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पाञ्चजय ने सन् 1968 में क्रांतिकारियों पर केन्द्रित चार विशेषांकों की श्रृंखला प्रकाशित की थी। दिवंगत श्री वचनेश त्रिपाठी के संपादन में निकले इन अंकों में देशभर के क्रांतिकारियों की शौर्यगाथाएं थीं। पाञ्चजन्य पाठकों के लिए इन क्रांतिकारी की शौर्य गाथाओं को अपने अगामी अंकों में नियमित रूप से प्रकाशित करेगा। ताकि लोग इनके बारे में जान सकें। प्रस्तुत है 22 जनवरी 1968 को प्रकाशित ''शहीद शालिग्राम'' की कहानी
कानपुर के शालिग्राम शुक्ल पुलिस से लड़ते-लड़ते बलिदान हुए। उस दिन श्री गजानन सदाशिव पोतदार की तलाश में पुलिस कानपुर डीएवी कालेज के हॉस्टल में उन्हें खोजने गई थी। अचानक शालिग्राम पुलिस के सामने पड़ गए। पुलिस को देखकर वे चल पड़े क्योंकि कांग्रेस आंदोलन में पुलिस उनकी भी तलाश में थी। जैसे ही पुलिस ने उन्हें पकड़ने की कोशिश की, शालिग्राम ने रिवाल्वर से गोली चलाई। इस झड़प में अंग्रेज पुलिस सार्जेंट हण्ट, एक हेड कान्स्टेवल तथा प्रेमवल्लभ कान्स्टेबल घायल हुआ। अंग्रेज सार्जेण्ट उसी दिन अस्पताल में जाकर मर गया। यह झड़प आक्जिलरी फोर्स और डीएवी कालेज हॉस्टल के बीच की सड़क पर हो रही थी। जब आक्जिलरी फोर्स के दफ्तर के सिपाही ने देखा कि क्रांतिकारी काबू में नहीं आ रहा है तो उसने राइफल से उन पर गोली चलाई और उसी से शालिग्राम का प्राणान्त हुआ।
मृत्यु-क्षणों में भी साथियों को सजग किया
उसके एक दिन पहले यह निश्चय हुआ था कि दूसरे दिन सबेरे सुरेन्द्रनाथ पाण्डेय तथा शालिग्राम कचहरी के चौराहे पर आजाद की और मेरी प्रतीक्षा करेंगे। उन दिनों वे नवाबगंज में गंगा किनारे के एक मकान में रहते थे। दोनों ही अंधेरे मुंह अपनी-अपनी साइकिल पर रिवाल्वर और गोलियां लेकर निकले। लाल इमली के पास जो रेलवे लाइन थी उसमें सुरेन्द्रनाथ पाण्डेय की साइकिल का चक्का फंसकर खराब हो गया तो शालिग्राम ने कहा कि वे उसे डीएवी कालेज के छात्रावास में किसी लड़के के पास छोड़ आयेंगे और उसकी साइकिल ले आयेंगे। सुरेन्द्रनाथ पाण्डेय कालेज के नुक्कड़ पर खड़े रहे और शालिग्राम चले गए। थोड़ी ही देर में गोली चलने की आवाज आई और 'बी अवेयर बी अवेयर' (सावधान! सावधान!) की आवाजें भी आईं। सुरेन्द्रनाथ पाण्डेय को समझते देर न लगी कि पुलिस से झड़प हो गई। इसलिए वे तुरंत वहां से भाग निकले। साइकिल, झोला और टिफिन कैरियर वहीं पड़े रह गए। हमने भी अपने कमरे से गोली की आवाज सुनी। भैय्या आजाद तुरंत समझ गए कि इन लोगों की पुलिस से झड़प हो गई। जब सब शांत हो गया तो हमलोग भी उधर से निकले। मिल के मजदूर जाना शुरू हो गए थे। उससे उधर से आना आसान था। हमने शालिग्राम की लाश पड़ी देखी। आगे चलकर थोड़ी ही दूर पर एक खंभे से साइकिल टिकी थी। उसमें एक झोला और टिफिन कैरियर भी टंगा था। हमलोग आगे निकल गए और फिर घूमकर अपने कमरे में आ गए। बहुत दिनों तक यह रहस्य रहा कि छात्रावास में पुलिस क्यों थीं और शालिग्राम का उन्हें कैसे पता चला? हम लोग चांदमारी करने जाने वाले थे। इस योजना का पता हम चार के सिवा और किसी को नहीं था।
आजाद दु:खी थे
बाद में जब मैं पकड़ा गया और दिल्ली षड्यंत्र के मुकदमें के लिए दिल्ली भेजा गया तो गजानन सदाशिव पोतदार ने बताया कि वह डीएवी कालेज में जब पढ़ता था तो छात्रावास में रहता था। यह बात कैलाशपति को मालूम थी। परंतु बाद में उसने पढ़ना छोड़कर नेशनल हेराल्ड में नौकरी कर ली थी। नौकरी की बात कैलाशपति को मालूम नहीं थी इसीलिए पुलिस उसे खोजने छात्रावास गई थी और अचानक शालिग्राम उनके सामने पड़ गए। सीआईडी इंस्पेक्टर शंभूनाथ उन्हें पहचानता था इसीलिए पुलिस उन्हें पकड़ने दौड़ी। शालिग्राम बहुत ही साहसी थे, वीर थे। भैय्या (आजाद) को उनकी शहादत का अत्यंत दु:ख हुआ। सोचने पर आज भी एक चित्र सामने नाच उठता है कि खून में लथपथ एक क्रांतिकारी युवक भूमि पर पड़ा है लेकिन चिल्लाए जाता है- ''सावधान! सावधान!'' उल्लेखनीय बात यह है कि उन क्षणों में भी शालिग्राम अपने साथियों को सजग करना नहीं भूले जब कि वे स्वयं घायल होकर धरती पर जा पड़े थे। उस तरुण क्रांतिकारी की अपने अंतिम समय में यह तत्परता कितनी बड़ी चीज है और उसने आजाद और हमारे कई साथियों को एक बड़े खतरे से बचाने में मदद की। -वैशम्पायन
(लेखक स्वयं क्रांतिकारी रहे, यह उनका आंखो देखा संस्मरण हैं वह भी अब दिवंगत हो चुके हैं)
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