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हम जेएनयू के गठन से पहले, बतौर पी़एचडी़ छात्र एसआईएस (तत्कालीन आईएसआईएस) के साथ जुड़े थे। हम में से कुछ (जिनमें मेरे पति भी थे) ने पी़एचडी. के बाद जेएनयू में अध्यापन शुरू किया और सेवानिवृत्ति तक वहां पढ़ाते रहे।
9 फरवरी का विवाद विश्वविद्यालय परिसर में हिंसा और पुलिस के हस्तक्षेप की यह पहली घटना नहीं थी। मुझे याद है 1983 में मैं 'वाम' हिंसा की सीधी शिकार हुई थी (कई अन्य की तरह जो 'वामपंथी' नहीं थे)। मेरे पति एवं मैं दो वर्ष बाद स्वदेश लौटे ही थे। मेरे पति एसआईएस की पुरानी नौकरी पर लौट आए थे और हम रहने का स्थान तलाश रहे थे। एक शाम हम जेएनयू के दक्षिणापुरम में एक मित्र प्रोफेसर के यहां गए। हम बातचीत में व्यस्त थे कि अचानक दंगाई आ पहुंचे। घर को उन्होंने चारों ओर से घेर लिया और पथराव शुरू कर दिया। हम बुरी तरह से डर गए। उस समय मुझे आठ महीने का गर्भ था। लगातार बरस रहे पत्थर जब हमारे मेजबान के घर की बैठक में आकर गिरने लगे तो उन्होंने मुझे अपने शयनकक्ष में एक चारपाई के नीचे छुपा दिया। हम हैरान थे कि इतने वरिष्ठ, आदरणीय एवं किसी भी तरह की राजनीति से दूर रहने वाले प्रोफेसर के घर पर हमला क्यों किया गया? उलझन उस समय दूर हुई जब पत्थरबाजी करके वापस लौटते हुए दंगाइयों के लाल सलाम के नारे हमारे कानों में पड़े। यह घटना मेरे लिए बुरे सपने जैसी थी। हम अपना स्कूटर छोड़कर पिछले दरवाजे से निकले। बच निकलने के लिए हमने घर के पीछे की झाडि़यों का रास्ता पकड़ा। मैं हैरान थी कि क्या यह वही जेएनयू परिसर था जहां मैं रही और शिक्षित हुई थी! इस घटना के बाद 300 छात्रों को गिरफ्तार किया गया और विश्वविद्यालय एक माह तक बंद रहा था। इससे जुड़ी रिपोर्ट आप ँ३३स्र://्रल्ल्रिं३ङ्मिं८.्रल्ल३ङ्मिं८.्रल्ल/२३ङ्म१८/ँङ्म२३ी'-३१ंल्ल२ाी१-ङ्मा-२३४िील्ल३-'ींि२-३ङ्म-५्रङ्म'ील्लूी-्रल्ल-्नं६ंँं१'ं'-ल्लीँ१४-४ल्ल्र५ी१२्र३८/1/ 371660.ँ३े' पर पढ़ सकते हैं। क्या येचुरी, प्रो़ चिनॉय एवं अन्य उपरोक्त घटना से इनकार कर सकते हैं?
दरअसल, शुरुआत में जेएनयू की छात्र राजनीति दो धड़ों में विभाजित थी-वामपंथी एवं 'मुक्त विचारक'। एबीवीपी का पदार्पण जेएनयू परिसर में बहुत हाल की घटना है। इसलिए प्रो़ चिनॉय तब पूर्णतया गलत होते हैं जब वे जेएनयू की हिंसा के लिए पूरी तरह से एबीवीपी को जिम्मेदार ठहराते हैं।
हमारा अनुभव है कि जब तक जेएनयू के शीर्ष सोपान पर 'वामपंथी' कब्जा रहेगा, तब तक इतर विचारधारा रखने वालों के लिए हालात बदतर ही बने रहेंगे। सच यह है कि वामपंथी होने का दम भरने वाले अध्यापकों को उच्च वेतन एवं रहने के लिए बड़े क्वार्टर मुहैया कराए जाते हैं। यह देख कई अन्य भी रातोरात 'वामपंथी' हो गए थे। अन्य कई अध्यापक जो उस 'खेमे' में नहीं थे, उन्हें पदोन्नतियां नहीं मिलीं। कुछ को तो योग्य होने के बावजूद पक्का नहीं किया गया। पीएचडी एवं चार वर्ष के अध्यापन अनुभव के बावजूद, मेरे पति तीन वर्ष तक तदर्थ रूप से काम करते रहे थे। पक्का किए जाने के बाद भी उन्हें बुनियादी वेतन बिना बढ़ोतरी के दिया जाता रहा। 'वामपंथी' भेदभाव का इससे बड़ा रूप और क्या हो सकता है? इतना ही नहीं, 1970 के दशक में 'मुख्यधारा' का हिस्सा न बनने वाले अध्यापकों का जीना भी मुहाल कर दिया गया था। उन पर झूठे आरोप लगाए जाते रहे। यह जगजाहिर है कि विश्वविद्यालय के शीर्ष 'वाम धड़े' की मिलीभगत से 'पार्टी कर्मी' लंबे समय तक अवैध रूप से होस्टलों में जमे रहते थे।
इन उदाहरणों के आधार पर उन दिनों दिल्ली के समूचे शैक्षणिक अधिष्ठानों के 'रक्तिम स्वरूप' पर और बात करना बेमानी होगा। उन दिनों सभी क्षेत्रों पर 'वामपंथी' एकाधिकार था। शिक्षा मंत्रालय, यूजीसी, एनसीईआरटी आदि जैसे संस्थानों में कई अकादमिक एवं गैर-अकादमिक पदों पर 'वामपंथी' काबिज थे। तो आखिर अब वह शिक्षा के 'भगवाकरण' पर क्यों शिकायत करते हैं?
डॉ़ (श्रीमती) वत्सला
(लेखिका ने 1974 में अंतर्राष्ट्रीय व्यापार और अर्थशास्त्र में जेएनयू से पीएचडी की है)
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