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आज के समय में पैसा हर कोई चाहता है पर लेकिन देने की भी तुक होनी चाहिए। युवा खिलाडि़यों को आप करोड़ों रुपए देते हैं तो लगता है कि आप उनके भविष्य के साथ ही खिलवाड़ कर रहे हैं। क्रिकेट में आइपीएल से पैसे की शुरुआत हुई और उसके पीछे हॉकी सहित अन्य खेलों का दौड़ना कतई उचित नहीं लगता। इससे हो यह रहा है कि 15-20 खिलाडि़यों को तो भरपूर पैसा मिल रहा है और बाकी की हालत पहले जैसी ही है। आप हॉकी को ही लें, इसमें 15-20 खिलाडि़यों को तो भरपूर पैसा मिल रहा है। पर बाकी खिलाडि़यों को तो कोई पूछ ही नहीं रहा।
देश में जब तक पैसा नीचे राज्यों और राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिताओं में नहीं लगाया जाएगा, तब तक कम से कम देश की हॉकी का तो भला होने से रहा। आज जरूरत इस बात की है कि घरेलू स्तर पर होने वाले विभिन्न टूर्नामेंटों में भाग लेने वाले खिलाडि़यों को भत्ता दिया जाए और इसी तरह निचले स्तर पर पैसा लगाया जाए तो बेहतर परिणाम निकल सकते हैं। हॉकी हो या फुटबाल सभी रोनाल्डो जैसा खिलाड़ी निकालने में लगे हुए हैं पर रोनाल्डो जैसे खिलाड़ी कैसे निकलते हैं यह कोई नहीं जानता है और इस कारण रोनाल्डो जैसे खिलाड़ी निकल भी नहीं रहे हैं। अगर अच्छे परिणाम चाहिए तो कुछ खिलाडि़यों पर पैसे की बरसात करने के बजाय निचले स्तर पर खिलाडि़यों को सुविधाएं उपलब्ध करानी होंगी।
असल में हम आज असली चीज को ही भूल गए हैं। अब नए निकलने वाले खिलाडि़यों के लिए ओलंपिक मेडल के कोई मायने नहीं हैं। उनका ध्यान सिर्फ इस पर रहता है कि कितने पैसे मिलेंगे। इसलिए युवा खिलाडि़यों की सोच को बदलने की जरूरत है ताकि वह समझ सके कि ओलंपिक मेडल जीतने की क्या अहमियत रहती है। यह काम निचले स्तर पर खेलों के प्रति जागृति लाकर ही किया जा सकता है। देश में आज भी तमाम टूर्नामेंट खिलाडि़यों को सिर्फ दाल-रोटी खिलाकर और जमीन पर सुलाकर आयोजित किए जा रहे हैं, इसलिए जरूरी है कि कुछ हाथों में करोड़ों रुपए बांटने के बजाय ऐसे टूनार्मेंट करने वालों तक पैसा पहुंचाया जाए, तब ही देश में खेल क्रांति संभव है।
(अशोक ध्यानचंद पूर्व ओलंपियन हैं)
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