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संकीर्ण मनोवृत्ति त्याग कर अखंड राष्ट्र-मूर्ति पुनर्स्थापित करने के लिए जुटा जाएबिहार प्रतिनिधि सम्म्ेलन में श्री वाजपेयी

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Feb 17, 2016, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 17 Feb 2016 13:10:01

60 वर्ष पहले पाञ्चजन्य के पन्नों से
वर्ष: 9  अंक: 32   
20 फरवरी,1956

(निज प्रतिनिधि द्वारा)
पटना। ''राष्ट्रीय एकता को बनाए रखने के लिए प्रादेशिक विधान मंडलों को भंग कर एकात्मक शासन की स्थापना की जानी चाहिए।'' ये विचार अ.भा. जनसंघ के संयुक्त मंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने एक महती जनसभा में कहे। श्री वाजपेयी बिहार प्रादेशिक जनसंघ के प्रतिनिधियों के वार्षिक सम्मेलन में भाग लेने के लिए यहां पधारे थे।
श्री वाजपेयी ने इस बात पर दु:ख प्रकट किया कि अंग्रेजों के चले जाने के बाद पिछले सात-आठ वर्षों में संपूर्ण देश में एक राष्ट्रजीवन का निर्माण करने के बजाय हमारे नेताओं ने भाषा और प्रांत के अभिनिवेश को इतना बल दिया कि आज हर एक प्रदेश अपना अलग अस्तित्व कायम रखने के लिए खून की नदियां बहाने को भी तैयार है। अब जब भारत का विभाजन होने लगा तो कोई आंसू बहाने वाला भी सामने नहीं आया, परंतु  आज बड़े-बड़े कांग्रेस के नेता भी बड़े गर्व से कहते हैं, हम अपने प्रदेश की एक इंच भूमि भी नहीं जाने देंगे।
संकीर्णता का प्रश्न
श्री वाजपेयी ने कहा कि आश्चर्य की बात है कि कश्मीर का एक तिहाई भाग, जो अपने हाथ से निकल गया है। उसे प्राप्त करने के लिए कोई आंदोलन करने वाला नहीं। गोआ की स्वतंत्रता के लिए भारतीय जनता को सत्याग्रह करने का अधिकार नहीं और पूर्वी पाकिस्तान से आये हुए विस्थापितों को बसाने के लिए पाकिस्तान से जमीन को मांग करने की हिम्म्त नहीं है। परंतु अपनी नेतागीरी कायम रखने के लिए लोगों को आपस में लड़ाकर देश की राष्ट्रीय एकता को नष्ट करने में न कोई शर्म है और न हिचक। प्रांतीयता और भाषा की संकीर्णता को आज इतना बल मिल रहा है कि कहीं मराठी गुजराती के साथ रहने को तैयार नहीं, तो कहीं सिख हिन्दू के साथ रहने को तैयार नहीं। यह ऐसी बीमारी है, जो राष्ट्र रूपी शरीर को खोखला बना देगी।
एक संस्कृति: एक राष्ट्र
राज्य र्पुसंगठन आयोग के प्रश्न पर जनसंघ की नीति स्पष्ट करते हुए श्री वाजपेयी ने कहा कि '''कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत एक है और उसकी एक संस्कृति है, एक राष्ट्र है और राज्य भी एक होना चाहिए। अलग-अलग राज्य और विधानमंडल पर करोड़ों रुपए खर्च करने की क्या आवश्यकता है? यह समझ में नहीं आता कि एक प्रदेश में गोहत्या बंद करने के लिए कानून बनता है, तो दूसरे प्रदेश के लिए क्या वह आवश्यक नहीं? मद्य-निषेध यदि बंबई में जरूरी है, तो दिल्ली क्यों नहीं?'

30,000 स्वयंसेवक
जन-संपर्क योजना में व्यस्त
उ.प्र. संघ कार्यवाह वक्तव्य
कानपुर। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ उत्तर प्रदेश के प्रांतीय कार्यवाह प्रो. राजेन्द्र सिंह ने प्रदेश के 5 प्रमुख नगरों का दौरा समाप्त करते हुए निम्न वक्तव्य
दिया है-
'राष्ट्रीय स्वयंसेवक के केन्द्रीय कार्यकारी मंडल के निश्चयानुसार प्रदेश में प्रत्येक स्थान पर जन-संपर्क अभियान प्रारंभ हुआ है और उसे जनता का पूरा-पूरा सहयोग प्राप्त हो रहा है, इस प्रकार के समाचार प्राप्त हो रहे हैं। सभी जिलों के प्रमुख नागरिकों, सामाजिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं द्वारा इसी आशय की अपीलें प्रकाशित हुई हैं।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लगभग 30,000 स्वयंसेवकों के 5000 दल इस जनसंपर्क कार्य में व्यस्त हैं और अभी तक प्रदेश के लगभग 3 लाख परिवारों से संपर्क स्थापित किया जा चुका है। ग्रामीण जनता का भी इस अभियान को समर्थन प्राप्त हो रहा है।
सारे प्रदेश में राष्ट्रीय स्व्यंसेवक संघ द्वारा, राज्य पुनर्गठन आयोग की सिफारिशों के प्रति लिए गये दृष्टिकोणको, जिसके अनुसार देश में एकात्मक शासन पद्धति के अंतर्गत केवल एक केन्द्रीय संसद होगी और भाषाओं के आधार पर प्रान्तों की रचना को लेकर फैल रही मतभेदों व झगड़ों की इस प्रकार समाप्ति हो सकेगी, जनता का प्रबल समर्थन प्राप्त हो रहा है।
इस वर्तमान परिस्थिति में जबकि प्रान्तीयता और जातीयता, अपनी पराकाष्ठा पर है और कोई भी दल जनता का सही मार्गदर्शन करने में असमर्थ है, प्रत्येक स्वयंसेवक का यह कर्तव्य है कि वह श्रीगुरुजी के 'जिन्होंने विशुद्ध भारतीय चारित्र्य निर्माण व विकास का कठिन व्रत अपने सम्मुख रखा है, विचारों से जनता को अवगत कराये।'

आज के संकटों की जड़
''अन्त: स्फूर्त ज्ञान की अपेक्षा बुद्धि से होने वाले ज्ञान की महत्ता पश्चिमी लोगों ने आज तक अधिक मानी है। धर्म की अपेक्षा विज्ञान, सहयोग की अपेक्षा स्पर्धा, प्राकृतिक स्रोतों के रक्षण की अपेक्षा उसके शोषण में उन्होंने अधिक रुचि ली है। अन्य अनेक बातों के साथ इन बातों से एक सांस्कृतिक असंतुलन निर्मित हुआ है। वही आज के संकटों की जड़ है। हमारे विचारों एवं भावनाओं, जीवन-मूल्यों एवं प्रवृत्तियों तथा सामाजिक एवं राजनीतिक रचना को अपने अंदर समेटने वाला यह असंतुलन है।''
-पं. दीनदयाल उपाध्याय
(पं. दीनदयाल उपाध्याय विचार-दर्शन
खण्ड-1, पृष्ठ संख्या-99)

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