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बाल चौपाल/क्रांति-गाथा
क्या आज के युवक उनका अनुसरण करेंगे?
पाञ्चजन्य ने सन् 1968 में क्रांतिकारियों पर केन्द्रित चार विशेषांकों की श्रृंखला प्रकाशित की थी। दिवंगत श्री वचनेश त्रिपाठी के संपादन में निकले इन अंकों में देशभर के क्रांतिकारियों की शौर्यगाथाएं थीं। पाञ्चजन्य पाठकों के लिए इन क्रांतिकारियों की शौर्य गाथाओं को आगामी अंकों में नियमित रूप से प्रकाशित करेगा ताकि लोग इनके बारे में जान सकें। प्रस्तुत है 22 जनवरी 1968 को प्रकाशित चंद्रशेखर आजाद व भगत सिंह के साथी रहे प्रोफेसर नंदकिशोर निगम का संस्मरण
इस लेख में मैं केवल युवकों को ही संबोधित करना चाहता हूं। इसमें कोई शक नहीं कि आज के युवकों में चालीस साल पहले के युवकों की अपेक्षा अधिक जागृति देखी जाती है। परंतु यह जागृति इन युवकों को किस ओर ले जा रही है यह भी तो विचारणीय समस्या है। आज हम देखते हैं कि युवकों का ध्यान पढ़ाई की ओर कम और हुल्लड़बाजी की ओर अधिक है।
अर्थाभाव और क्रांतिकारी
क्रांतिकारियों को रुपए का अभाव सदैव सताता रहा। उनके माता-पिता तो प्राय: डर कर उनको घर से ही निकाल दिया करते थे। अन्य लोग भी क्रांतिकारी के नाम से डरते थे। यह लिखते-लिखते मुझे एक निजी अनुभव याद आ गया।
दो पर्चे
मैं 1930 के आरंभ में हिन्दू कालेज दिल्ली में लेक्चरर था। होस्टल का सुपरिंटेंडेंट भी। उस समय श्री चन्द्रशेखर आजाद मेरे पास होस्टल में ही रहते थे। 26 जनवरी को लगभग समस्त भारत में 'फिलॉसाफी ऑफ द बाम्ब' का प्रत्युत्तर था। यह परचा हिन्दू कॉलेज के होस्टलों में भी बंटा। दूसरे दिन सारे भारत में एक हलचल सी मच गयी थी।
कथनी-करनी
मैं जब कालेज के अध्यापक-कक्ष (स्टॉफ रूम) में गया तो एक प्रोफेसर सोनी जी लंदन में उन्नीस वर्ष रहकर आये थे। बोले, भाई यह परचा लाजवाब है यदि कोई क्रांतिकारी मुझे मिल जाए तो मैं अपने एक मास की पगार के रुपए 300 उसको दे दूंगा। मैंने उनसे पूछा कि उनको यह कैसे पता चलेगा कि जो व्यक्ति उनसे रुपया लेने जाएगा वह क्रांतिकारी ही होगा। उन्होंने उत्तर दिया, उसके पास रिवाल्वर तो अवश्य होगा ही।
पहली फरवरी को पगार बंटी। दो फरवरी को मैं आजाद से रिवाल्वर मांग उनके दरियागंज के मकान पर पहुंचा और उनके ड्राइंग रूम की मेज पर रिवाल्वर रख दिया और उनसे तीन सौ रुपए मांगे। श्री सोनी की हालत देखने के काबिल थी। वह डर से थरथराने लगे, मुख से बोल भी ठीक नहीं निकल रहे थे। वह केवल इतना कह पाये कि मैं रिवाल्वर उठाकर फौरन ही उसके मकान से चला जाऊं और यह कि वे रुपया आदि कुछ नहीं देंगे।
ऐसी अवस्था में उन नवयुवकों को दल के लिए हथियार खरीदने और अपने गुजारे के लिए राजनीतिक डकैतियों का सहारा लेना पड़ता था। परंतु इन डकैतियों में वे इस बात का पूरा ध्यान रखते थे कि कोई जीवहत्या न हो जाए या किसी को चोट न लगे। काकोरी डकैती में अवश्य एक जान गई थी परंतु इसकी जिम्मेदारी उस मरने वाले व्यक्ति पर ही थी, जो अपने रेल के डिब्बे से उतरकर क्रांतिकारियों की तरफ आने लगे थे-हाथ में बंदूक लिए।
भोजन के लिए सिर्फ 4 आने मिलते थे
इस रुपए के अभाव के कारण क्रांतिकारी दल अपने असली कार्य में अधिक सफल नहीं हो सका। फिर भी दल के सदस्यों ने इस अभाव को अपनी कार्यपरायणता के बीच में नहीं आने दिया। लाहौर में जब आजाद, भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु आदि 15-20 दल के सदस्य रहते थे तब उनको केवल चार आने रोज मिलते थे। उसी में चाय पानी, नाश्ता, दो समय का भोजन आदि का खर्चा पूरा करना होता था। सोने के लिए भी कोई अच्छा स्थान नहीं था। फिर भी उन्हीं हालतों के मध्य उन्होंने सांडर्स का वध कर लाला लाजपतराय पर चलाई गई लाठियों का बदला चुका लिया था। आगरा, ग्वालियर, कानपुर, झांसी आदि में भी दल के सदस्यों का यही हाल था। 1930 के नवम्बर की सर्दी में जब मैंने आजाद को केवल एक धोती, एक आधी बांह की सूती कमीज और एक सूती कोट पहने देखा तो मैंने उनसे गरम कपड़े बनवाने के लिए कहा। उनका उत्तर था- ''साहब (मेरा पार्टी नाम साहब ही था), मेरे साथ यूपी के दल में इस समय चौतीस सदस्य हैं और सभी सूती कपड़े पहनते हैं। जब तक मैं उनको गरम कपड़े नहीं बनवा सकता, मैं गरम कपड़े नहीं पहन सकता।''
यह थी क्रांतिकारियों की लगन, यह था उनका ध्येय की पूर्ति का साधन। क्या आज के युवक उन क्रांतिकारियों की तकलीफों को, उनके त्याग को उनके बलिदान को जानते हैं या जानने की इच्छा रखते हैं? और यदि कुछ युवक ऐसे हों भी तो क्या वे इन क्रांतिकारियों का अनुसरण करने के लिए प्रस्तुत हैं? एन.के. निगम
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