीं उपल्ब्ध है। इन सभी संगठनों के कॉडर और प्रत्यक्ष समर्थकों की संख्या बहुत अधिक नहीं होती। लेकिन जब ये संगठन कोई कार्यक्रम करते हैं तो मुख्यधारा के वामपंथी सगठनों से इन्हें समर्थन मिलता है और नैतिक और संख्या बल का सहयोग भी प्राप्त होता है।
ये छोटे-छोटे संगठन सीधे तौर पर तीनों मुख्य वामपंथी दलों के साथ तो नहीं जुड़े रहते लेकिन करीब-करीब हर मुद्दे पर सैद्धांतिक रूप से उनके साथ खड़े दिखाई देते हैं। जब भारत विरोध या हिंदू धर्म पर कुठाराघात करने की बात आती है तो सभी मुख्यधारा के वामपंथी दल और हाशिये के वामपंथी संगठन एक साथ लाल झंडे के नीचे खड़े दिखाई देते हैं। अभी हाल में अफजल गुरु की शहादत पर हुआ कार्यक्रम भी डीएसयू के बैनर तले आयोजित हुआ लेकिन उसमें सभी वामपंथी संगठन के नेता और समर्थक पहुंचे थे जिनमें से एआईएसएफ संगठन से जेएनयूएसयू के अध्यक्ष पद का चुनाव जीता कन्हैया कुमार भी एक था।
इस तरह के हाशिये के संगठनों का उभार जिनका मुख्य स्वर ही भारत विरोध और हिंदू धर्म का विरोध करना है- जेएनयू के साथ-साथ देश के लिए घातक है। इनकी वजह से पूरा जेएनयू बदनाम हो रहा है। इन संगठनों का इतिहास उठाकर देखें तो विश्वविद्यालय और छात्र हितों की मांगे कम ही दिखाई देंगी। विश्वविद्यालय प्रशासन और भारत सरकार को इन संगठनों की छात्र आंदोलन में भूमिका की तत्काल जांच करनी चाहिए।
स्वदेश सिंह
(लेखक जेएनयू के पूर्व-छात्र हैं और दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीति शास्त्र पढ़ाते हैं।)
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